प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के आठवें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“कुम्भूपमं कायमिदं विदित्वा नगरूपमं चित्तमिदं उपेत्वा।
योधेघ मारं पञ्ञायुधेन जितं च रक्खे अनिवेसनो सिया”॥८॥”
पुनः तथागत जी कहते हैं कि-“रमता जोगी बहेता पानी कभी मलीन नहीं होते ! रुका हुवा जल आज नहीं तो कल दुर्गन्धित हो ही जायेगा।
गाड़ीवान-रैक्व,शुकदेवजी,याज्
“अविसाहिए दुवे वासे, सीतोदं अभोच्चा णिक्खंते।
एगत्तगए पिहियच्चे, से अहिण्णायदंसणे संते ॥”
मुझे मेरे गुरुदेव भगवान अवधूत रामजी ने कभी कहा था कि-” जो अवधूत होते हैं,वे गलियों में चिथड़ों की झोली बनाकर,पाप-पुण्यों से रहित, विषयादि के त्यागी और कदाचित् नग्नावस्था में भी रहें अथवा राज्य-प्रासाद में रहें ! वे तो शुद्ध, निर्दोष,सदैव समरस, ब्रम्हानंद रूपी शून्य- मंदिर में ही विचरते हैं ! इसी संदर्भ में अवधूत गीता•७•१• में स्पष्ट करते हैं कि-
“रथ्याकर्पटविरचितकन्थः,
पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
शून्यागारे ततिष्ठति नग्नो,
शुद्ध निरंजन समर समग्नः॥”
इसका भी कारण है,सद्धर्म पुण्डरीक,धर्मवेघसूत्र,आचार्य हेवज्रादि का एक वाक्य मुझे अत्यंत ही प्रिय है ! जो आप जैसे मनीषि,योगी, जाग्रत,बुद्ध-पुरुष होते हैं उनमें ! अर्थात -“बुद्धपुरुषों में करुणा,ममत्व और स्पृहाका अभाव होता है !” बुद्धावस्था अनन्त-ज्ञानमयी अवस्था है,इसी कारण आचार्यों ने इसे बोधि न कहकर-“महाबोधि” कहा है ! मित्रों ! कोई जनक जैसा सामर्थ्यवान ही-“विदेह” हो सकता है और ऐसे विदेह के आँगन में ही-वैदेही सीता” पालने में आती हैं।
तथागतजी कहते हैं कि-
“कुम्भूपमं कायमिदं विदित्वा नगरूपमं चित्तमिदंसहे”
अर्थात हे भिक्षु ! तेरा ये शरीर तो किसी मिट्टी के घड़े की तरह है,और आप स्वयम् विचार-करें कि जब मैं मूर्ख अपने दस-बीस पचास हजार के आभूषण थोडे से संचित धन अथवा मुल्यवान वस्तुओं को रखने हेतु गोदरेज, तिजोरियों,तालों और लाॅकरों का उपयोग करता हूँ ! और इतने मूल्यवान अपने- “चित्त” को शरीर रूपी मिट्टी के घड़े में ही सुरक्षित मान बैठा ?
किसी बैंक अथवा चिट्ट फंड कम्पनी के दिवालिया होने पर सरकार को कोसने वाले हमलोग अपने शरीर में बैठे अपने-आप को अर्थात अपनी उस जीवात्मा के साथ सतत् छल कर रहे हैं ! अपने-आप को हम स्वयं ही युगों युगों से ठगते आ रहे हैं-
“इस देह में चोर चकोर भरे निज माल की ले सम्भाल जरा।
बहुते होशियार लुटाय गये नहीं कायम कोई की लाज रही।
उठ जाग मुसाफिर चेत जरा तेरे कूच की नौबत बाज रही।
तेरे सोवत सोवत बीत गयी सब रात तो अब प्रभात हुयी॥”
प्रिय मित्रों ! सहस्त्रों सहस्त्र मुनियों को संतुष्ट कर ! लाखों सुवर्ण मण्डित गायों को प्राप्त करते ही तत्काल याज्ञवल्क्य नें सन्यास ले लिया ! पाँडवों ने विश्व-विजयोपरांत स्वर्गा रोहण कर लिया ! कलिंग पर विजय प्राप्त करने के पश्चात सम्राट अशोक- “अघोषित भिक्षुक” बन गये ! अपने युवराज तथा अपनी पुत्री संघमित्राको धर्मप्रचार हेतु आजीवन विदेशों में भेज दिया !
आश्मरथ्य,कृशकृत्सायन, तथागत, ऋष्यभृक्, अजातशत्रु, ,महावीर,आद्याचार्य, नरेन्द्र, ऋषि- दयानंद जैसे लाखों-लाख- राजर्षियोंकी तपोभूमि मेरी आपकी संस्कृति रही है ! यही भारत माता रही हैं-
“मातृभूमि पितृभूमि धर्मभूः महान।
भरत भूः महान है महान है महान॥”
मैं स्वयम् ही यह देखता हूँ कि जिस-प्रकार किसी एक स्थान में जन्मा हुवा पानी अंततः गंदा हो जाता है ! सड-कर दुर्गंधित हो जाता है ! कृमि उत्पन्न हो जाते हैं उसमें ! बिल्कुल इसी कारण- “कुछ ,संत,हंस_,परमहंस सन्यास गृहण करते ही गृह,मठ, मंदिरोंको त्यागकर स्वच्छंद स्वतंत्र विचरण करते हैं ! जैसे गृहस्थ को अपने घर में रहने से धन,सम्पत्ति, कर्तब्य तथा सम्बंधों की जंजीरें बाँधकर रख-लेती हैं ! वैसे ही यदि कुटीचक्र परम्परा के पश्चात जिस प्रकार महावीर स्वामी,तथागत,आद्याचार्यादि ने बहुदक सन्यस्तोपरांत वे #हंस हो गये- परमहंस हो गये ! हजारों हजार आश्रमों,धम्मसंघों,मठों की स्थापना तो की ! किंतु आजीवन कहीं बँधकर नहीं रहे ! किसी भी व्यक्ति,शिष्य,स्थान, देवता,देवालय,मठ आदि से अपने आपको कभी बँधने नहीं दिया।
इस सूत्रमें,पद्द में यही कहते हैं कि-“काम,क्रोध लोभादि प्रबल शत्रुओं के विजेता परमहंस सर्व त्यागी ही होते हैं ! अन्यथा कर्मकांडियों से तो समूचा तालाब भरा पडा है। बुद्धावस्था अनन्त-ज्ञानमयी अवस्था है,इसी कारण आचार्यों ने इसे बोधि न कहकर-“महाबोधि” कहा है ! यही इस पद का भाव है ! शेष अगले अंक में प्रस्तुत करता हूँ–“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”
