बिहु: असम की सांस्कृतिक चेतना और कृषि जीवन का जीवन्त उत्सव
डा. रणजीत कुमार तिवारी
सहाचार्य एवं अध्यक्ष, सर्वदर्शनविभाग
कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातन अध्ययन विश्वविद्यालय, नलबारी, असम
भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसे यदि ‘त्योहारों की भूमि’ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यहाँ की मिट्टी में केवल अनाज ही नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपराएँ और भावनाएँ भी अंकुरित होती हैं। भारत की यही विशेषता उसे विश्व में अद्वितीय बनाती है – जहाँ प्रत्येक क्षेत्र अपनी अलग छवि लिए खड़ा है, और हर राज्य अपने पर्वों से अपनी सांस्कृतिक पहचान रचता है। ऐसे ही विविध रंगों के इस सांस्कृतिक इंद्रधनुष में असम का प्रसिद्ध पर्व ‘बिहु’ अपनी विशिष्ट छटा और मधुर लय के साथ चमकता है। यह उत्सव हजारों वर्षों से असमिया समाज की आत्मा में समाहित है, जिसकी जड़ें वैदिक कृषि संस्कृति तक जाती हैं। बिहु केवल एक त्योहार नहीं है, यह एक जीवंत भावना है, एक ऐसी सांस्कृतिक अनुभूति है जो असम की आत्मा में गहराई से रची-बसी है।
बिहु के समय असम की धरती एक विशाल रंगमंच बन जाती, और उसमें प्रत्येक व्यक्ति कलाकार होता – कोई ढोलक बजाता, कोई बाँसुरी फूँकता, कोई गीत रचता और कोई प्रेम की नज़र से देखता। जब ढोल की थाप सुनाई देती है, जब मेखेला-चादर में सजी युवतियाँ मृदु मुस्कान के साथ नृत्य करती हैं, और जब खेतों की हरियाली जीवन का संदेश देती है – तब बिहु केवल एक पर्व नहीं, बल्कि सम्पूर्ण असम की जीवनशैली बन जाता है। यह त्यौहार असम के दिल की धड़कन है – जिसमें उसकी परंपराएँ, उसका संगीत, उसका श्रम और उसका प्रेम सब समाहित होता है। बिहु एक ऐसा उत्सव है जो खेतों की कोमलता से शुरू होकर लोकगीतों की मिठास में घुलता है, और समाज को आपसी मेल-जोल, प्रेम, और सहयोग के धागों से बुनता है। यद्यपि यह पर्व वर्ष में तीन बार मनाया जाता है, तथापि इसकी मूल भावना एक ही है, प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व का उत्सव, और जीवन के विविध रंगों को अपनाने की कला।
बिहु के तीन स्वरूप: प्रकृति और जीवन के संग
असम के सांस्कृतिक परिदृश्य में ‘बिहु’ केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि कृषि जीवन का प्रतिबिंब है। यह ऋतुओं के बदलते स्वरूप के साथ मनाया जाने वाला तीन पर्वों का संगम है – हर बिहु अपने भीतर जीवन के एक अलग रंग और भाव लिए हुए होता है। इन तीन रूपों में हमें प्रकृति के साथ मनुष्य के अटूट रिश्ते, उसके श्रम, आशा और उल्लास का दर्शन होता है।
रंगाली बिहु (बहाग बिहु) – वसंत का उल्लास और प्रेम का रंग
अप्रैल में नववर्ष के रूप में मनाया जाने वाला यह बिहु वसंत ऋतु की सौंधी बयार के साथ खेतों की हरियाली और युवाओं के उल्लास का प्रतीक है। यह प्रेम, सौंदर्य और नई आशाओं का पर्व है। जब प्रकृति नये जीवन की रंगीनी चादर ओढ़ लेती है और धरती के हर कण में उल्लास भर जाता है। यह सबसे उल्लासमय बिहु है, जो न केवल खेतों में फसल बोने की शुरुआत का संकेत देता है, बल्कि युवा हृदयों में प्रेम और सौंदर्य का संचार भी करता है। इस समय खेतों में नये धान के बीज बोए जाते हैं। घर-आँगन में साफ-सफाई होती है, और नये वस्त्र पहने जाते हैं। युवा लड़के-लड़कियाँ बिहु नृत्य और बिहु गीतों के माध्यम से एक-दूसरे के प्रति प्रेम व्यक्त करते हैं। लोकधुनों में प्रेम की मिठास गूंजती है, यह पर्व प्रकृति की नवजागृति और मानवीय भावनाओं के पुनःप्रस्फुटन का प्रतीक है।
काती बिहु (कंगाली बिहु) – शांति, प्रतीक्षा और प्रार्थना
अक्टूबर में मनाया जाने वाला यह बिहु अधिक शांत और साधनहीन होता है, इसीलिए इसे ‘कंगाली’ यानी निर्धन बिहु कहा जाता है। खेतों में धान पक रहा होता है, पर अभी घरों में भंडार नहीं भरा होता। इस समय संसाधनों की कमी होती है, अतः यह बिहु अपेक्षाकृत सादा और आध्यात्मिक होता है। इस बिहु का स्वर मौन, प्रतीक्षा और श्रद्धा से भरा होता है।
लोग खेतों के किनारे दीप जलाते हैं। यह दीपक फसलों की रक्षा, कीटों के नाश और समृद्धि की कामना के लिए जलाया जाता है। गाय-बैलों की देखभाल की जाती है और उन्हें पौष्टिक भोजन दिया जाता है। यह बिहु मनुष्य की आशा और धैर्य का उत्सव है — जब वह मेहनत के बाद फल की प्रतीक्षा करता है, और प्रकृति से सहयोग की प्रार्थना करता है।
भोगाली बिहु (माघ बिहु) – उत्सव, आभार और सामाजिक सौहार्द
भोगाली बिहु का अर्थ ही है — “भोग का बिहु”। यह शस्य कटाई के बाद मनाया जाता है, जब घर-घर में अन्न का भंडार होता है और हृदय कृतज्ञता से भरा होता है। इस पर्व की मुख्य विशेषताएँ हैं – माघ बिहु के ठिक पहला दिन को “उरुका” कहा जाता है, जिसमें सामूहिक रात्रिभोज होता है। लोग खेतों में बाँस और पुआल से चांग घर (अस्थायी झोपड़ियाँ) बनाते हैं और वहीं रात बिताते हैं। अगली सुबह ‘मेज़ी’ और ‘तोरा’ जलाए जाते हैं – लकड़ी और घास से बनी संरचनाएँ जो अग्नि को समर्पित होती हैं। लोहित अग्नि की लपटों में बुराइयों, रोगों और दुर्भावनाओं को प्रतीक रूप से भस्म कर दिया जाता है।यह बिहु सामूहिकता, कृतज्ञता और सामाजिक एकता का अद्भुत प्रतीक है।
तीनों बिहु – रंगाली, काती, और भोगाली – मानवीय जीवन के तीन चरणों की भांति हैं, शुरुआत, प्रतीक्षा, और संपन्नता। ये केवल त्योहार नहीं, बल्कि मनुष्य और प्रकृति के मध्य संतुलन और सामंजस्य का सुंदर तंत्र हैं। बिहु हमें यह सिखाता है कि ऋतुओं की तरह जीवन भी बदलता रहता है, और हर बदलाव को प्रेम, श्रम और उत्सव के साथ स्वीकार करना ही असली सांस्कृतिक परिपक्वता है।
रङ्गाली बिहु: असम की आत्मा में खिलता वसंत
जब ब्रह्मपुत्र की पवित्र लहरें मंद–मंद बहती हैं और असम की धरती पर नई फसलें मुस्कराने लगती हैं, तब प्रकृति स्वयं नृत्य करने लगती है। वसंत अपनी बहार लेकर आता है, और उसी के साथ आता है — रङ्गाली बिहु, असम की आत्मा में रचा–बसा एक अनुपम उत्सव।
रङ्गाली बिहु केवल एक त्योहार नहीं है, यह प्रकृति, प्रेम और पहचान का जश्न है। यह वह समय है जब असम के हर गाँव, हर घर, हर कोने से ढोल की ध्वनि सुनाई देती है, जब रंग-बिरंगे वस्त्रों में सजे युवक-युवतियाँ बिहु गीतों की लहरों पर थिरकते हैं, और जब मिट्टी भी झूमती है अपने बेटों-बेटियों के संग।
धरती से संवाद की शुरुआत
रङ्गाली बिहु की शुरुआत होती है ‘गोरु बिहु’ से — जो किसानों के सबसे बड़े साथी, उनके पशुधन को समर्पित होता है। गायों और बैलों को नदी अथवा तालाब में ले जाकर बेलपत्र और हल्दी से स्नान कराया जाता है, और फिर उन्हें ताज़ी घास, चावल, सब्ज़ियाँ खिलाई जाती हैं। यह केवल शारीरिक सेवा नहीं है, यह उस कृतज्ञता का प्रतीक है जो असमिया किसान अपने पशु-सहयोगियों के प्रति महसूस करता है।
परंपरा और परिवार का मिलन
दूसरे दिन आता है ‘मानुह बिहु’ — ‘मानव का बिहु’। यह दिन होता है अपने बुजुर्गों का सम्मान करने का, रिश्तों को नया करने का, और मन को शुद्ध करने का। लोग नए वस्त्र पहनते हैं, बड़ों से आशीर्वाद लेते हैं, और उन्हें गामोसा भेंट करते हैं — वह पारंपरिक श्वेत–लाल वस्त्र, जिसमें असम की आत्मा की कढ़ाई बुनी होती है। घर की देहरी पर दीप जलता है, और हृदय में उमंग। महिलाएँ घीला पिठा, लारू, और चिरा-दही-गुड़ जैसे स्वादों से घर को महकाती हैं, जो न केवल पेट, बल्कि आत्मा को भी तृप्त करते हैं।
बिहु गीत और नृत्य: प्रेम की भाषा
बिहु के तीसरे दिन से आरंभ होता है असम का लोक-सांस्कृतिक रसायन — जब गाँवों में मेले सजते हैं, युवक-युवतियाँ मेखला चादर पहनकर, फूलों से बाल सजा कर, बिहु गीतों पर थिरकते हैं। उनके कंधे पर गामोसा, चेहरे पर मुस्कान और लय में सजीवता होती है।
बिहु गीतों में कोई एकरसता नहीं होती। कभी वे प्रेम की मीठी छेड़–छाड़ लिए होते हैं, तो कभी विरह की वेदना से भरे होते हैं। ढोल की थाप, पेपा की धुन और टोकाय की ताल पर जब युवावस्था झूमती है, तब असम का आकाश भी उसकी संगति में बहने लगता है।
गाँव–गाँव में जीवंतता
बिहु केवल व्यक्तिगत नहीं है — यह सामूहिकता का पर्व है। गाँव–गाँव में ‘बिहु डोल’ (बिहु की टोलियाँ) निकलती हैं, जो घर–घर जाकर गीत गाती हैं, नाच प्रस्तुत करती हैं और फिर घरवालों से बिहुआन (उपहार) प्राप्त करती हैं। यह परंपरा मेलजोल और सामाजिकता का प्रतीक बन गई है।
गामोसा: असम की आत्मा का वस्त्र
इस पर्व में सबसे प्रमुख प्रतीक बन जाता है – गामोसा। लाल किनारी और श्वेत वस्त्र का यह सरल–सा कपड़ा, असम की संस्कृति का प्रतिनिधि बन जाता है। यह आदर का प्रतीक है, इसे प्रेम से दिया जाता है, सर पर बांधा जाता है, और बिहु नृत्य के समय लहराया जाता है। यह वस्त्र भावनाओं का वह धागा है, जो असम को एक सूत्र में बाँधता है।
प्रकृति, संस्कृति और आत्मा का संगम
रङ्गाली बिहु दरअसल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मिक उत्सव है — जो मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है, समाज से मिलाता है और जीवन को एक नये रंग से रंगता है। यह पर्व खेती की शुरुआत, नववर्ष का आगमन और जीवन की नवीनता का प्रतीक है। इसमें न देवता डराते हैं, न पाप–पुण्य की गिनती होती है। यहाँ केवल जीवन की स्वीकृति है — जैसा है, वैसा; और उसमें रंग, राग और रस भरने का प्रयास है।
जब रङ्गाली बिहु आता है, तो लगता है जैसे असम की धरती फिर से जवान हो उठी है। खेतों की हरियाली, ढोल की गूंज, गामोसे की शान, और बिहु गीतों की मिठास — यह सब मिलकर एक ऐसा जीवन–राग रचते हैं, जो केवल असम ही नहीं, पूरे भारत के सांस्कृतिक चित्त को गुनगुनाता है। रङ्गाली बिहु सिर्फ त्योहार नहीं, जीवन का उत्सव है। यह हमें सिखाता है कि समय चाहे जैसा भी हो — अगर मन में उमंग हो, तो हर ऋतु रंगों से भर सकती है।
तीनों बिहु: ऋतुओं का सांस्कृतिक चक्र
तीनों बिहु — रङ्गाली, काती और भोगाली — केवल पर्व नहीं, बल्कि मानव जीवन की ऋतुओं का प्रतीकात्मक चक्र हैं। रङ्गाली बिहु वसंत की शुरुआत है — जीवन के नवीन अंकुरण का उत्सव; काती बिहु प्रतीक्षा और आशंका का काल — आत्मसंयम की परीक्षा; और भोगाली बिहु सफलता, तृप्ति और सामूहिक उल्लास का प्रतीक। इन बिहुओं के माध्यम से असमिया समाज जीवन को ‘कृषि, धर्म और संस्कृति’ की एक त्रयी दृष्टि से देखता है — जिसमें श्रम भी है, प्रेम भी है, और प्रकृति के प्रति आदर भी।
आधुनिक संदर्भ में बिहु की प्रासंगिकता
आज के वैश्वीकरण और सांस्कृतिक संक्रमण के युग में, बिहु जैसे पर्व केवल परंपराओं के निर्वाह मात्र नहीं हैं, बल्कि ये हमें अपनी जड़ों से जोड़ते हैं, हमारी सामाजिक एकता को पोषित करते हैं, और जीवन के प्रति संतुलित दृष्टिकोण सिखाते हैं। बिहु हमें याद दिलाता है कि चाहे यंत्रचालित जीवन कितना भी तीव्र हो जाए, मनुष्य तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक वह प्रकृति, समुदाय और संस्कृति से संवाद नहीं करता। बिहु केवल असम का नहीं, भारत की बहुलतावादी संस्कृति का एक अद्भुत प्रतीक है — जहाँ ऋतु भी गीत है, फसल भी पूजा है, और नृत्य भी आत्मा की अभिव्यक्ति।