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किसी कवि ने कहा है कौन कहता है कि आसमां में छेद नहीं हो सकता जरा एक पत्थर तो तबीयत से
उछालो यारो परंतु यहां एक बातआती है कि कौन
पहल करेगा? समाज क्या है? हम और आप ?
किससे समाज बना है? किससे संस्था है? कौन
है जो समाज का सफल नेतृत्व कर सकता है? वे
लोग जो सिर्फ और सिर्फ पद के लोलुप हैं। क्या
वे लोग जिनको समाज के नाम पर राजनीति
करनी है ? नेता मंत्रियों के साथ संबंध बनाने
और बढ़ाने हैं। समाज में ऐसे लोगों की भरमार
है, जो एक साथ कई संस्थाओं के पदाधिकारी
बन बैठे हैं, परंतु काम करने के लिए उनके पास
समय नहीं है। न ही वे दूसरे सामर्थ्यवान व्यक्ति
को आगे बढ़ाना चाहते हैं। हमारे समाज के नेतृत्व
में बैठे लोग तो मानो केकड़े की भांति हैं, जो
एक दूसरे की टांग खींचते रहते हैं। कुछ लोग तो
अपने आपको किंगमेकर कहते हैं कि अगर
आपको संस्था में आगे बढ़ना है तो उनके पैर
पकड़ना जरूरी है। इसीलिए कई योग्य लोग अपने
आत्मसम्मान को बचाते हुए वे लोग समाज की
राजनीति से अपने आप को दूर रखते हैं। हमें
इसके बारे में आत्मचिंतन करने की आवश्यकता
है। संस्थाएं तो आज कल सिर्फ मनोरंजन के
कामों में व्यस्त हैं। हमारे बुजुर्गों ने असम में
बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की मानसिकता
से कार्य किया। उन्होंने अपने सेवा प्रकल्पों में
सभी लोगों की भागीदारी सुनिश्चत की। ऐसा
मैंने नहीं देखा कि समाज कल्याण के लिए बनी
संस्थाएं सिर्फ और सिर्फ मारवाड़ियों के लिए ही
काम करती हों। किंतु हाल ही के दिनों में हम
असम की धरती पर रह कर सिर्फ अपने ही लिए
काम करते नजर आ रहे हैं। हमें तो क्रिकेट लीग,
प्रतिभा खोज तथा अन्य कार्यक्रम सिर्फ और
सिर्फ मारवाड़ी के लिए ही करवाना है। मान लें
कि अगर आप किसी के घर पर मेहमान बनकर
जाएं और वे घर में लूडो या कैरेम खेले, लेकिन
आपको या आपके परिवार के किसी को तवज्जो
न दें तो आपको कैसा लगेगा? आज यहीं हो
रहा है। इसका गुस्सा भी इतर समाज के लोगों
के बीच सुलग रहा है। संस्थाओं का कार्य है
अपने समाज को सुदृढ़ और सुरक्षित बनाना।
समाज में अगर कोई बुराई या आडंबर – दिखावा
बढ़ने लगे तो संस्थाओं का कार्य है कि उसे रोके
और एक सही दिशा में आगे ले कर जाएं तथा
स्थानीय समाज के साथ एक तालमेल पैदा करे।
परंतु आज हम इसमें कामयाब नहीं हैं क्योंकि
हम स्वार्थी हो गये हैं। हमें तो सिर्फ पोस्ट चाहिए
और अपने रुतबे का इस्तेमाल कर पोस्ट प्राप्त
करने के बाद उनके पास समाज के लिए समय
का बड़ा अभाव हो जाता है। जहां सम्मान प्राप्त
कर गामोछा पहनना हो, प्रशस्ति पत्र लेना हो,
वहां तो उनकी उपस्थिति निश्चित रूप से होती
है परंतु जब समाज में कोई विपत्ति आती है तो
उनके पास कहां समय रहता है? वे गायब ही हो
जाते हैं।
प्रिय साथियों, जब तक समस्या चल रही थी उसका
कोई समाधान सामाजिक संस्थाओं के नेतृत्व के पा
नहीं था और आज भी किंकर्तव्यविमूढ़ बने ने हुए हैं।
समाज की संस्थाओं में इन लोगों ने तेरा गुट, मेरा गुट
है, जैसे मुंबई में किसी दौर में गैंगवार चलता था।
कर दिया है। गुटों की आपसी लड़ाई इस प्रकार चलती
बाकायदा एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए मीटिंगों
का दौर चलता है, परंतु जब शिवसागर में वहां के
समाज को इनकी जरुरत थी तो उस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए कोई मीटिंग नहीं बुलायी । समाजविरोधियों के खिलाफ एक भी पोस्ट या बयान नहीं दिखा। अपनी बड़ी-बड़ी फोटो के साथ हिंदी अखबारों में छाये रहने वाले नेताओं ने शिवसागर के समाज को मुसीबत के समय अकेला छोड़ दिया।
दोस्तों, 9 दिन तक शिवसागर जल रहा था, इनमें से
किसी की हिम्मत कुछ बोलने की नहीं हुई। आखिर
क्यों शांतिकाल में खुद को समाज का नेता बताने
वाले विपत्तिकाल में घर में दुबककर बैठ गये। आज
और अब इस पर चिंतन और निर्णय की जरुरत समाज के सामने आ गयी है, नहीं तो शिवसागर की घटना पहली भले ही हो, मगर अंतिम नहीं होगी।
मैं साधुवाद देता हूं शिवसागर समाज के उन व्यक्तियों
को जिन्होंने अपने विवेक के अनुसार स्थिति को
सुलझाया। मैंने देखा एक वयोवृद्ध व्यक्ति जो घुटने पर
बैठ नहीं पा रहे थे, लेकिन फिर भी वह बैठे। किसके
लिए? समाज के लिए। क्या आपने उन लोगों को
धन्यवाद दिया? नहीं। कम से कम उनके अंदर जिगर
था। 10-15 व्यक्ति स्टेज पर गये और समाजहित में
विवाद को खत्म करने के लिए घुटने टेककर माफी
मांगी। किसको बचाने के लिए? उसमें कोई ओसवाल,
अग्रवाल, ब्राह्मण, माहेश्वरी जैसी कोई बात नहीं थी ।
वे मारवाड़ी समाज के लिए काम कर रहे थे। आज
उन्हें शायद इतना झुकना नहीं पड़ता और हमारी मां-
बहनों को भी सार्वजनिक माफी नहीं मांगनी पड़ती,
अगर हमारी सामाजिक संस्थाओं में बैठे तथाकथित
नेताओं ने समय रहते सही कार्रवाई की होती और
शिवसागर के समाज का साथ दिया होता। स्थिति को
संभालने के लिए शिवसागर का समाज जितना
धन्यवाद का पात्र है, गुवाहाटी में बैठा संस्थाओं का
नेतृत्व उतने ही धिक्कार और निंदा का ।
अब भी समय है कि समाज इस घटना से सबक लें।
समाज के बुजुर्गों, अनुभवी लोगों और बुद्धीजीवियों
से परामर्श कर आनेवाले समय के लिए एक सटीक
रणनीति बनाएं। संस्था के नेतृत्व को गुटबाजी की जगह, समाज में आपसी सहमति के लिए प्रयास करना चाहिए।
आलोचना को स्वीकार करने और सुधार की प्रक्रिया
अपनाने की हिम्मत दिखानी चाहिए, न कि चेहरे पर
दाग हो और आईना फोड़ने की नीति ।