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पढ़िए एक थोड़ी सी पुरानी कहानी , बिलकुल ही एक नये अंदाज में और जानिए कि क्यूं जरूरी है घर में बड़े बुजुर्गों की उपस्थिति???
बच्चों को स्कूल बस में बैठाकर वापस आकर शालू खिन्न मन से टैरेस पर जाकर बैठ गयी। सुहावना मौसम, हल्के बादल और पक्षियों का मधुर गान कुछ भी उसके मन को वह सुकून नहीं दे पा रहे थे, जो वो अपने पिछले शहर के घर में छोड़ कर आयी थी।
शालू की इधर-उधर दौड़ती सरसरी नज़रें थोड़ी दूर पर एक पेड़ की ओट में खड़ी एक बुढ़िया पर ठहर गयी। वह सोचने लगी ‘ओह! फिर वही बुढ़िया, आखिर वह क्यों इस तरह से उसके घर की ओर ताकती है?’ शालू की उदासी बेचैनी में तब्दील हो गयी, मन में शंकाएं पनपने लगीं। इससे पहले भी शालू उस बुढ़िया को तीन-चार बार नोटिस कर चुकी थी।
शालू को पूना से गुड़गांव शिफ्ट हुए पूरे दो महीने हो गये थे , मगर अभी तक वह यहां ठीक से एडजस्ट नहीं हो पायी थी। पति सुधीर का बड़े ही शॉर्ट नोटिस पर तबादला हुआ था इसलिए वो तो आते ही अपने काम और ऑफ़िशियल टूर में व्यस्त हो गए।
उधर बेटी शैली का तो पहली क्लास में आराम से एडमिशन हो गया, मगर सोनू को बड़ी मुश्किल से पांचवीं क्लास के मिड सेशन में एडमिशन मिला। वो दोनों भी धीरे-धीरे रूटीन में आ रहे थे लेकिन शालू ?
शालू की स्थिति तो उस पौधे की तरह हो गयी थी जिसे जड़ से उखाड़ कर दूसरी ज़मीन पर रोप दिया गया हो ,जो अभी भी नयी ज़मीन नहीं पकड़ पा रहा था।
सब कुछ कितना सुव्यवस्थित चल रहा था पूना में? उसकी अच्छी जॉब थी। घर संभालने के लिए अच्छी मेड थी जिसके भरोसे वह घर और रसोई छोड़कर सुकून से ऑफ़िस चली जाती थी। घर के पास ही बच्चों के लिए एक अच्छा-सा डे केयर भी था। स्कूल के बाद दोनों बच्चे शाम को उसके ऑफ़िस से लौटने तक वहीं रहते थे। लाइफ़ बिल्कुल सेट थी, मगर सुधीर के एक तबादले की वजह से सब गड़बड़ हो गया।
यहां न आस-पास कोई अच्छा डे केयर है और न ही कोई भरोसे लायक मेड ही मिल रही है। उसका करियर तो चौपट ही समझो और इतनी टेंशन के बीच ये विचित्र बुढ़िया? कहीं छुपकर घर की टोह तो नहीं ले रही? वैसे भी इस इलाके में चोरी और फिरौती के लिए बच्चों का अपहरण कोई नयी बात नहीं है। सोचते-सोचते शालू परेशान हो उठी।
दो दिन बाद सुधीर टूर से वापस आए तो शालू ने उस बुढ़िया के बारे में बताया। सुधीर को भी कुछ चिंता हुई, “ठीक है, अगली बार कुछ ऐसा हो तो वॉचमैन को बोलना वो उसका ध्यान रखेगा वरना फिर देखते हैं, पुलिस कम्प्लेन कर सकते हैं।”
कुछ दिन ऐसे ही गुज़र गए। घर को दोबारा ढर्रे पर लाकर नौकरी करने का संघर्ष शालू के लिए जारी था पर इससे बाहर आने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी।
एक दिन सुबह शालू ने टैरेस से देखा कि वॉचमैन उस बुढ़िया के साथ उनके मेन गेट पर आया हुआ था। सुधीर उससे कुछ बात कर रहे थे। पास से देखने पर उस बुढ़िया की सूरत कुछ जानी पहचानी-सी लग रही थी। शालू को लगा उसने यह चेहरा कहीं और भी देखा है, मगर कुछ याद नहीं आ रहा था। बात करके सुधीर घर के अंदर आ गए और वह बुढ़िया मेन गेट पर ही खड़ी रही।
“अरे, ये तो वही बुढ़िया है, जिसके बारे में मैंने आपको बताया था? ये यहां क्यों आयी है?” शालू ने चिंतित स्वर में सुधीर से पूछा।
“बताऊंगा तो आश्चर्यचकित रह जाओगी।जैसा तुम उसके बारे में सोच रही थी, वैसा कुछ भी नहीं है। जानती हो वो कौन है?”
शालू का विस्मित चेहरा आगे की बात सुनने को बेक़रार था।
“वो इस घर की पुरानी मालकिन हैं ।”
“क्या? मगर ये घर तो हमने मिस्टर शांतनु से ख़रीदा है?”
“ये लाचार बेबस बुढ़िया उसी शांतनु की अभागी माॅं है, जिसने पहले धोखे से सब कुछ अपने नाम करा लिया और फिर ये घर हमें बेचकर विदेश चला गया, अपनी बूढ़ी मां गायत्री देवी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर।
छी: … कितना कमीना इंसान है, देखने में तो बड़ा शरीफ़ लग रहा था?” सुधीर का चेहरा वितृष्णा से भर उठा। वहीं शालू याद्दाश्त पर कुछ ज़ोर डाल रही थी।
“हां, याद आया। स्टोर रूम की सफ़ाई करते हुए इस घर की पुरानी नेमप्लेट दिखी थी।उस पर ‘गायत्री निवास’ लिखा था, वहीं एक राजसी ठाठ-बाटवाली महिला की एक पुरानी फ़ोटो भी थी। उसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता था, तभी मुझे लगा था कि इसे कहीं देखा है, मगर अब ये यहां क्यों आयी हैं? क्या घर वापस लेने? पर हमने तो इसे पूरी क़ीमत देकर ख़रीदा है।” शालू थोड़ी चिंतित हो उठी।
“नहीं, नहीं आज इनके पति की पहली बरसी है। ये उस कमरे में दीया जलाकर प्रार्थना करना चाहती हैं , जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी। ”
“इससे क्या होगा, मुझे तो इन बातों में कोई विश्वास नहीं?”
“तुम्हें न सही, उन्हें तो है और अगर हमारी हां से उन्हें थोड़ी-सी ख़ुशी मिल जाती है, तो हमारा क्या घट जाएगा?”
“ठीक है, आप उन्हें बुला लीजिए।” अनमने मन से ही सही, मगर शालू ने हां कर दी तो गायत्री देवी अंदर आ गयी। क्षीण काया, तन पर पुरानी सूती धोती, बड़ी-बड़ी आंखों के कोरों में कुछ जमे, कुछ पिघले से आंसू।अंदर आकर उन्होंने सुधीर और शालू को ढेरों आशीर्वाद दिए।
वह नज़रें भर-भरकर उस पराये घर को देख रही थीं, जो कभी उनका अपना था। आंखों में कितनी स्मृतियां, कितने सुख और कितने ही दु:ख एक साथ तैर आए थे।
वो ऊपरवाले कमरे में गयी। कुछ देर आंखें बंद कर बैठी रहीं। बंद आंखें लगातार रिस रही थीं। फिर उन्होंने दीया जलाया, प्रार्थना की और फिर वापस से दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, “मैं इस घर में दुल्हन बनकर आयी थी। सोचा था, अर्थी पर ही जाऊंगी, मगर…” स्वर भर्रा आया था।
“यही कमरा था मेरा। मैंने यहां कितने ही साल अपनों के साथ हॅंसी-ख़ुशी बिताए हैं। मगर शांतनु के पिता के जाते ही…” आंखें पुनः भर आयीं।
शालू और सुधीर नि:शब्द बैठे रहे।
थोड़ी देर घर से जुड़ी बातें कर गायत्री देवी भारी क़दमों से उठीं और चलने लगीं। पैर जैसे इस घर की चौखट छोड़ने को तैयार ही न थे, पर जाना तो था ही। उनकी इस हालत को वो दोनों भी महसूस कर रहे थे।
“आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूं।” शालू गायत्री देवी को रोककर कमरे से बाहर चली गयी और इशारे से सुधीर को भी बाहर बुलाकर कहने लगी, “सुनिए, मुझे एक बड़ा अच्छा आइडिया आया है जिससे हमारी लाइफ़ भी सुधर जाएगी और इनके टूटे दिल को भी आराम मिल जाएगा।
मैं तो कहती हूं किक्यों न हम इन्हें यहीं रख लें? अकेली हैं, बेसहारा हैं और इस घर में इनकी जान बसी है। यहां से कहीं जाएंगी भी नहीं और हम इन्हें यहां पर वृद्धाश्रम से अच्छा ही खाने-पहनने को देंगे।”
“तुम्हारा मतलब है, नौकर की तरह?”
“नहीं, नहीं। नौकर की तरह नहीं। हम इन्हें कोई तनख़्वाह थोड़े न देंगे! काम के लिए तो मेड भी है ही। बस ये घर पर रहेंगी तो घर के आदमी की तरह मेड पर, आने-जाने वालों पर नज़र रख सकेंगी। बच्चों को देख-संभाल सकेंगी। ये घर पर रहेंगी तो मैं भी आराम से नौकरी पर जा सकूंगी। मुझे भी पीछे से घर की, बच्चों के खाने-पीने की टेंशन नहीं रहेगी।”
“आइडिया तो अच्छा है पर क्या ये मान जाएंगी?”
“क्यों नहीं? हम इन्हें उस घर में रहने का मौक़ा दे रहे हैं, जिसमें उनके प्राण बसे हैं, जिसे ये छुप-छुपकर देखा करती हैं।”
“और अगर कहीं मालकिन बन घर पर अपना हक़ जमाने लगीं तो?”
“तो क्या, निकाल बाहर करेंगे। घर तो हमारे नाम ही है। ये बुढ़िया क्या कर सकती है?”
“ठीक है, तुम बात करके देखो ।” सुधीर ने सहमति जताई।
शालू ने संभलकर बोलना शुरू किया, “देखिए, अगर आप चाहें, तो यहां रह सकती हैं।”
बुढ़िया की आंखें इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से चमक उठीं। क्या वाक़ई वो इस घर में रह सकती हैं, लेकिन फिर बुझ गयीं।आज के ज़माने में जहां सगे बेटे ने ही उन्हें घर से यह कहते हुए बेदख़ल कर दिया कि अकेले बड़े घर में रहने से अच्छा उनके लिए वृद्धाश्रम में रहना होगा। वहां ये पराये लोग उसे बिना किसी स्वार्थ के क्यों रखेंगे?
“ नहीं, नहीं। आपको नाहक ही परेशानी होगी। ”
“परेशानी कैसी, इतना बड़ा घर है और आपके रहने से हमें भी आराम हो जाएगा । ”
हालांकि दुनियादारी के कटु अनुभवों से गुज़र चुकी गायत्री देवी शालू की आंखों में छिपी मंशा समझ गयीं मगर उस घर में रहने के मोह में वह मना न कर सकीं।
गायत्री देवी उनके साथ रहने आ गयीं और आते ही उनके सधे हुए अनुभवी हाथों ने घर की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल ली। सभी उन्हें अम्मा कहकर ही बुलाते। हर काम उनकी निगरानी में सुचारु रूप से चलने लगा। घर की ज़िम्मेदारी से बेफ़िक्र होकर शालू ने भी नौकरी ज्वॉइन कर ली। साल भर कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला।
अम्मा सुबह दोनों बच्चों को उठातीं, तैयार करतीं, मान-मनुहार कर खिलातीं और स्कूल बस तक छोड़तीं। फिर किसी कुशल प्रबंधक की तरह अपनी देखरेख में बाई से सारा काम करातीं। रसोई का वो स्वयं ख़ास ध्यान रखने लगीं, ख़ासकर बच्चों के स्कूल से आने के व़क़्त वो उन्हें नित नए स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन तैयार कर देतीं।
शालू भी हैरान थी कि जो बच्चे चिप्स और पिज़्ज़ा के अलावा कुछ भी मन से न खाते थे, वे उनके बनाए व्यंजन ख़ुशी-ख़ुशी खाने लगे थे। बच्चे अम्मा से बेहद घुल-मिल गए थे। उनकी कहानियों के लालच में कभी देर तक टीवी से चिपके रहनेवाले बच्चे उनकी हर बात मानने लगे थे।वे समय से खाना-पीना खाकर और होमवर्क निपटाकर बिस्तर में पहुंच जाते।
अम्मा अपनी कहानियों से बच्चों में एक ओर जहां अच्छे संस्कार डाल रही थीं, वहीं हर व़क़्त टीवी देखने की बुरी आदत से भी दूर ले जा रही थीं। शालू और सुधीर बच्चों में आए सुखद परिवर्तन को देखकर अभिभूत थे क्योंकि उन दोनों के पास तो कभी बच्चों के पास बैठ बातें करने का भी समय नहीं होता था।
पहली बार शालू ने महसूस किया कि घर में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की उपस्थिति, नानी-दादी का प्यार, बच्चों पर कितना सकारात्मक प्रभाव डालता है? उसके बच्चे तो शुरू से ही इस सुख से वंचित रहे क्योंकि उनके जन्म से पहले ही उनकी नानी और दादी दोनों गुज़र चुकी थीं।
२
आज शालू का जन्मदिन था। सुधीर और शालू ने ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलकर बाहर डिनर करने का प्लान बनाया था। सोचा था, बच्चों को अम्मा संभाल लेंगी, मगर घर में घुसते ही दोनों हैरान रह गए। बच्चों ने घर को गुब्बारों और झालरों से सजाया हुआ था। वहीं अम्मा ने शालू की मनपसंद डिशेज़ और केक बनाए हुए थे। इस सरप्राइज़ बर्थडे पार्टी, बच्चों के उत्साह और अम्मा की मेहनत से शालू अभिभूत हो उठी और उसकी आंखें भर आयी।
एक तो इस तरह के वीआईपी ट्रीटमेंट की उसे आदत नहीं थी और दूसरी बात कि इससे पहले बच्चों ने कभी उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास किया भी नहीं था। बच्चे दौड़कर शालू के पास आ गए और जन्मदिन की बधाई देते हुए पूछा, “आपको हमारा सरप्राइज़ कैसा लगा?”
“बहुत अच्छा, इतना अच्छा, इतना अच्छा… कि क्या बताऊं…” कहते हुए उसने बच्चों को बांहों में भरकर चूम लिया।
“हमें पता था आपको अच्छा लगेगा। अम्मा ने बताया कि बच्चों द्वारा किया गया छोटा-सा प्रयास भी मम्मी-पापा को बहुत बड़ी ख़ुशी देता है, इसीलिए हमने आपको ख़ुशी देने के लिए ये सब किया। ”
शालू की आंखों में अम्मा के लिए कृतज्ञता छा गयी। बच्चों से ऐसा सुख तो उसे पहली बार ही मिला था और वो भी उन्हीं के संस्कारों के कारण।
केक कटने के बाद गायत्री देवी ने अपने पल्लू में बंधी लाल रुमाल में लिपटी एक चीज़ निकाली और शालू की ओर बढ़ा दी।
“ये क्या है अम्मा?”
“तुम्हारे जन्मदिन का उपहार।”
शालू ने खोलकर देखा तो रुमाल में सोने की चेन थी। वह चौंक पड़ी, “ये तो सोने की मालूम होती है।”
“हां बेटी, सोने की ही है। बहुत मन था कि तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें कोई तोहफ़ा दूं।कुछ और तो नहीं है मेरे पास, बस यही एक चेन है, जिसे संभालकर रखा था। मैं अब इसका क्या करूंगी? तुम पहनना, तुम पर बहुत अच्छी लगेगी। ”
अब शालू की अंतरात्मा उसे कचोटने लगी। जिसे उसने लाचार बुढ़िया समझकर स्वार्थ से तत्पर हो अपने यहां आश्रय दिया, उनका इतना बड़ा दिल कि अपने पास बचे इकलौते स्वर्ण धन को भी वह उसे सहज ही दे रही हैं?
“नहीं, नहीं अम्मा, मैं इसे नहीं ले सकती।”
“ले ले बेटी, एक माॅं का आशीर्वाद समझकर रख ले। मेरी तो उम्र भी हो चली। क्या पता तेरे अगले जन्मदिन पर तुझे कुछ देने के लिए मैं रहूं भी या नहीं।”
“नहीं अम्मा, ऐसा मत कहिए। ईश्वर आपका साया हमारे सिर पर सदा बनाए रखे। ” कहकर शालू उनसे ऐसे लिपट गयी जैसे बरसों बाद कोई बिछड़ी बेटी अपनी माॅं से मिल रही हो।
वो जन्मदिन शालू कभी नहीं भूली, क्योंकि उसे उस दिन एक बेशक़ीमती उपहार मिला था जिसकी क़ीमत कुछ लोग बिल्कुल नहीं समझते और वो है नि:स्वार्थ मानवीय भावनाओं से भरा माॅं का प्यार। वो जन्मदिन गायत्री देवी भी नहीं भूलीं क्योंकि उस दिन उनकी उस घर में पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी।
घर की बड़ी, आदरणीय, एक माॅं के रूप में, जिसकी गवाही उस घर के बाहर लगायी गयी वो पुरानी नेमप्लेट भी दे रही थी, जिस पर लिखा था – ‘गायत्री निवास’
नोट – अगर आपकी भी आंखें इस सच्ची कहानी को पढ़कर छलक आयी हों तो इसे औरों को भी भेजिएगा ताकि लार्ड मैकाले की ऐसी शिक्षा की सच्चाई उन संभ्रांत लोगों को भी समझायी जा सके जो अमीर होने के घमण्ड में अपने बुढ़ापे को बर्बाद करके पाई-पाई के मोहताज होकर जीते हैं और ………….? बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं।
साभार फेसबुक मधु सिंह