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गोरी आबादी सलवान को हीरो क्यों बना रही है? कुरान जलाना अस्वीकार लेकिन जवाबी हिंसा भी स्वीकार नहीं       आचार्य विष्णु हरि सरस्वती

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सलवान मोमिका कोई मनोरोगी नहीं है, कोई हिंसक नहीं है, कोई नास्तिक नहीं है, कोई वाद से ग्रसित नहीं है, कोई मोहरा नहीं है, कोई घृणा से भरा हुआ व्यक्तित्व नहीं है। फिर सलवान मोमिन है क्या? उसकी ख्याति इतनी बढी हुई क्यों, उसके पीछे पूरी मुस्लिम दुनिया क्यों पड़ी हुई है, क्या वह स्वयं मुस्लिम दुनिया के विरोध और प्रतिकार में होने वाली हिंसा से वचाव कर पायेगा? क्या उसे बर्बर व हिंसक मुस्लिम कट्टरपंथी अपनी हिंसा का शिकार नहीं बनायेंगे?  क्या सही में सलवान मोमिका स्वीडन का हीरो बन गया है? सलवान मोमिका ईसाई राष्टवाद का प्रेरक आईकॉन बन पायेंगे?
फिलहाल पूरी मुस्लिम दुनिया सलवान मोमिका ही नहीं बल्कि स्वीडन की अस्मिता के भी खून के प्यासे बन गयी है, मुस्लिम दुनिया में हिंसक प्रदर्शन जारी है, सलवान मोमिका के कत्ल के लिए कहीं फतवा जारी हो रहा है तो कहीं कत्ल करने वालों को पुरस्कार देने की भी घोषणा हो रही है। सलवान मोमिका का हस्र सलमान रूशदी, फ्रांस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्डो, भारत के कमलेश तिवारी आदि की तरह ही होगा क्या?
अभी तक का इतिहास तो यही कहता है कि जिसने भी इस्लाम के प्रतीक चिन्हों पर अपमान भरी बयानबाजी की या फिर उसके प्रति कोई भी अनादर जैसी घटना को अंजाम दिया उसका सिर कलम कर दिया गया या फिर उसको अन्य तरह की हिंसा का शिकार जरूर बना दिया गया। फिर जो इनकी बर्बर हिंसा से बचे हैं तो उनका जीवन प्रतिबंध और डर के साये में कैद हो गया, पुलिस और अपनी खुद की सुरक्षा घेरे में बंद होना पड़ा। सलमान रूशदी और तसलीमा नसरीन इसके उदाहरण हैं। सलमान रूशदी पर हिंसक हमले हुए, जिसमें उनकी एक आंख की रोशनी चली गयी, बहुत मुश्किल से उनकी जान बची, तसलीमा नसरीन आहत और एकांत भरी जिंदगी जीने के लिए विवश है।
सलवान मोमिका की प्रतीकात्मक कारवाई का समर्थन हम नहीं कर सकते हैं। उसने मुस्लिमों के ग्रंथ कुरान को जलाने का अपराध किया है। लेकिन हमें जानना जरूरी है कि किस परिस्थिथियों में उसने ऐसा किया और ऐसा करने के पीछे उसके कोई घृणित या फिर वैचारिक एजेंडा था क्या? क्या वह किसी का मोहरा बन कर ऐसा किया है? क्या वह ऐसा कर स्वीडन के किसी कानून का उल्लंधन किया है? क्या ऐसा कर उसने मुस्लिम कट्टरपंथ को चुनौती दी है? उसके इस कार्रवाई का स्वीडन और शेष यूरोप की गोरी यानी ईसाई आबादी पर कोई प्रभाव पडेगा? क्या यूरोप में मुस्लिम आबादी के खिलाफ ईसाई आबादी भी अपने आप को खड़ा कर रही है, क्या ईसाई आबादी भी उसी तरह से हिंसक होगी जिस तरह से हिंसक मुस्लिम आबादी रहती है?
स्वीडन के लोग सलवान का समर्थन करते हैं, उसकी कार्रवाई और संघर्ष का भी समर्थन करते हैं। आखिर क्यो? इसलिए कि उसका जीवन संघर्ष का प्रतीक है, वह स्वयं पीड़ित है, एक ऐसा पीड़ित जिसके अंदर न केवल स्वयं बल्कि स्वयं के साथ ही साथ उन करोड़ों लोगों की आंखे खोलने के लिए प्रेरित करना जो पीड़ित होने के बाद उसी खोल में रहना पसंद करते हैं। सलवान मोमिका स्वीडन का मूल निवासी भी नहीं है। वह इराक से भाग कर स्वीडन आया था। उसी तरह जिस तरह से इराक, सीरिया, लेबनान, अफगानिस्तान और नाइजीरिया जैसे मुस्लिम देशों से भाग कर यूरोप आते हैं और शरणार्थी बन कर त्रासद व अभाव ग्रस्त जिंदगी जाने के लिए विवश होते हैं। ऐसे शरणार्थी मुस्लिम देशों में इस्लाम के नाम पर जारी हिंसा के शिकार होते हैं और जीवन बचाने के लिए शरणार्थी बनने के लिए विवश होते हैं। इराक में भी शिया-सुन्नी के बीच हिंसक और अमानवीय वर्चस्व की लड़ाई, हिंसा जारी है। इराक से ही भागने के लिए सलवान मोमिका विवश हुए थे। स्वीडन ने मानवीय आधार पर उसको शरणार्थी बनाना स्वीकार किया था।
स्वीडन का कानून बहुत ही लचीला और उदार है, इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है। जिस कानून और जिस संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतत्रता निहित होती है वह संविधान और वह कानून उनता ही जनपक्षीय और महत्वपूर्ण होता है। स्वीडन मजहब को खारिज करने का अधिकार देता है, मजहब के खिलाफ बगावती होना स्वीकार करता है। इसी की परिणति सलवान मोमिका की वह प्रतिक्रिया थी। सलवान ने सबसे पहले मीडिया को सहारा बनाया और बताया कि यह मजहबी ग्रंथ क्यों उसके लिए घृणा और पीडा का विषय है। मीडिया में जगह तो मिली पर उसके भावी प्रतिकार के लिए कोई खास जगह नहीं बन पायी। फिर उसने पुलिस से स्वीकृति मांगी फिर भी उसे निराशा ही हाथ लगी। हार कर कोर्ट का सहारा लिया। कोर्ट ने उसे अपनी पीड़ा को प्रदर्शित करने का अधिकार दिया। कोर्ट के आदेश के बाद उसने मुस्लिमों के पवित्र पुस्तक को जलाया था। स्टाकहोम स्वीडन का मुख्य शहर है, स्टाकहोम की एक बहुत बडी मस्जिद के समीप इस घटना को अंजाम दिया गया। जिस समय सलवान मोमिका इस तरह की कार्रवाई को अंजाम दे रहा था उस समय दर्शन दीर्घा मे सैकडों लोग उपस्थित थे। इसका अर्थ यह है कि उसके साथ समर्थकों की एक भारी-भरकम टीम भी थी। यह भी प्रमाणित होता है कि स्वीडन में इस्लाम के प्रति विरोध जताने वालों की कोई कमी नहीं है। सही तो यही है कि स्वीडन में इस्लाम का विरोध अब घातक और हिंसक रूप ले चुका है। स्वीडन के लोग इस कदम को मुस्लिम गुंडागर्दी और मुस्लिम जिहाद के खिलाफ खिलाफ उठा कदम की तरह देख रहे हैं।
ग्रहण करने वाली बात यह है कि ऐसी परिस्थितियां रातोरात नहीं बनती हैं, पहले धुंआ उठता है फिर आग जलती है, धुंआ करने के पहले लकड़ी-माचिस आदि की जरूरत होती है। ऐसी परिस्थितियां कोई और नहीं बल्कि मुस्लिम आबादी ही पैदा कर रही है। मुस्लिम आबादी यूरोप को भी अपने आगोश में लेना चाहती है जिस तरह से मुस्लिम आबादी अपने मूल देश को हिंसा और बर्बरता तथा पुरातन कूरीतियों का शिकार बनायी उसी तरह से यूरोप को भी हिंसा, बर्बरता और पुरातन कूरीतियों का शिकार बनाना चाहती हैं। स्वीडन की ही परिस्थितियां हम देख लें तो फिर पर्दे के पीछे छीपे गुनहगार सामने खडे दिखेंगे।
क्या सिर्फ गुनहगार सलवान मोमिका ही है, या फिर मुस्लिम आबादी भी है जो जिहादी और अमानवीय तौर पर अपनी पाषाण व कबीली संस्कृति के आधार पर वर्चस्व स्थापित करने में लगी हुई है। स्वीडन ने एक समय में हजारों मुस्लिम शरणार्थियों को शरण दिया, उसको बसाया, जीवन सुंदर बनाने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था झोकी। पर स्वीडन के संविधान और कानून को स्वीकार तो करना दूर की बात रही बल्कि सम्मान करना भी इन्हें स्वीकार नहीं है। स्वीडन का गोटेनबर्ग कभी औद्योगिक शहर हुआ करता था और उसकी ख्याति भी बडी थी लेकिन आज वह शहर मुस्लिम जिहादियों के लिए शरणस्थली बन गया है। इस शहर से सौ से अधिक जिहादी आइएस के गुर्गे बन चुके हैं, यहां पर शरिया जिहाद का वर्चस्व है, शरिया संस्कृति नहीं अपनाने पर सरेआम हिंसा होती है। स्वीडन की पुलिस को ऐसी मुस्लिम आबादी को नियंत्रित करने में खूब परेशानी होती है।
मुस्लिम आबादी की गोलबंदी ऐसी परिस्थितियों में होती ही है। इस्लामिक सहयोग संगठन ओआईसी की सक्रियता भी सुनिश्चित हुई है। इस्लामिक सहयोग संगठन के 57 मुस्लिम देश सदस्य है। इस्लामिक सहयोग संगठन ने स्वीडन को सीधे धमकी पिलायी है और इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहने की भी बात की है। यही कारण है कि मुस्लिम देशों में जगह-जगह पर स्वीडन के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं और स्वीडन के दूतावासा को हिंसा का शिकार भी बनाया गया है। कूटनीतिक तौर पर भी हिंसक विरोध की सक्रियता होगी।
मुस्लिम देश और मुस्लिम आबादी को हिंसक और घृणात्मक विरोध से बचना चाहिए ? आखिर क्यों? उनके इस तरह के विरोध से क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया की नीति भी बनती है। खास कर यूरोप में मुस्लिम शरणार्थियों के खिलाफ हिंसा और घृणा भी बढ सकती है। इसके अलावा ईसाई राष्टवाद भी मजबूत हो सकता है। यूरोप में ईसाई राष्टवाद तेजी से फैल रहा है और मजबूत हो रहा है। हर कोई को अपनी संस्कृति और अपने अस्तित्व की चिंता होती है। ईसाई राष्टवाद को भी अपनी संस्कृति और अपने अस्तित्व की चिंता कैसे नहीं होगी? अगर ईसाई राष्टवाद भी इसी तरह हिंसक होगी तो फिर मुस्लिम आबादी की स्थिति बहुत खतरनाक हो सकती है। इसलिए लोकतांत्रित विरोध तक ही सीमित रहने की जरूरत है। पर मुस्लिम देश और मुस्लिम आबादी लोकतांत्रिक संस्कृति में विश्वास कहां करती है। मुस्लिम आबादी तो विरोध का अर्थ हिंसा व जिहाद समझती है। सलवान मोमिका तो स्वीडन और यूरोप का हीरो बन चुका है।

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