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बीते कुछ वर्षों से ऐसा आखिर क्या हो गया कि बांग्लादेश से हमारे संबंधों में कटुता आ गई। खेदजनक बात यह कि यह वही बांग्लादेश है जिसे करीब 53 साल पहले तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान से अलग करके बनाया था। इसके लिए 13 दिनों तक घनघोर युद्ध हुआ था। बांग्लादेश को बनाने में हमने न सिर्फ सैन्य सामग्री दी थी बल्कि हमारे सैनिकों ने अपनी जान का बलिदान दिया था। उसमें काफी संख्या में हिन्दू सैनिक भी थे। आज उसी बांग्लादेश में हिन्दुओं, बौद्धों और ईसाइयों पर चुन-चुन कर हमले किये जा रहे हैं। उनके घरों, प्रतिष्ठानों और पूजा-पंडालों को निशाना बनाया जा रहा है। उनकी बहन-बेटियों की आबरू सरेआम लूटी जा रही है। उनकी हत्या की जा रही है और हम आज भी वहाँ की अपदस्त प्रधानमंत्री के लिए लाल कालीन बिछाए हुए हैं। इसके खिलाफ अपने देश के आम जनमानस में गुस्सा है। जगह-जगह लोगबाग सडकों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं और सरकार मौन ओढ़े हुए है।
सवाल यह कि क्या सच में बांग्लादेश में कट्टरपंथी हावी हैं और वह भारत के लिए स्थायी नासूर बनने की ओर अग्रसर है? वहाँ की सरकार बेबस है या यह उसकी सोची-समझी रणनीति है? क्या बांग्लादेश पाकिस्तान की राह पर तो नहीं चल पड़ा है?
ऐसा नहीं कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों से सिर्फ भारतीय दुखी और गुस्से में हैं। बांग्लादेश के अमन पसंद प्रबुद्ध लोग और वहाँ की मीडिया भी इसे ठीक नहीं मान रही है। बांग्लादेश के प्रमुख अंगरेजी अखबार ‘ढाका ट्रिब्यून’ ने इसपर अपने संपादकीय में लिखा है कि ‘आशावादी नज़रिये से हम नहीं लिख रहे हैं बल्कि निराशावश लिख रहे हैं कि बांग्लादेश में शरारती तत्वों ने हिन्दुओं पर हमला करके जघन्य काम किया है, जिससे दुख है। कई मामलों में बौद्ध समुदाय पर भी हमले हुए। हिन्दू मंदिरों, पूजा पंडालों, बौद्ध लोगों के घरों या ईसाइयों के काम करने की जगहों या जहाँ कहीं भी सांप्रदायिक हिंसा हुई है और जहाँ पर अल्पसंख्यक आबादी को नफ़रत के इरादे से निशाना बनाया गया है, उसने हमारे राष्ट्र को कमज़ोर ही किया है। इसने हमारे लोगों में विभाजन पैदा किया है और समुदायों के बीच शत्रुता को जगह दी है।‘
अखबार लिखता है कि ‘यह बहुत लंबे समय से चल रहा है और सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के मामले में जो हमने अब तक किया है, वो वापस हर साल हमारे सामने आ जाता है। जिन्होंने ये हमले किए उनकी पहचान की जाए और उन्हें गिरफ़्तार किया जाए। इसके साथ ही इसको पहली बार जिसने भड़काया उन्हें भी पकड़ा जाए। इस तरह की अफ़वाहें हैं कि देश को अस्थिर करने के लिए यह योजना बनाई गई और कई ग़लतफ़हमियों को लेकर भी बात है लेकिन जो भी कारण रहे हों, यह हमारी अल्पसंख्यक जनता है, जिसको सहना पड़ा है और हमारे लोगों की सुरक्षा के लिए कुछ ठोस कार्रवाई करनी होगी। बांग्लादेश तरक़्क़ी कर रहा है और हम विकासशील दुनिया के लिए एक नमूना हैं। लेकिन क्या हम इस बात को लेकर गंभीर हैं कि किसी भी पृष्ठभूमि का व्यक्ति इस राष्ट्र में सुरक्षित महसूस करेगा? क्या हम वास्तव में विकास कर पाएंगे? इस स्तर पर बांग्लादेश एक ऐसा देश लग रहा है, जिसमें अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है, जबकि हमारे देश की नींव धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर रखी गई है।‘
ऐसा भी नहीं है कि बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हमले वहाँ की सरकार के तख्तापलट के बाद ही हो रहे हैं। सच तो यह है कि बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हमले 2021 की दुर्गापूजा के समय भी हुए थे लेकिन तब भारतीय मीडिया ने इस बात को न जाने क्यों प्रमुखता नहीं दी और बात आई-गई हो गई। यह भी सच है कि हाल के इन हमलों को लेकर सरकार का विरोध महज औपचारिकता का ही है। आज भी भारत कई स्तरों पर बांग्लादेश की मदद कर रहा है। उधर, बांग्लादेश के अंतरिम सरकार के मुखिया नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस ने इन हमलों की निन्दा करके अपने कर्तव्य से मुक्ति पा ली। उन्होंने यह नहीं बताया कि उनकी सरकार हमलावरों के खिलाफ कठोर कदम कब उठाएगी। कुछ करेगी भी या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेगी।
बांग्लादेश के अल्पसंख्यक खासकर हिन्दू दहशत में हैं। रिपोर्ट लिखे जाने तक वहाँ हिन्दुओं के घरों और पूजा पंडालों पर 2000 से ज्यादा हमले हो चुके हैं। उनके जान के लाले पड़े हैं। पता नहीं कब उनके घर-प्रतिष्ठान पर हमला हो जाए और उनका जीवन संकट में पड़ जाए। वे भारत की तरफ आशाभरी निगाह से टकटकी लगाकर देख रहे हैं। इधर, मणिपुर मामले की तरह बांग्लादेश के मामले में भी प्रधानमंत्री की चुप्पी बरकरार है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने बांग्लादेश में हो रहे हमले और इस्कान मंदिर के महंत स्वामी चिन्मय कृष्ण दास की वहाँ की सरकार द्वारा देशद्रोह के मामले में गिरफ्तारी के विरोध में यहाँ दिल्ली, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक समेत देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन जारी है। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े लोग भी शामिल हैं। लेकिन सरकार की ओर से निन्दा करने और दुःख जताने के अलावा कोई ठोस प्रतिक्रिया अभी तक नहीं की गई है। चिन्मय कृष्ण दास वहां हिन्दुओं के नेता रहे हैं और हमले के विरोध में सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे। उधर, अगरतला में बांग्लादेश के सहायक उच्चायोग में विरोध प्रदर्शन और तोड़फोड़ के खिलाफ बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के कानूनी मामलों के सलाहकार ने न सिर्फ हमारे उच्चायुक्त प्रणय वर्मा को तलब कर लिया बल्कि उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाई। जबकि भारत के विदेश मंत्रालय ने न सिर्फ घटना पर अफ़सोस जताया था बल्कि राजनयिक मिशन में तोड़फोड़ के सात आरोपियों को गिरफ्तार किया था और सुरक्षा में चूक के लिए सात पुलिसकर्मियों को निलंबित भी किया था। इसके बावजूद बांग्लादेश के कानूनी मामलों के सलाहकार आसिफ नजरुल ने हमारे उच्चायुक्त से कहा कि भारत को समझना चाहिए कि यह शेख हसीना का बांग्लादेश नहीं है। यही नहीं, हिम्मत तो देखिए, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के एक नेता ने तो यहाँ तक कह दिया कि उनके देश का पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा पर वैध दावा है। हैरत तब होती है जब इसपर भी हमारे सियासतदान चुप रहते हैं। सिर्फ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए कहा कि वह हमारी जमीन पर कब्जा करने आएंगे तो हम खामोश होकर लॉलीपॉप नहीं खाएंगे, मुंहतोड़ जवाब देंगे। ममता ने लोगों को भड़काऊ बयानों से प्रभावित नहीं होने की अपील करते हुए कहा कि हमारे यहाँ के इमामों ने भी बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार की कड़ी निन्दा की है। हम सभी की रगों में एक ही खून बहता है। उधर, संसद में कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग की कि वह इंदिरा गांधी जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाएं पर बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिन्दुओं, बौद्धों और ईसाइयों की जीवन रक्षा के लिए उचित कदम उठाएं।
फिलहाल, बांग्लादेश से भारत के रिश्ते सामान्य नहीं कहे जा सकते। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री मोहम्मद यूनुस वहाँ की अपदस्त प्रधानमंत्री शेख हसीना के प्रत्यर्पण की माँग कर रहे हैं जबकि भारत ने शेख हसीना को राजनीतिक पनाह दिया हुआ है। देखना दिलचस्प होगा कि आगे क्या होता है।