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धम्मपद्द चित्तवग्गो~सूत्र- १० अंक~४५-आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के दसवें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
दिसो दिसं यं तं कयिरा वेरी वा पन वेरिनं।
मिच्छा पणिहितं चित्तं पापियो नं ततो करे।।
न तं माता-पिता कयिरा अञ्ञो वापि च ञातका
सम्मापणिहितं चित्तं सेय्यसो नं ततो करे।।”
मैं सुना हूँ,और यह अनुभव भी किया हूँ कि-“आमरणान्तरानि वैराणि” यदि किसी के प्रति वैर- भावना आ जाती है ! तो फिर आ ही जाती है ! कभी समाप्त नहीं होती ! ये तो इतनी बलवान होती हैं कि शरीरों के मिट जाने पर भी अन्यान्य शरीरों में भी उस प्राणी के प्रति पुनः-पुनः उत्पन्न होती जाती है ! आप देखना ! इसी जीवन में कभी-कभी अकस्मात कुंज ऐसे अनजान लोग-पशू पक्षी आपको किसी मोड़ पर टकराते होंगे जिनसे आप पहले कभी नहीं मिले होगे ! कोई कारण नहीं होगा ! किन्तु फिर भी वे आपसे अथवा आप उनसे घृणा अथवा शत्रु भाव से भर उठते होंगे ! अर्थात ये अलौकिक सच्चाई है कि जब तक सभी शरीरों का नाश न हो तब तक वैर मिटता भी नहीं।
और इसका कारण है-“दिसो दिसं यं तं कयिरा वेरी वा पन वेरिनं” वैर-भाव मेरे चित्त की,अंतः मनस्श्चेतन की बहूत ही गहेराइयों में जा बैठता है ! कलुषित और उद्वेलित कर देता है चित्त को ! वस्तुतः समूचे संसार में आप किसी भी व्यक्ति,जीव से मिलें तो तीन ही  भावनायें आपमें आ सकती हैं–
“शत्रु मित्र मध्यस्थ तीन ये मन कीन्हें बरियाई।
त्यागन गहन उपेक्षणीय अहि हाटक तृण की नाईं॥”
मैं आपको एक छोटी सी सलाह देता हूँ-शत्रु की अपेक्षा उसके प्रति शत्रुता की भावना का त्याग कर दें ! जिस प्रकार-अहि अर्थात विष को जानकर तो कोई नहीं पी सकता, बिल्कुल उसी प्रकार समझ लें कि शत्रु नहीं शत्रुता की भावना ही विष है ! और विष सर्वथा त्याज्य होता है।
मित्र-भाव में इतनी गहनता होनी चाहिये कि जिसे, जिस व्यक्ति, भाव,गुण,सुँदरतादि आपको प्रिय लगती हों ! तो जिस प्रकार बाजार में सजी दुकानोंके सामान, सुँदर भवन,उपवन,चित्र-लिखित पुरुष-सुँदरियाँ होती हैं ! जिन्हें देख हम उन्हें बस देखते जाते हैं और आगे बढते जाते हैं ! बस इतनी ही मित्रता की सीमा  आप निश्चित् कर लें।
और पुनश्च जैसे कि किसी तिनके को आप तोड़-कर फेंक देते हैं,और तत्छण ही उस घटनाको भुला देते हैं ! बिल्कुल उसी प्रकार आप संसार से-“मध्यस्थ” उपेक्षित भावनाको अंतर्निहित कर लें।
यही है-“मिच्छा पणिहितं चित्तं पापियो नं ततो करे” ऐसी स्थिति में आप न किसी से राग करेंगे और न ही द्वेष ! इसी संदर्भ में कहते हैं कि-“न तं माता पिता ….कयिरा अञ्ञो वापि च ञातका मेरे प्रिय मित्रों ! द्वेष, अपकार और प्रतिशोध में थोड़ा सा भेद है !
बोधि-सारावली में भी कहते हैं कि–
“सयं निक्खमणकालं णच्चा अवि साहिए दुवे वासे”
वैर-भाव की परिणति अंततः विनाशकारी युद्धों के रूप में होती है ! मैं देखता हूँ कि किन्ही भी संतों, व्यक्ति विशेष,राजनैतिक दल विशेष,सामाजिक संगठन विशेष,चिकित्सा जगत के व्यक्ति अथवा संस्थान विशेष का अंधानुकरण ज्यादा भयावह होता है ! आज विश्व के जितने भी तथाकथित बौद्ध धर्मानुयायी और कम्यूनिष्ट चीन,श्रीलंका, म्यांमार,कोरिया या अपने ही देश की तथाकथित नव बौद्धिष्ट राजनैतिक विचार-धारायें हैं ! जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से लेकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तक सभी स्थानों पर आधुनिकता,समानता एवं संविधान के नाम पर -“जेहाद” फैलायी जा रही है ! बेरोजगारी के नाम पर दंगे फैलाये जाते हैं ! वे युद्ध हेतु सदैव ही उत्सुक रहते हैं ! अंधे धृराराष्ट्र की तरह उनके लिये-“युयुत्सवः” भाई-भाई को लडाना ! सत्ता के लिये किसी के भी साथ छल करना एक खेल होता है !  और इसका मुख्य कारण है कि उन्होंने- “बुद्धको बुद्धिवादी मान लिया बोधायन के रूप में कभी समझ ही नहीं पाये।
मित्रों ! आपने सुना भी होगा उनके उन मीठे वचनों को जब वे बोलते हैं-“जै-रावण,”हिंदू-चीनी भाई-भाई,भारत तेरे टुकड़े होंगे ईंशाऽल्लाह ईंशाऽल्लाह अथवा तिलक-तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार।
मैं आपको तथागतजी की एक भावना अवस्य ही बताना चाहूँगा- “सम्मापणिहितं चित्तं सेय्यसो नं ततो करे” ! यदि मेरा चित्त किसी के प्रति क्षोभित हो जाता है तो वैर से ! युद्ध से भी अधिक अपकार यही चित्त करता है ! द्वेष तो प्रेम के अभाव में बढता है ! किंतु अतिशय राग की परिणति ! मोह की परिणति अंततः अपकार में ही होती है ! किंतु प्रिय मित्रों ! -“सम्मापणिहितं चित्तं सेय्यसो नं ततो करे” सम्यक रूप से मध्यस्थ हुवा चित्त तो अपने माता-पिता की भाँति सबके उपकार हेतु उपलब्ध रहता है ! इस विशेषता के साथ कि एक मध्यस्थ व्यक्तित्व में केवल कर्तव्य बोध होता है वह हितैषी होता है -ममत्व रहित होता है ! उसमें करुणा का सागर हिलोरें ले रहा होता है तथापि वो आनन्दमय अनुभूतियों से प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न दुःखों से दूर होता है !
यही इस पद् का भाव है प्रिय!! इसी पद्द के साथ #चित्तवग्गो”नामक धम्मपदके तृतीय वग्गोकी समाप्ति होती है!!यही इस पद का भाव है ! शेष अगले अंक में प्रस्तुत करता हूँ–“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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