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संस्कृत: भारत की सांस्कृतिक एकता की सेतु–भाषा — डॉ. आंबेडकर की दूरदृष्टि में – डा. रणजीत कुमार तिवारी

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डा. रणजीत कुमार तिवारी
सहाचार्य एवं अध्यक्ष
सर्वदर्शन विभाग
कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय, नलबारी, असम
प्रस्तावना
संस्कृत भाषा, भारतीय सभ्यता की आत्मा और ऋषियों की वाणी है। यह केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, अपितु उस गूढ़ ज्ञान का संवाहक है जिसने वेदों, उपनिषदों, दर्शनशास्त्र, काव्य, नाटक, गणित, खगोल, और चिकित्सा जैसे विविध क्षेत्रों को जन्म दिया। संस्कृत में न केवल देवत्व का अनुभव होता है, बल्कि वह मानव बुद्धि की पराकाष्ठा और तार्किक अनुशासन की भाषा भी है। यह भाषा भारत के सांस्कृतिक एकत्व की वह डोर है जिसने विविध जातियों, भाषाओं और प्रदेशों को एक सूत्र में बांध रखा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जब भारतीय संविधान सभा में राष्ट्र की राजभाषा निर्धारण का प्रश्न उठाया गया, तब विभिन्न विचारधाराओं, भाषाई आकांक्षाओं और राजनीतिक समीकरणों के बीच एक असाधारण प्रस्ताव सामने आया। 11 सितम्बर 1949 को संविधान सभा की बैठक में डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर सहित 16 सदस्यों ने एक संशोधन प्रस्ताव रखा, जिसमें संस्कृत को भारतीय गणराज्य की राजभाषा घोषित करने की मांग की गई। यह घटना इतिहास के पन्नों में एक मौन क्रांति के रूप में दर्ज है, जिसे आज पुनः स्मरण करने की आवश्यकता है।
यह प्रस्ताव उस समय आया जब हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच राजभाषा को लेकर तीव्र बहस चल रही थी। ऐसे समय में संस्कृत का नाम प्रस्तावित करना केवल भाषाई तटस्थता का संकेत नहीं था, बल्कि यह उस गहन चेतना का प्रकटीकरण था कि भारत की आत्मा यदि किसी भाषा में सबसे अधिक उज्ज्वल रूप में प्रकट होती है, तो वह संस्कृत ही है।
डॉ. आंबेडकर जैसे चिंतक और समाज-सुधारक का इस प्रस्ताव में सम्मिलित होना यह सिद्ध करता है कि संस्कृत किसी विशेष वर्ग की बपौती नहीं थी, बल्कि यह भारत के प्रत्येक नागरिक की साझा विरासत है। आंबेडकर स्वयं बौद्ध दर्शन के गूढ़ अध्ययनकर्ता थे, और उन्होंने संस्कृत के माध्यम से ही अनेक प्राचीन ग्रंथों का गहन अध्ययन किया था। उनका यह समर्थन दर्शाता है कि सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक गौरव एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि परस्पर पूरक मूल्य हैं।
आज, जब भारत पुनः अपने प्राचीन ज्ञान-स्रोतों की ओर उन्मुख है—योग, आयुर्वेद, न्याय-दर्शन, और वैश्विक नेतृत्व के मानकों की पुनर्स्थापना कर रहा है—तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या हम उस ऐतिहासिक संशोधन की भावना को सही प्रकार से समझ पाए? क्या हम संस्कृत को केवल अतीत की भाषा मानकर उसके वर्तमान और भविष्य से आँखें मूँद सकते हैं?
संस्कृत को राजभाषा घोषित करने का प्रस्ताव केवल एक भाषिक निर्णय नहीं था—यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण का उद्घोष था। वह उद्घोष आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि वह स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक दिनों में था।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: संविधान सभा में संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव
डॉ. आंबेडकर का दृष्टिकोण
डॉ. भीमराव आंबेडकर, जो संविधान सभा में कानून मंत्री के रूप में कार्यरत थे, ने संस्कृत को भारत की राजभाषा बनाने का समर्थन किया था। उनका मानना था कि संस्कृत एक ऐसी भाषा है जो भारत की सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ कर सकती है। उन्होंने यह भी कहा था, “आखिर संस्कृत से दिक्कत क्या है?”
संविधान सभा में 10 सितंबर 1949 को डॉ. एन. गोपालस्वामी अयंगार के माध्यम से जब संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा गया, तब डॉ. आंबेडकर ने इसका समर्थन किया। यह समर्थन इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि डॉ. आंबेडकर जीवन भर ब्राह्मणवादी व्यवस्था और वर्णाश्रम की कठोर आलोचना करते रहे थे। फिर भी, संस्कृत — जो परंपरागत रूप से ब्राह्मणों की भाषा मानी जाती थी — के पक्ष में उनका खड़ा होना, गहन विचार और व्यापक दृष्टिकोण का परिचायक है।
संस्कृत का चयन: एक तटस्थता का संकेत
डॉ. आंबेडकर के लिए भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं थी, वह सत्ता, ज्ञान और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण का औजार थी। हिंदी, जो उत्तर भारत की बहुसंख्यक आबादी की भाषा थी, उसके चयन से दक्षिण भारत और गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में असंतोष उत्पन्न हो सकता था। वहीं उर्दू, जो सांस्कृतिक रूप से मुसलमानों से जुड़ी मानी जाती थी, विभाजन के बाद एक संवेदनशील प्रश्न बन चुकी थी। ऐसे में संस्कृत को चुनना, एक तटस्थ, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समान दूरी रखने वाला विकल्प था।
प्रस्तावक और समर्थक सदस्य
संविधान सभा में संस्कृत को राजभाषा बनाने का संशोधन प्रस्ताव पंडित लक्ष्मीकांत मैत्र (पश्चिम बंगाल) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। इस प्रस्ताव का समर्थन करने वाले अन्य सदस्यों में डॉ. आंबेडकर सहित कुल 16 सदस्य शामिल थे, जिनमें प्रमुख रूप से टी. टी. कृष्णमाचारी (मद्रास), नजीरुद्दीन अहमद (बंगाल), और कुलधर चलिहा (असम) शामिल थे।
प्रस्ताव का सार
प्रस्ताव में यह सुझाव दिया गया था कि भारत की राजभाषा संस्कृत होनी चाहिए, और प्रारंभिक 15 वर्षों तक अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रखा जाए। इसके पश्चात, संस्कृत को पूर्ण रूप से राजभाषा के रूप में अपनाया जाए। संस्कृत को लेकर यह धारणा रही है कि वह एक मृत भाषा है, एक संप्रेषणीय माध्यम नहीं। किंतु डॉ. आंबेडकर की दृष्टि इससे कहीं अधिक सूक्ष्म और वैज्ञानिक थी। वे मानते थे कि —”संस्कृत भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का आधार है। यह वह भाषा है जिसमें न केवल धार्मिक ग्रंथ हैं, अपितु गणित, खगोल, चिकित्सा, और राजनीति के भी प्राचीनतम ग्रंथ उपलब्ध हैं।” वे यह भी समझते थे कि यदि भारत को अपनी प्राचीनता और आधुनिकता का संगम बनाना है, तो उसे अपने ज्ञान परंपरा के मूल स्रोत — संस्कृत — से संबंध स्थापित करना ही होगा।
बहस और विचार
संविधान सभा में 12 से 14 सितंबर 1949 के बीच भाषा के मुद्दे पर व्यापक बहस हुई। कई सदस्यों ने संस्कृत के पक्ष में अपने विचार प्रस्तुत किए:
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा, “संस्कृत हमारी मातृभाषा है और हमें इसे अपनाना चाहिए।”
कुलधर चलिहा ने कहा, “संस्कृत सारे भारत में छाई हुई है। चाहे आप कितना ही प्रयास क्यों न करें, आप संस्कृत से छुटकारा नहीं पा सकते।”
हालांकि संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव संविधान सभा में पारित नहीं हो सका, लेकिन यह प्रस्ताव भारत की सांस्कृतिक एकता और भाषाई समरसता की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास था। डॉ. आंबेडकर और अन्य सदस्यों की यह पहल आज भी भारतीय भाषाई इतिहास में एक प्रेरणादायक अध्याय के रूप में स्मरणीय है।
भाषाई राजनीति और वैचारिक मंथन : एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
हिंदी बनाम संस्कृत बनाम अंग्रेज़ी
स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण के समय, सबसे जटिल और विवादास्पद विषयों में से एक था – राजभाषा का निर्धारण। इस बहस में तीन प्रमुख धाराएँ उभर कर आईं:
हिंदी समर्थक: हिंदी को जनसामान्य की भाषा मानते हुए, इसे राजभाषा घोषित करने की माँग की गई। यह वर्ग मुख्यतः उत्तर भारत से था।
अंग्रेज़ी समर्थक: अंग्रेज़ी को प्रशासन और आधुनिक शिक्षा का माध्यम मानते हुए, इसे स्थायी राजभाषा बनाए रखने की बात कही गई। इस वर्ग में दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर और कुछ शहरी क्षेत्र के प्रतिनिधि प्रमुख थे।
संस्कृत समर्थक: संस्कृत को एक तटस्थ, प्राचीन और समावेशी भाषा मानते हुए, इसे राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा गया। यह एक अल्पसंख्यक लेकिन उच्च आदर्शों से प्रेरित विचारधारा थी, जिसमें डॉ. आंबेडकर और कई दक्षिण भारतीय सदस्य भी सम्मिलित थे।
दक्षिण भारत का दृष्टिकोण
संस्कृत को राजभाषा बनाने के प्रस्ताव के समर्थन में विशेष रूप से गैर-हिंदी भाषी दक्षिण भारतीय सदस्य आगे आए। कारण स्पष्ट था—हिंदी को थोपे जाने की आशंका। संस्कृत को वे एक निष्पक्ष और समग्र भारतीय पहचान के प्रतीक के रूप में देखते थे। यह ऐतिहासिक तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि संस्कृत का समर्थन करने वाले अनेक सदस्य तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषी थे।
डॉ. आंबेडकर की सांस्कृतिक दृष्टि
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने स्वयं बौद्ध धर्म और प्राचीन भारतीय दर्शनों का अध्ययन संस्कृत ग्रंथों से किया था। उनका यह विश्वास था कि सामाजिक परिवर्तन और ज्ञान का लोकतंत्रीकरण तभी संभव है जब प्राचीन ग्रंथों को जनभाषाओं में अनूदित किया जाए—लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि संस्कृत का बहिष्कार हो। संस्कृत को वे भारतीयता का शुद्धतम रूप मानते थे, और इसीलिए उन्होंने इस प्रस्ताव का समर्थन किया।
डॉ. आंबेडकर एक यथार्थवादी और प्रगतिशील विचारक थे। उन्होंने यह नहीं कहा कि संस्कृत को थोप दिया जाए। वे यह मानते थे कि संस्कृत को वैज्ञानिक ढंग से, संस्थागत रूप से विकसित किया जाए, ताकि वह केवल परंपरा की भाषा नहीं, आधुनिक प्रशासन, न्याय और शिक्षा की भाषा भी बन सके। उनकी दृष्टि में भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि चेतना का वाहक होती है। संस्कृत का प्रयोग न केवल एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान होता, बल्कि वह भारत को पश्चिमी बौद्धिक उपनिवेशवाद से मुक्त करने का माध्यम बन सकता था।
भाषा और ब्राह्मणवाद: क्या संस्कृत केवल ब्राह्मणों की भाषा है?
आंबेडकर द्वारा संस्कृत के समर्थन को लेकर कई लोगों ने यह तर्क उठाया कि यह उनके ब्राह्मणवाद विरोधी रुख से विरोधाभासी है। किंतु डॉ. आंबेडकर इस अंतर को स्पष्ट रूप से समझते थे। उन्होंने स्वयं कहा था कि —
“संस्कृत पर ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं होना चाहिए। यदि दलित, पिछड़े, और शूद्र संस्कृत सीखें, उसे अपनाएं, तो वही भाषा मुक्ति का मार्ग बन सकती है।” उनकी दृष्टि में समस्या भाषा की नहीं थी, बल्कि उस भाषा पर सांस्कृतिक आधिपत्य की थी।
एक राजनीतिक और सांस्कृतिक युक्ति: भारत की अखंडता के लिए संस्कृत
संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर की यह सोच भी रही कि यदि भारत को उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम के भाषायी विभाजनों से बचाना है, तो एक ऐसी भाषा चाहिए जो सबके लिए नई हो — यानी समान रूप से सीखी जाने वाली। संस्कृत, ऐसी ही एक भाषा बन सकती थी। संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी रही है, और किसी भी क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं मानी जाती। अतः इसे राजभाषा बनाने से भाषायी राजनीति का समाधान निकल सकता था।
शिक्षा, अनुसंधान और तकनीकी युग में जागृति
यदि डॉ. आंबेडकर की दृष्टि को भविष्यद्रष्टा मानें, तो आज के भारत में संस्कृत के पुनरुत्थान की लहर उसी दृष्टि का एक यथार्थ परिलक्षण है। 21वीं सदी में, जब विश्व नवप्रवर्तन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तब भारत में संस्कृत को मात्र परंपरा की भाषा नहीं, बल्कि भविष्य की भाषा के रूप में पुनर्परिभाषित किया जा रहा है।
1. शिक्षा और अनुसंधान में नूतन ऊर्जा
भारत सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों ने संस्कृत को शिक्षा और अनुसंधान के केंद्र में पुनः स्थापित करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं – आज देशभर में संस्कृत भाषा, साहित्य, व्याकरण, दर्शन, और आयुर्वेद जैसे क्षेत्रों में विशेषीकृत विश्वविद्यालय कार्यरत हैं। इनमें प्रमुख हैं – केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, श्री लाल बहादुर शास्त्री, राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (तिरुपति), कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय (असम) समेत गुजरात, कर्नाटक, केरल और राजस्थान में भी संस्कृत महाविद्यालय और शोध संस्थान न केवल पाठ्यक्रम आधारित अध्ययन करते हैं, बल्कि शोध परियोजनाओं, शास्त्रार्थ परम्परा, एवं ग्रंथों के संरक्षण और प्रकाशन के क्षेत्र में भी अग्रणी हैं।
2. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 और संस्कृत का पुनः प्रतिष्ठान
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने भारतीय भाषाओं के प्रति एक नव दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, जिसमें संस्कृत को एक जीवंत भाषा के रूप में पुनः मान्यता दी गई है। इसके तहत संस्कृत को स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक एक विकल्प के रूप में शामिल किया गया है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभागों को सशक्त बनाने, नव पाठ्यक्रमों को लागू करने, और संस्कृत माध्यम में विज्ञान व गणित पढ़ाने पर बल दिया गया है। नीति का उद्देश्य संस्कृत को केवल पौराणिक भाषा न मानकर आधुनिक संवाद और बौद्धिक अन्वेषण की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना है।
3. AI और तकनीकी युग में संस्कृत की नवीन भूमिका
आज का युग Artificial Intelligence (AI), डेटा एनालिटिक्स, और भाषाई संगणन (Computational Linguistics) का युग है। ऐसे में संस्कृत की भूमिका अप्रत्याशित रूप से उभर कर सामने आ रही है, संस्कृत की व्याकरणिक संरचना अत्यंत परिशुद्ध और तार्किक है, जो कंप्यूटर प्रोग्रामिंग भाषाओं के लिए अनुकूल मानी जाती है। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री पाणिनि का अष्टाध्यायी व्याकरण आज के Natural Language Processing (NLP) और Machine Learning में उपयोग किया जा रहा है। कई परियोजनाएँ, जैसे संस्कृत कोडिंग इंटरफेस, संस्कृत चैटबॉट्स, और संस्कृत-आधारित भाषाई डेटाबेस, शोध और तकनीकी प्रयोगशालाओं में प्रचलित हैं।
4. संस्कृत भारती: जनचेतना से जुड़ा राष्ट्रव्यापी आंदोलन
संस्कृत को जनसामान्य में पुनर्स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है — संस्कृत भारती। यह एक राष्ट्रव्यापी संगठन है जिसका उद्देश्य है – संस्कृत को “संवाद की जीवंत भाषा” बनाना। ‘वदतु संस्कृतम्’ (Speak Sanskrit) अभियान के माध्यम से ग्रामों, कस्बों और महानगरों में संस्कृत बोलने की सहज परंपरा को पुनर्जीवित करना। संस्कृत संभाषण शिविरों, शिक्षण पुस्तकों, और ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के माध्यम से आम जनमानस में संस्कृत के प्रति रुचि और आत्मीयता को जाग्रत करना। संस्कृत भारती का यह प्रयास आधुनिक भारत में संस्कृत के सामाजिक पुनरुत्थान का एक प्रबल उदाहरण बन चुका है, जहाँ भाषा केवल विद्वानों की बपौती नहीं, अपितु जनभाषा बनने की ओर अग्रसर है।
भविष्य की ओर एक दृष्टि
संस्कृत का पुनरुत्थान केवल भाषायी नहीं, एक चेतना का पुनर्जागरण है। जब सरकारें, शिक्षाविद्, वैज्ञानिक और समाजसेवी एक साथ आकर इसे पुनर्जीवित करने में संलग्न होते हैं, तब यह केवल भाषाई प्रयोग नहीं रह जाता — यह एक संस्कृतिक नवजागरण बन जाता है। डॉ. आंबेडकर की कल्पना, जिसमें संस्कृत को राजभाषा के रूप में देखा गया था, आज AI लैब्स, विश्वविद्यालयों, और विद्यालयों में साकार होती प्रतीत हो रही है। संस्कृत, जो कभी देववाणी कही जाती थी, अब जनवाणी बनने की ओर अग्रसर है — एक ऐसी भाषा जो भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य — तीनों को जोड़ती है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य
जर्मनी, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, और जापान जैसे देशों में विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जा रही है। विदेशों में संस्कृत सीखने की रुचि वहाँ के छात्रों में भारत की आध्यात्मिक और वैज्ञानिक परंपराओं के प्रति आकर्षण का प्रतीक है।
निष्कर्ष
संस्कृत को राजभाषा बनाए जाने की उनकी मांग एक युगांतकारी सोच थी, जो न केवल सांस्कृतिक पुनरुत्थान का संकेत देती है, बल्कि एक समन्वयी, बहुभाषिक राष्ट्र के निर्माण की संभावना भी प्रस्तुत करती है। यदि हम आज भी भारत को भाषायी खांचों से ऊपर उठाकर एक सार्वभौमिक चेतना का राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो डॉ. आंबेडकर की यह भूली हुई प्रस्तावना — संस्कृत को राजभाषा बनाने की बात — एक बार पुनः गम्भीरता से विचार करने योग्य बन जाती है।
संविधान सभा में संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव एक अद्वितीय दृष्टिकोण था, जो राजनीति से ऊपर उठकर भारतीय आत्मा के सामूहिक चिंतन का प्रतीक था। यह तर्कसंगत, सांस्कृतिक और समावेशी सोच पर आधारित था—जो न केवल भारतीय भाषाओं के बीच संतुलन की तलाश थी, बल्कि भारत की वैश्विक पहचान को उसकी जड़ों से जोड़ने का प्रयास भी था।
आज जब भारत वैश्विक मंच पर एक सांस्कृतिक और वैचारिक नेता के रूप में उभर रहा है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि उस ऐतिहासिक दृष्टिकोण को पुनः स्मरण किया जाए—न केवल भाषाई न्याय के लिए, अपितु आत्म-गौरव और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता के लिए भी।

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