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नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का एक बयान इन दिनों सुर्खियों में है।इस बयान में उन्होंने कहा है की हमने प्रधानमंत्री मोदी के आत्मविश्वास को तोड़ दिया है। राहुल गांधी के इस बयान के निहितार्थ को समझाने के लिए मोदी सरकार के हालिया निर्णय ही पर्याप्त है।अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण के मौजूदा स्वरूप पर एक निर्णय आया है।इसमें आरक्षण लाभार्थियों मे से सुसम्पन्न परिवारों को बाहर किये जाने की सिफारिश की गई है।दरसल कुछेक परिवार ही पीढ़ियों से इसका लाभ लेते आये है।वही एक बड़ा तबका अब भी विकास से कोसों दूर है।ऐसे में इन अभावग्रस्त परिवारों के उन्नयन हेतु ये आवश्यक है की इस वर्ग से आने वाले सुसम्पन्न परिवार सुविधाओं का परित्याग करे।इनके द्वारा छोड़ी गई सुविधाओं के लाभार्थी केवल इनकी ही जाति एवं सामाजिक वर्ग के हित में होना है।ऐसा नहीं है की माननीय न्यायालय ने बिना प्रमाणों एवं विचार के ही अपना मंतव्य रखा है।इसके अपने कारण है दरसल हर शासकीय जनगणना एवं विभिन्न सर्वेक्षणों के उपरांत इस विषमता के साक्ष्य प्रमाण मिलते रहे है।इस नाते कई दलित बुद्धिजीवी एवं नेताओं ने भी आगे आकर बदलाव की बात की है।अभी हाल ही में जहाँ केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी ने इस बदलाव का स्वागत किया है।वही राजस्थान के पूर्व मंत्री किरोड़ी लाल मीणा ने इस बदलाव को जरूरी बताया है।जबकि पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ संजय पासवान उन गिने चुने दलित बुद्धिजीवी एवं राजनेता के तौर पर है जो इस बदलाव के हमेशा से हिमायती रहे है।यही नही उन्होंने अपने बच्चों को भी आरक्षण का लाभार्थी बनने नही दिया है।इस बीच इससे मिलते जुलते एक और मामले पर भी मोदी सरकार अपने निर्णय से पलटी मार चुकी है।अभी हाल ही में भारत सरकार के कुछेक प्रशासकीय पदों पर सीधे नियुक्ति का मामला था।जिनके अंतर्गत विभाग विशेष मे कार्य विशेषज्ञताओं से परिपूर्ण अनुभवी एवं बेहद पेशेवर व्यक्तियों की नियुक्ति होनी थी।सरकार के चौबीस मंत्रालयों मे ऐसे करीब पैंतालीस अधिकारियों की नियुक्ति अगले पाँच वर्ष के लिए होनी है।ऐसी नियुक्तियों का दुनिया भर में चलन है अमेरिका से लेकर इंग्लैंड तक मे यह प्रभावी है।किंतु इस पर भी राहुल गांधी द्वारा सवाल खड़ा किया गया है।यहाँ बजाय इनके उपयोगिता एवं योग्यता पर प्रश्न की जगह नियुक्ति मे आरक्षण न होने को तूल दिया गया है।जबकि एकल पदों पर आरक्षण का प्रावधान ही नही है।वही अतीत के कांग्रेस सरकार में ऐसी नियुक्तियों के कई उदाहरण है।जिसके अंतर्गत मनमोहन सिंह,मॉन्टेक सिंह अहुवालिया,रघुराज रामन सैम पित्रोदा एवं सोनिया गांधी लाभान्वित हुई है।किंतु विपक्ष द्वारा बनाये गए मुद्दे को लेकर सरकार यहाँ भी अपने निर्णय से पीछे हटी है।जिसकी परिणति संघ लोक सेवा आयोग द्वारा इस विज्ञापन के जारी होने के तीसरे दिन इसका निरस्त होना है।वैसे इन मुद्दों का सबसे असमंजसपूर्ण पहलू सरकार मे बैठे लोगो का परस्पर विरोधी वक्तव्यों का आना है।बात प्रशासकीय सेवा चयन मुद्दे की करे तो मंत्री अर्जुन राम मेघवाल के वक्तव्य बेहद सधे थे।आरक्षित वर्ग आने वाले इस पूर्व नौकरशाह ने इसके विषय मे बेहतरीन दलीलें दी थी।किंतु इसी मुद्दे पर मंत्री चिराग पासवान ने विरोध पूर्ण वक्तव्य देने करने का काम किया।वही सहयोगी दल जदयू ने भी असहमति प्रकट की है।ऐसा ही मामला दलितों के मलाईमार तबके पर सर्वोच्च न्यायालय के चले चाबुक पर भी है।इस मुद्दे पर सहयोगी दल के मंत्री चिराग पासवान से लेकर उनके दल की सांसद सांभवी चौधरी ने हंगामा खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।जबकि ये दोनों प्रभावशाली दलित राजनेता पिता और सवर्ण माँओ की संतानें है।जहाँ तक इनके सियासी सफ़र की बात हो तो बिना किसी संघर्ष के वंशवादी परंपरा से दूसरों के हकमारी के जरिए इनका सत्ता और शासन तक पहुँचना हुआ है।इनके भीतर,राजनैतिक सुचिता सर्वसुलभता तथा सर्वस्पर्शी विचारों का होना तो दूर की बात है।इस बीच विपक्ष के खड़े किए हंगामे और सत्ता पक्ष के ढुलमुल नीति नाते केंद्र सरकार के भाजपाई मंत्री वीरेंद्र खटीक ने भी इस पर अपनी राजनैतिक महत्ता बनाये रखने वाला बेतुका बयान दिया है।इनके अनुसार प्रधानमंत्री मोदी के रहते दलित समाज के मलाईदार तबके पर कोई चोट नही होगी।ठीक इससे कुछ मिलता जुलता वक्तव्य प्रशासकीय सेवा चयन विषय में केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह और अश्विनी वैष्णव का रहा है।इनके अनुसार प्रधानमंत्री मोदी की प्राथमिकताओं मे सामाजिक न्याय सर्वोपरि है।वैसे केवल ऐसे दो मामले ही नही है।इसी महीने केंद्र सरकार ने वक्फ बोर्ड की कार्यप्रणाली मे सुधार हेतु एक संशोधन विधेयक लाया था।जिसे विपक्ष के विरोधी तेवर को देखते हुए अकारण संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया।जिसके प्रतिनिधि सत्ता एवं विपक्ष दोनों के सदस्यगण होते है।ऐसे में अब इस बात की पूरी आशंका है की यह प्रारूप अधर मे लटकेगा।अगर यह सदन पटल पर आया तो भी अपने मूल सुधारात्मक स्वरूप में कतई नहीं होगा।दरसल लगातार ऐसे संशयात्मा निर्णय सरकार की मनसा,प्रगतिशील सोच एवं बदलाव संबंधित प्रयासों पर प्रश्न खड़ा करते है।वही यह निश्चित ही विपक्षी दबाव और सत्ता पक्ष के आपसी समन्वय के अभाव का दोतक,सूचक है।अन्यथा चिराग पासवान तथा नीतीश कुमार की पार्टी सार्वजनिक रूप से भला क्यों विभिन्न मुद्दों पर असहमति प्रकट करती?वही वक्फ विधेयक पर तेलगुदेशम द्वारा न्यायिक संवैधानिक पहलुओं के विचार की जगह मजहबी मौलानाओं से संवाद का सुझाव भी निश्चित ही इसी प्रकार का है।ऐसे ही सोच और समझ का परिणाम अब समान नागरिक संहिता की जगह पंथ निरपेक्ष नागरिक कानून की बात है।प्रधानमंत्री ने इस स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से इसके लाये जाने की बात की है।जबकि यह नागरिकों के बीच बिना किसी भेदभाव के एक समान अधिकार व्यवहार एवं दंडविधान की वकालत करता है।यह संविधान के मूल भावनाओं की न्याय सम्मत अभिव्यक्ति है।किंतु जब देश के प्रधानमंत्री ही इसे लेकर ऐसे संशय तथा परिवर्तनों वाले सोच से भरे हो।ऐसे में इसका भी हस्र निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा।दरसल अतीत के कई ऐसे मसलें है जिसपर प्रभावी पहल के बावजूद भाजपा सरकार असफल सिद्ध हुई है।यहाँ तक की कई मामलों में तो न्यायालय के स्पष्ट निर्देश के बाद भी भाजपा शासन इन निर्णयों पर अडिग नही रही।पिछले एक वर्ष से अशांत मणिपुर समस्या का मूल कारण आरक्षण से संबंधित रहा है।यहाँ के मूल निवासी मैतेई बहुसंख्यक होने के बावजूद आरक्षण दायरे से बाहर होने के नाते कई प्रकार की समस्याओं से जूझते आ रहे है।ये समुदाय अपने ही प्रांत में कही भी भूमि क्रय कर बस नही सकता है।वही यहाँ लागू दोहरे आरक्षण विधानों के नाते भूमिपुत्र मैतेई सरकारी नौकरियों मे भी पर्याप्त हिस्सेदारी से वंचित है।ऐसे में इनके पक्ष में आये न्यायिक निर्णय के बावजूद भाजपा शासन इन्हें आरक्षण दायरे में शामिल करने मे अक्षम सिद्ध हुई है।विदेशी शक्तियों के षड्यंत्र एवं विपक्षी राजनैतिक दबाब के नाते ऐसे कई घटनाक्रम विगत वर्षों में हुए है।सन् 2021 मे तेरह महीनों तक चला अराजक किसान आंदोलन भी कुछ ऐसा ही था।आंदोलन की आर मे अलगाववादी शक्तियाँ अराजकता को बढ़ावा दे रही थी।वही यह देश की छवि को खराब करने तथा सरकार को अस्थिर करने का भी उपक्रम था। बात अगर सुधारों की हो तो पूर्ववर्ती सरकारों के समय आये कृषि सुधार प्रस्तावों को तीन कृषि कानूनों के द्वारा इस सरकार में लाया गया था।प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ स्वामीनाथन की पूरी रिपोर्ट जो की कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार के दौरान आई थी वो पूरी की पूरी लागू होनी थी।किंतु मोदी सरकार अपने इस निर्णय पर भी कायम नही रह पाई।वैसे ये मोदी शासन के पूर्ववर्ती कार्यकाल की एकलौती घटना नही है।इससे पहले माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दलित उत्पीड़न अधिनियम के दुरुपयोग पर रोक लगाने का निर्णय दिया है।जिसके उपरांत विरोध प्रदर्शनों को देख कर भाजपा शासन ने इसे संसदीय प्रस्ताव से पलट दिया था।विदित हो की ऐसा ही एक न्यायिक निर्णय शाहबानों प्रकरण भी हुआ था ।मुस्लिम महिलाओं के अधिकार से संबंधित इस निर्णय को राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने संसद द्वारा पलट दिया था।इस मुद्दे को लेकर भाजपा सदैव कांग्रेस पार्टी पर आक्रामक रहती है।किंतु दलित अधिकार की आर मे होने वाले द्वेषपूर्ण कानूनी कार्रवाई के मामले पर भाजपा ने ऐसा ही तुष्टिकरण किया है।इस मसले पर प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को अम्बेडकर और पेरियार का सच्चा अनुयायी बताने की पुरजोर कोशिश की थी।जबकि अम्बेडकर ताउम्र ऐसे किसी कानूनी दुरुपयोग के समर्थक नही थे।दरसल ये सभी उदाहरण इसे बताने को पर्याप्त है की भाजपा नीत गठबंधन सरकार बारंबार विपक्ष एवं बाह्य शक्तियों के प्रभाव में देश हित के निर्णयों से हटती रही है।जबकि इन सभी निर्णयों का सीधा संबंध देश के तीव्र गति विकास एवं शांतिपूर्ण सामाजिक ताने बाने से रहा है।इस बीच सबसे दुखदाई बात है सरकार,भाजपा पार्टी और इससे जुड़े आरएसएस समूह के संगठनों की ऐसे सभी मुद्दों पर निष्प्रभावी पहल और इनका निष्क्रिय एवं आत्ममुग्ध होना।ऐसे में दो ही विकल्प बचते है।देश हित में सरकार ऐसे हर मुद्दे पर जनमानस में एक व्यापक समर्थन तैयार करे।वही प्रत्येक मसले पर पूरी तैयारी के साथ आए तथा बिना दबाव के इसे लागू करें और अपने निर्णयों पर बनी रहे।✍🏻अमिय भूषण