नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित धम्मपद्द के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में यमकवग्गो के १५ वें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“इध सोचति पेच्च सोचति पापकारी उभयत्थ सोचति।
सोचति सो विहञ्ञति दिस्स्वा कम्म किलिट्ठत्तनो।।१५।।”अर्थात
शोचतीह तथा प्रेत्य चोभयत्राऽपि पापकृत्।
दुष्कर्म चात्मनो दृष्ट्वा शोचत्येष विहन्यते।।
सम्माननीय मित्रों !भगवान अजातशत्रु जी पुनः कहते हैं कि-
” इध सोचति पेच्च सोचति” मैं जितने भी पाप कर्मों को करता हूँ !
प्रथम तो मैं संक्षेप में पाप की व्याख्या आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ–
“अष्टादश पुराणेसु व्यासस्य वचनं द्वयम्।
परोपकाराय पुण्याय,पापाय पर पीडनम्।।”
एक अद्भुत बात मैं आपको बताना चाहूँगा ! मानव के अंतः मन की एक मनोवैज्ञानिकीय अंतः व्यवस्था है ! कि मैं अपने पुण्य कर्मों को तो दूसरों के सम्मुख कहता रहता हूँ ! जिसके परिणाम स्वरूप मेरे पुण्य कर्मों का बोझ तो मेरे ऊपर से उतर जाता है !
किंतु अपने द्वारा किये हुवे पापों को मैं किसी को बताता नहीं,बता सकता भी नहीं ! परिणामतः वे मेरे पापकर्मों की स्मृति मेरे ही भीतर निरंतर मुझे पापाक्रांत और भयाक्रांत भी करेंगे !
तथागतजी का आशय यही है कि-“पापकारी उभयत्थ सोचति”
मैं आपको प्रथम तो यह भी स्पष्ट कर देता हूँ कि “बुद्ध” ने इस अध्याय का नामकरण”यमकवग्गो” अर्थात पतँजली के अनुसार ऐसा स्पष्ट किया है कि “यम-नियम,आसन-प्राणायाम, प्रत्याहार,धारणा ध्यान के बिना-“बुद्धत्व अर्थात समाधि” की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती।
मैं समझता हूँ कि”कृष्ण-बुद्ध और महावीर स्वामीजी “ऐसे ज्ञानस्तँभ हुवे हैं जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि-“धम्मम् शरणम् गच्छामिः” यदि मैं संसार की शरण में रहूँगा तो”पापकर्मा”ही रहूँगा ! मेरे पुण्य कर्म तो मेरे द्वारा बढा-चढा कर बखाने जायेंगे किंतु पापकर्म अन्तर-मन की गहेराईयों में स्थित रहेंगे ! छुपे रहेंगे !और उनकी प्रेतछाया ! उनके प्रतिफल को सोच-सोच कर मैं व्यथित भी होता रहूँगा ! मैं यह कहना चाहता हूँ कि-“सो सोचति सो विहञ्ञति” अत्यंत ही गूढ भाव हैं ! तथागत जी ने एक स्थान पर कहा था कि हे आनंद ! यदि तूँ किसी अपने से शत्रु-भाव रखने वाले की कुछ भी सहायता करता है ! तो यही पुण्य है।
किंतु यदि तूँ अपने से छोटे किसी भिक्षु की सहायता पुण्य-भावसे करता है तो तूँ करोणों जन्मों तक नरकों में निवास करेगा ! प्रसिद्ध ग्रंथ जातकमालामें कहते हैं कि–
“अद्रश्यमानोऽपि हि पापमाचरन्विष……..” अर्थात विषपान करने वाला कभी भी हस्ट-पुष्ट नहीं हो सकता,ये हम सभी देखते हैं कि बीडी,सिगरेट,तम्बाकू,शराब से और आगे बढते हुए हमलोग भांग गांजा हेरोइन चरस कोकीन यावा और अब लोगों ने छिपकली साँप विषखोपडा हरा मेंढक तक को जलाकर खाना पीना शुरू कर दिया ! और ऐसे लोगो की आयु तीस चालिस पर आकर समाप्त होने लगी ! मित्रों ! अभी मेरी ही गली में पचास करोड़ के यावा टैबलेट के साथ एक ऐसा लडका पकड़ा गया जो एक सभ्रांत घर का है और उसका विवाह हुवे अभी एक वर्ष भी नहीं हुवे ! अर्थात ऐसे लोग अपने साथ-साथ अपने पारिवारिक सदस्यों को भी जिन्दा मार डालते हैं।
पापाचारी को सृष्टिनियंता अपने निर्मल नेत्रों से सदैव देखते हैं !
मन्दिरों की चौखट पर इन जैसों को जाने की अधिक आवश्यकता है ! और इनसे भी अधिक आवश्यकता उन लोगों की है जो इन्हें इस कार्य में ढकेलते हैं।
अपने निर्वाण काल पर तथागत के कहे इन वचनों को मैं आज आपके समक्ष उद्ध्रित करता हूँ-वे कहते हैं कि हे भिक्षुवों! मेरे जाने के उपराँत यदि आप यह सोचते हैं कि शास्ता का प्रवचन अतीत हो गया,अब हमारा कोई शास्ता नहीं है तो यह गलत है !जिस धर्म और विनय का मैंने तुम्हे उपदेश किया है ! वही तुम्हारा- “शास्ता”है।
यह सिद्धांत श्रीमद्भागवत एवं दृग् दृश्य विवेक नामक प्राचीन ग्रंथ में वर्णित एक दृष्टांत के समीप है ! जहाँ ऐसा वर्णित है कि एकबार भगवान श्री कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास जी की अध्यक्षता में चौरासी हजार ॠषियों का सम्मेलन हुवा ! शास्त्रार्थ प्रारंभ हुवे नब्बे दिवस हो गये किन्तु विवेचना अभी भी अधूरी थी और वेदव्यास जी को किसी अन्य सभा में जाना था ! उन्होंने चतुर्वेदों के आसन की ओर इंगित करते हुवे कहा कि मेरी अनुपस्थिति में-“शास्त्र” ही शास्ता अर्थात आप सभी के मार्गदर्शन कर्ता सत्याऽसत्य के विवेक कर्ता अर्थात नीर-क्षीर के ज्ञाता हैं ! आप इनके सैद्धान्तिक निर्देशन में शास्त्रार्थ प्रारंभ रखें। मित्रों यहाँ यह भी कहना उल्लेखनीय है कि कदाचित् उन्ही शास्त्रीय ग्रन्थों से पढकर भिक्षुक-“आनंद”ने धम्मपद्द में इस दृष्टांत को बुद्ध के नाम पर -“काॅपी पेस्ट” कर दिया ! और ऐसा ही हुवा है ! कुरआन ऐ शरीफ से लेकर बाइबिल,आगम,निगम,जरथूस्थ, तक में जितने भी सैद्धान्तिक रहस्यमय एवं वेदांती वचन यत्र तत्र मिलते हैं वे सभी के सभी हमारे वैदिकीय ग्रन्थों की जूठन है।
इस प्रकार यह स्पष्ट करते हैं कि-“दुष्कर्म चात्मनो दृष्ट्वा शोचत्येष विहन्यते” मेरे कुछ प्यारे मित्र-“बौद्ध वाद”पर एक शंका उत्पन्न करते हैं कि “बुद्ध नास्तिक थे ! किंतु यह सूत्राँश अलौकिक है ! यह अंश तो यही सिद्ध करता है कि वे-“परम आस्तिक” थे,शास्त्रीय मान्यताओं के समर्थक भी थे ! मंत्राँश स्पष्ट करता है कि मृत्योपराँत भी वे नाना पापों के परिणाम स्वरूप प्राप्त नाना प्रकार के “दुःखादि,नर्कों या पाप योनियों” को ही प्राप्त होने अथवा न होने के समर्थक भी हैं ! हाँ ! ये सम्भव है कि वे-“नहीं” को अस्तित्व मानते थे और -“हाँ” के अस्तित्व को सिरे से ही नकार देते हैं ! यही इस”पद्द”का भाव है ! शेष अगले अंक में..-“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”
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