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महिलाओं को हद में रहने की आज़ादी इसका क्रांतिकारी महिलाओं के लिए होना चाहिए — अंकिता सिंह 

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आपको कैसा लगेगा जब आपको अपनी आज़ादी का मतलब बताया जाएगा? मैं वीमेन सेल की एक सदस्य हूँ और एक दिन मीटिंग में ये बताया जाता है कि हमें लड़कियों को ये बताना है कि वो सही से कपड़े पहन के आए। सही से मतलब ऐसे कपड़े जिसमें वो ढकीं रहे, मेरे ख्याल से शायद बुर्का पहनने की ज़रूरत है। अगर वो (लड़कियाँ) ऐसा करेंगी तो हम (प्रशासन) दो तरह के बवालों से बच जाएँगे। पहली तो ये कि कोई लड़का उनके कपड़ों की वजह से कोई भी गंदी हरकत नहीं करेगा तो कोई  वारदात नहीं होगी और दूसरी प्रशासन की किसी भी प्रकार की कोई जवाबदेही नहीं होगी और कोई भी लड़की परेशानियों का सामना नहीं करेगी, कितनी आज़ादी मिल जाएगी महिला समाज को। मुझे बहुत गर्व महसूस हुआ कि देखो महिलाएँ महिलाओं के बारे में कितना सोचती है। मैंने भी अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए एक लड़की को समझाया कि देखो तुम्हें कैसे कपड़े पहनने चाहिए और जब मैं उसे समझा रही थी तब मेरे अंदर से सिर्फ़ एक ही आवाज आ रही थी, सही में? क्या मैं सच में ऐसी हो गई हूँ? भेड़चाल चलना मैंने कब सीख लिया? क्या मुझे ख़ुद इस तरह का समाज नहीं पसंद होगा जहां पर कोई भी सिर्फ़ पहनावे के आधार पर ना आंका जाए। मुझे ऐसे किसी भी समूह का हिस्सा नहीं बनना है जहां औरतें सिर्फ़ ये विमर्श करती है कि किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए। एक ओर पूरी दुनिया आगे निकलने की होड़ में लगी हुई है और हम सिर्फ़ ये सोचते है की उस औरत के पजामे, एड़ी तक होने की वजह से उसके पैर थोड़े ऊपर तक दिख रहे है उसे किसी दर्ज़ी के पास जाकर अपने पजामे बनवाने चाहिए जो की पैरो को पूरा ढँक कर रखे। क्यों दिख रहे है? क्या आपके पास और कोई काम नहीं है जिससे आप पैरों की जगह अपने दिमाग़ पे ज़ोर लगा सके? मुझे लगता है कि अगर मैंने किसी को ये कहा है कि आपको ढंग के कपड़े पहनने चाहिए तो आप उस बात को ना माने। जब आप उस कपड़े में ख़ुद को सहज महसूस करती है तो आपने ढंग के कपड़े पहने हुए है। मुझे तो ये मालूम पड़ता है कि शायद हम ही ज़िम्मेदार है अपनी ऐसी हालातों के लिए, जहां हम ख़ुद अपने पैरों में बेड़ियाँ पहनना पसंद कर रहें हैं और ख़ुद को घरों की चारदीवारी में क़ैद कर रहें है। जहां से निकलने के लिए हमने तमाम लड़ाइयाँ लड़ी। हमारे अंदर जो ताक़त है उसका इस्तेमाल हम ख़ुद करते हुए डरते है। हमें डर लगता है कहीं बाहर अकेले जाने में, हमें डर लगता है गाड़ी चलाने में जब बग़ल से कोई ये कहके निकलता है कि “पापा की परी उड़ रही है” “अरे दीदी धीरे चलाओ” आदि आदि, हमें डर लगता है अपने ही घर में अपने पसंद और नापसंद को बताने में हालाँकि हमारा कोई अपना घर भी नहीं होता, हमारे यहाँ तो ऐसा ही होता है। हम सामाजिक दवाब में भी रहते हैं क्योंकि हमें डर लगता है भाई बाप के ना होने पर, हमें डर लगता है लड़कों को दोस्त बनाने में की समाज हमारे चरित्र की पहचान करेगा। जब सामाजिक स्थिति महिलाओं के पक्ष में भयावह हो जाती है तो हम उसका कुछ दिनों तक विरोध करते है फिर अपने अपने घरों में क़ैद हो जाते है किसी एक पक्ष को गलत ठहरा के। राजनीति शास्त्र की विचारक सिमोन डी बूआ जब कहती है कि “स्त्री जन्म नहीं लेती, बनायी जाती है” जैसे कि निकर पहने लड़के बाहर घूम सकते है लड़कियाँ नहीं, गालियों पे लड़कों का अधिकार है लड़कियों का नहीं, लड़के नशा कर सकते है लड़कियाँ नहीं, लड़के मारपीट कर सकते है लड़कियाँ नहीं, लड़के किसी चौराहे पर बैठके आती जाती लड़कियों को छेड़ सकते है लड़कियाँ ऐसा नहीं कर सकती, हालाँकि मैं दोनों ही पक्ष से कुछ ख़ास सहमत नहीं हूँ क्योंकि दोनों से ही हमारा समाज सभ्य नहीं बन रहा है। और फिर कुछ बड़े काम जैसे की घर की इज़्जत लड़कियों के हाथ में दे दिया गया। लड़कियों को चुप रहना सिखाया जाता है जिससे उनके घर की इज़्जत बची रहे और उसके बाद हम अपने समाज का गुणगान करते फिरते है। मैं कहूँगी कि लड़कों के लिए भी शिक्षण संस्थानों में मेन सेल होनी चाहिए जहां पर ये सिखाया जाए कि आपको लड़कियों के साथ कैसे व्यवहार करना है, आपको क्या पहन कर आना चाहिए और किस प्रकार की भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। उनको भी इज़्जत बचाये रखने की ज़िम्मेदारी उतनी ही देनी चाहिए। सबको बताना होगा कि शरीर के किसी हिस्से के अलग होने से महिला और पुरुष की ज़िम्मेदारी अलग नहीं हो जाती है। स्त्री-पुरुष विभेद जो सदियों से चला आया जिसमें पुरुष बाहरी दुनिया है स्त्री घर को सँभाल रही है वो बच्चे जन रही है फिर उसका पालन पोषण कर रही है और पुनः स्त्री-पुरुष विभेद को मज़बूती देती है कि बेटी को घर में रहना है भाई और पिता की इज़्जत बचानी है और बेटे को खुली आज़ादी देती है। इस प्रक्रिया का कोई अंत नहीं होता। वो भी तो लड़ सकती थी अपनी यथास्थिति को उसने स्वयं स्वीकार किया और उसे आगे बनाए रखने में भी सहयोग किया है। कार्ल मार्क्स कहता है कि “मानव इतिहास दो वर्गों के संघर्ष का इतिहास रहा है” तो अब का समाज स्त्री-पुरुष के संघर्ष से जूझ रहा है। स्त्री किसी भी वर्ग से हो उसका शोषण स्त्री होने के कारण होना ही है। जिन स्त्रियों ने लड़कियों को सही पहनावे के लिए टोका है उनका भी शोषण किसी लिहाज़ से कम नहीं है। कहीं ना कहीं पंडिता रामाबाई सरस्वती की कहानी सच है कि उच्चें वर्ग की महिलाओं का शोषण उनके चारदीवारी में ही होता है। हँसी-ठिठोली में ही उनको टोक दिया जाता है उनके निर्णयों पे सवाल उठाये जाते है, और कुछ परिस्थितियों में उन्हें अपने विचार रखने की भी अनुमति नहीं होती। फिर हम किसके लिये ये रोक टोक का प्रावधान बना रहे है? जैसा समाज चाहिए उसका निर्माण हम ख़ुद क्यों नहीं कर पा रहे है? क्योंकि हम खुश है कि हमारा निर्णय कोई और कर दे रहा है। हमें अपना दिमाग़ सिर्फ़ उन कामों में लगाना चाहिए जिसे सदियों से स्त्रियों के हिस्से में डाला गया है। इन्हीं प्रक्रियाओं के निरंतर चलते रहने का हम समर्थन करते रहेंगे। फिर से यही होगा। फिर से स्त्री होना गुनाह होगा, फिर से हमें अपनी ज़िम्मेदारी समझायी जाएगी, फिर से समाज सामान्य तरीक़े से चलना शुरू करेगा, और फिर एक भयावह स्थिति का हम खुले मन से स्वागत करेंगे, और फिर स्त्री-पुरुष विभेद को मज़बूती दी जाएगी।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं)

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