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मेरा जन्म बौद्धिक परिवेशवाले स्व.भगवती प्रसाद लडिया के कुल में भगवती देवी के कोख से असम प्रान्त के गोलाघाट शहर में हुआ | मेरा लालन पालन बौद्धिक व सामाजिक समरसता के परिवेश मे हुआ, जिसमे मैं उस समय की आबहवा के प्रभाव के चलते कभी कभी लिखने का प्रयास ( प्रयत्न ) करता हूँ | यह एक संयोग है की फागुन के समय में विभिन्न रंगों के फुलो को समेटते हुए तथ्यरुपी गुलदस्ते को सजाते हुए — गोलाघाट में स्वर्गीय भगवती प्रसाद जी के निवास स्थान पर ही इस आलेख के लिए कलम चला रहा हूं | मेरा गुलदस्ता साधारण कोटि का है पर इसमें मैने असमी आई को गौरान्वित करने वाले सुपूतो के व्यक्तित्व और कृतित्व की खुशबू को समाहित करने का प्रयास किया है। क्योंकि आज से 11 वर्ष पूर्व पूर्वोत्तर प्रदेशीय मारवाड़ी सम्मेलन के अन्तर्गत असम के मारवाड़ी समाज के अवदान के इतिहास प्रणयन एक समिति का गठन किया गय था, जिसका में भी एक सदस्य था। कइ बैठकों दौर चला सभी बैठकों में मेरे को छोड़कर अन्य सभी सदस्य असम के मारवाड़ी समाज के इतिहास को दो सौ वर्षों के आस पास बता रहे थे, मेने कहा असम में मारवाड़ियों का इतिहास आज से 450 वर्ष पूर्व का है और तथ्य के साथ मैने प्रस्तुत किया। किसी भी तरह की भूल चूक के लिए लिए क्षमा चाहूंगा। इस आलेख मे असम प्रदेश की राजनीतिक, उद्योगीकरण, समाजिक-सांस्कृतिक जीवन,और समाजिक समरसता में राजस्थानी- ( मारवाड़ी ) मुल के असमिया निवासियों के अवदान व भूमिका का उल्लेख करने का प्रयास ( प्रयत्न ) कर रहा हूँ |

यह हमारे लिए गौरव की बात है कि असम की अत्यंत गौरवशाली संस्था के असम साहित्य सभा के सभापति के पद सुशोभित ( अलंकृत ) करनेवाले दो विशिष्ट साहित्यकार मारवाड़ी मूल के असमिया थे | पहले विशिष्ट साहित्यकार स्वर्गीय “आनन्दचन्द्र आगरवाला (मंगलदै में सन् 1934 ई. में असम साहित्य सभा का अधिवेशन ) दूसरे साहित्यकार “विद्रोही कवि प्रसन्नलाल चौधरी” ( गोलाघाट में सन् 1978 ई. में असम साहित्य सभा का अधिवेशन ) थे | यहां में कुछ मारवाड़ी मूल के असमिया परिवारों का उल्लेख कर रहा हुं जिनका हमारे समाज मे जिनके विषय में चर्चा कम होती है | मैं कुछ अनछुए पन्नो पर प्रकाश डालने का प्रयत्न कर रहा हूँ |
आनंद चंद्र आगरवाला (1874-1940) असम के एक लेखक, कवि, इतिहासकार, अनुवादक और प्रशासनिक अधिकारी थे। कई अंग्रेजी कविताओं का असमिया में अनुवाद करने के कारण उन्हें भांगोनी कुंवर के नाम से जाना जाता है। उन्हें 1934 में मंगलदोई में आयोजित असम साहित्य सभा का अध्यक्ष चुना गया था। उन्हें सत्तारूढ़ ब्रिटिश सरकार द्वारा राय बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया था । आनंद चंद्र आगरवाला प्रसिद्ध असमिया कवि चंद्र कुमार आगरवाला के भाई और ज्योति प्रसाद आगरवाला के चाचा थे , रुपकुवंर ज्योति प्रसाद आगरवाला एक कवि, नाटककार, संगीतकार, गीतकार, लेखक और पहले असमिया फिल्म निर्माता थे |
सांस्कृतिक और बौद्धिक माहौल में पले-बढ़े आनंद चंद्र आगरवाला के जीवन पर उनकी मां का बहुत प्रभाव था। आनंद चंद्र आगरवाला की धर्मपरायण मां ही उनकी मूल गुरु थी ।

आनंद चंद्र आगरवाला की पहली प्रकाशित कविता संग्रह का नाम था जिलिकनी । विदेशी कविताओं के अनुवाद में मूल को संवारने का काम करने वाले आगरवाला असमिया काव्य साहित्य में ” भांगोनी कुंवर” के नाम से जाने जाते हैं। असमिया कविता और साहित्य जगत में भांगोनी कुंवर के रूप में अलग स्थान रखने वाले आगरवाला मूल कविता की सुंदरता को नुकसान पहुँचाए बिना शुद्ध असमिया भाषा का प्रयोग करके कविताओं का अनुवाद किया |
असम साहित्य सभा के मंगलदाई अधिवेशन में अध्यक्ष पद संभालने के बाद 1934 में आनंद चंद्र आगरवाला को अध्यक्ष पद पर दिए गए अध्यक्षीय भाषण के अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे गए आध्यात्मिक लेख, असमिया पत्र संधि के नियम आदि वर्तमान में असमिया की राष्ट्रीय धरोहर माने जाते हैं। आगरवाला ने शिलचर, गुवाहाटी, डिब्रूगढ़ आदि असम के विभिन्न भागों में अपना कर्तव्य निभाया, पुलिस विभाग में काम करते हुए 1906 में पुलिस के कानून और नियमों पर अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी, जिसे पुलिस मैनुअल कहा जाता है ।

सन् 1976 – 77 ई. का समय था गोलाघाट में असम साहित्य सभा के अधिवेशन की तैयारियां व बैठकें चल रही थी। उसी समय भगवती प्रसाद लडिया ने विचार किया कि गोलाघाट का इतिहास और असम साहित्य सभा के सभापति मारवाड़ी मूल के असमिया “विद्रोही कवि प्रसन्नलाल चौधरी” की जीवनी लिखाई जाय क्योंकि दोनो की पट्भूमी का इतिहास मारवाड़ी मूल से सम्बन्धित है| लडियाजी अपने मझले पुत्र ज्योति प्रसाद लडिया को साथ लेकर कलकत्ता गुवाहाटी का भ्रमण करते हुए तथ्य व सामग्री एकत्रित की और गोलाघाट के प्रसिद्ध लेखक ड० हेम बरा से असमिया में “गोलाघाटर ईतीवृत” ( गोलाघाट का इतिहास ) और गुवाहाटी के प्रसिद्ध जीवनी साहित्यकार नन्द तालुकदार से जीवनी ग्रन्थ “प्रसन्नलाल चौधरी” की जीवनी लिखवाई और उसे प्रकाशित किया | उन्होंने उसी काल खण्ड में “असमिया साहित्यर रत्न” नामक एक दिवार कैलेण्डर भी छपवाया |
असम साहित्य सभा के सन् 1978 ई. में सम्पन्न हुए गोलाघाट अधिवेशन के सभापति पद को सुशोभित करने वाले मारवाड़ी मूल के असमिया “विद्रोही कवि” ( “अग्निहोत्री कवि ) “प्रसन्नलाल चौधरी” के पूर्वज आज से करीब 450 वर्ष पूर्व राजपूताना- मारवाड़ घराना ( जौधपुर घराना ) के सरदार विजय सिंह राठौड़ एक राजपूत स्वाभिमानी वीर पुरुष थे | वे मुगल सम्राज्य के विरोधी थे | मुगल सम्राट अकबर के राजत्व कालखण्ड ( सन् 1556-1605 ई. ) के समय में विजय सिंह राठौड़ की कौच सेनापति वीर चिलाराय से दिल्ली में एक बैठक में मुलाकात होती है और उनसे मित्रता हो जाती है और कौच राज्य को सैना मे योगदान देने की इच्छा जाहिर करते है | दिल्ली से विजय सिंह वीर चिल्लाराय के साथ कौच बिहार पहुँचने पर कौच राजा नरनारायण उनका सोने की सराई मे रत्न-ज्वाहरत व तामुल-पान रख कर उनका अभिनन्दन व स्वागत करते हैं | विजय सिंह कौच सैना में भर्ती होकर कौच बिहार में रहने लगते है | उसी कालखण्ड में उनकी कौच बिहार के राजदरबार में महापुरुष शंकरदेव का दर्शन प्राप्त करते हैं और गुरुजना अर्थात महापुरुष शंकरदेव के एकशरनीय धर्म का तात्पर्य समझते हुए शरण ( दीक्षित होते ) लेते हैं | महापुरुष शंकरदेव के सन् 1568 ई. में बैकुठंवास के पश्चात राजदरबार के निर्देशन के अनुसार सपरिवार बरपेटा के नजदीक सुन्दरीदिया गाँव में आते हैं और प्रवल प्रताप व शान- शौकत से वास करते है | इनके वंशज हरीप्रसाद चौधरी का आहोम राज्य के पदाधिकारी अतिराम बरुआ से मनमुटाव होने पर चौधरी जी गगनकुची गाँव में बस जाते हैं | हरीप्रसाद चौधरी ब्रिटिश सरकार के सैना में उच्च पदाधिकारी थे तथा सेना से निवृत्त होने पर चौधरी जी कांस्य- पीतल का व्यवसाय किया |
इन्हीं विजय सिंह राठौड़ के वंशज “विद्रोही कवि प्रसन्नलाल चौधरी” भारत के क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम के समय में क्रांतिकारी आदर्श अग्निमंत्र में दीक्षित होकर कविता के माध्यम से आग उगलने वाले कवि- नाट्यकार प्रसन्नलाल चौधरी एक प्रसिद्ध शिक्षक, साहित्यकार, समाज सेवी थे | असम साहित्य सभा के ( सन् 1978 ई. ) गोलाघाट अधिवेशन मे सभापति का आसन्न सुशोभित करने वाले मारवाड़ी मूल के असमिया “विद्रोही कवि प्रसन्नलाल चौधरी” का कुछ खण्ड चित्र के माध्यम से उनके कर्म जीवन पर प्रकाश डालने का प्रयत्न कर रहा हूं|
ब्रिटिश सरकार के असम के शिक्षा अधिकारी के सरकुलर पत्र के विरोध में बरपेटा के विद्याउत्साही समाज सेवियों ने विख्यात आईनविद जगदीश चन्द्र मेधी के प्रधानाध्यापक नेतृत्व में सन् 1930 ई. मे बरपेटा विद्यापीठ नामक जातीय विद्यालय की स्थापना की | मेधीजी के रहते समय ही प्राधानाध्यापक रुप में प्रसन्नलाल चौधरी की नियुक्ति हुई | बरपेटा विद्यापीठ प्रसन्नलाल चौधरी की आत्मा थी | प्राक स्वाधीनता काल से ही शारीरिक शिक्षा, व्यामशाला, मुक्केबाजी, कुस्ती, खेल- कुद और पढने लिखने के साथ साथ सुत काटना, तांत- वोवा, आदि कर्म संस्कृति की शिक्षा दी जाती थीं, जिससे विद्यार्थी स्वावलम्बी हो सके |
प्रसन्नलाल चौधरी सन् 1924 ई. से ही आशा करते थे कि करीब दस वर्ष वाद सहस्त्र स्वाधीनता युद्ध होगा और उस युद्ध में भाग लेकर देश के स्वाधीनता के भागीदारी बनने के साथ अपने को उत्सर्गीत करेंगे | इसलिए विवाह करने की चिंता नहीं की थी | किन्तु 15 वर्ष अतिक्रम करते हूए निराश होते हुए सन् 1939 ई. में डिब्रुगढ़ के मौजादार परिवार के विश्वनाथ बरुआ की पुत्री पुन्यप्रभा बरुआ से उनका विवाह हुआ |
प्रसन्नलाल चौधरी कलकत्ता में शिक्षा ग्रहण करते समय देश स्वाधीनता के लिए सहस्त्र क्रांति का स्वप्न देखने वाले कई क्रांतिकारीयों का सानिध्य लाभ करते हुए उनके मनमे विद्रोह सूर जाग्रत होता है | इसी की ध्वनि उनकी बहुत सी कविताओं में सुनाई देती हैं | इसलिए वे विद्रोही कवि एवं अग्निहोत्री कवि के नाम से प्रसिद्ध हुए |
प्रसन्नलाल चौधरी की नाट्य प्रतिभा की दो दिशायें है
– नाटक रचना और अभिनय |
प्रसन्नलाल चौधरी ने — नीलाम्बर ,, अपेश्वरी , दून्दिया, रणजीत सिंह, सुलताना रिजिया , शिवाजी, बारिखार रगां रद आदि नाटक की रचना की थी |
गुवाहाटी के भाष्कर नाट्य मंदिर, नलबाड़ी, जोरहाट, तेजपुर आदि स्थान पर अभिनय कर प्रसन्नलाल चौधरी ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया |
प्रसन्नलाल चौधरी दक्ष शिकारी, शिक्षक, कहानीकार, निबन्धकार, जीवन-स्मृति व जीवनी लेखनी, शिशु साहित्यिक, निबन्धमाला-अभिभाषण आदि कला के में प्रागंत एवं इसके धनी थे |
जिस समय असम के मुख्यमंत्री श्री गोपीनाथ बरदोलई थे उन्होंने स्पष्ट रूप से मारवाड़ी समुदाय पर एक टिप्पणी की थी वह है —
” असम में जो बड़ी-बड़ी बस्तियाँ और नगर आबाद है, उन सब का श्रेय प्रायः मारवाड़ीयो को ही है | यहाँ के व्यापार-व्यवसाय और उद्योग-धन्धे भी प्रायः मारवाड़ीयो की देन है | किसी भी बड़ी बस्ती या नगर में चले जाईये, उसके मध्य या मुख्य स्थान में मारवाड़ी भाई की दुकान या मकान ( गोला ) मिलेगा | इससे यह स्पष्ट है कि उस बड़ी बस्ती या नगर में पहली दुकान या मकान ( गोला ) को किसी मारवाड़ी भाई ने बनवाया और उनके चारों ओर वह बस्ती या नगर बसता गया और बढ़ता चला गया | “
यहां तक कि असम में गावं, शहर और सड़कों के नामाकरण में भी मारवाड़ीयों का प्रभाव दिखाई देता है | गोलाघाट जैसे छोटे शहर की एक मुख्य सड़क का नाम “भगवती प्रसाद लडिया पथ ” है | इस संदर्भ में गोलाघाट की बात न करु तो विषय के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगा |
गोलाघाट की कहानी यही है कि गोलाघाट का प्राचीन नाम ” टोपलाघाट ” या ” दयांग ” बस्ती या नगर था | दो भाई कस्तुरचंद जालान और गुलाबराय जालान व दौ-तीन ओसवाल-पिचां परिवार राजपूताना ( मारवाड़) के रतनगढ़ नगर और सरदारशहर से ऊटगाड़ी से यात्रा करते हुए कानपुर पहुंचे , वहां से नाव के द्वारा गंगा नदी के रास्ते बंगाल राज्य से होतें हुए ब्रह्मपुत्र नद से ग्वालपाड़ा, मानकछार, विश्वनाथ आदि होते हुए ऊपरी असम में इसकी सहायक नदी धनसरी नदी घाट के विरान उंचे स्थान पर सन् 1830 ई. आस पास उतरते है , उस समय यह स्थान जंगलो से घिरा हुआ था |, उस समय इस अंचल को ” टोपलाघाट ” या ” दयांग ” नाम से जाना जाता था | उस समय कस्तुरचंदजी व उनके साथ आये दो तीन परिवार उस समय के सदर आमीन ( नवगाॅव जिला के कलेक्टर ) से अनुमति लेकर जंगल को कटवाकर सफा करवाया और बास-खेड़ के घर बनवाकर “कस्तुरचंद गुलाबराय जालान” फार्म के नाम से एवं अन्य ओसवाल- पिचां परिवार ने अपने फार्म से व्यपार आरम्भ किया | कस्तुरचंदजी जालान व उनके छोटे भाई गुलाबराय जालान व अन्य परिवार ने नौका द्वारा बाहर से प्रयाप्त समान मंगा लिया गया फलत: यहां से बेलगाड़ी द्वारा डिमापुर कोहिमा के रास्ते से विविध खाद-कपड़े आदि सामग्री मणिपुर तक परिवहन होने लगी | साधरणत: मारवाड़ी दुकान को “गोला” कहा जाता था और मारवाड़ी को “कैयां” कहकर पुकारा जाता था | धीरे धीरे व्यापार में प्रगति होने लगी और पटवारी , लीला , टाटीयां , तोदी , ढंढारिया,अग्रवाल लडिया, जालान,विन्नाणी, मिश्र , ब्राह्मण , नापीत , आदि जाती व उपाधिधारी के गोले बस गए और अपने क्षेत्र का व्यापार और कर्म करने लगे | जिससे यह स्थान बहुत सुन्दर व्यापारी केन्द्र बन गया | लोग दुर- दुर से सोदा (समान- बस्तुये ) खरीदने आने लगे और वे लोग कहने लगे ” मारवाड़ीर गोला ” या “कैयांर गोला” र परा बस्तु-बाहीनी किनीबलय जाऊँ यानि मारवाड़ी गोले से माल-बस्तु खरिदने जाता हुं | “गोला” शब्द के प्रचलन से पूर्व का नाम “टोपलाघाट ” परिवर्तित होकर “गोलाघाट” हो गया | सन् 1900 ई. में कस्तुरचंद गुलाबराय जलान के पोते सूरजमल जालान गोलाघाट की अपनी- जायदाद को बेचकर कलकत्ता चले जाते हैं और अपने साले नागरमल बाजोरिया के साथ में सूरजमल नागरमल जालान फर्म के नाम से जूट का व्यापार करते हुए जुट किन्ग नाम से प्रसिद्ध हुए और भारत के पुजींपतियो में प्रथम स्थान पर पहुँच जाते हैं यह हमारे पूर्वोत्तर के लिए गौरव की बात है |
नोट– भगवती प्रसाद लडिया के अनुसार “कैया ” शब्द बंगाल से आया है | बंगाल से जो आमला ( कलर्क, किरानी ) आये थे वे लोग मारवाड़ीयों को “कैया” बोलते थे | क्योंकि “कैया नाम का पौधा बहुत जल्द पनप कर बड़ा हो जाता है | उसी प्रकार मारवाड़ी जहाँ भी जाता है मेहनत व चतुराई से जल्द ही उन्नति एवं प्रगति पथ पर बढ़ जाता है | इसलिए मारवाड़ी को ” कैया ” कहा जाता है और “कैया” शब्द का अर्थ चतुर भी होता है |
सन् 1990-91 ई. भगवती प्रसाद लडिया जी के आदेश पर में विशवनाथ घाट और अरुणाचल राज्य के नजदीक जोनाय महकमे में वहाँ के मारवाड़ी मूल के असमिया आगरवाला परिवार के तथ्य को एकत्रित करने गया | उस समय अल्फा के विरुद्ध सैना का बजरंग अभियान चल रहा था | उस कठिन काल-खण्ड में भी मैने दो आगरवाला परिवार कुछ जानकारी एकत्रित की, जिसमें पहला परिवार विश्वनाथ घाट के दो भाई ज्वाला प्रसाद आगरवाला व रामप्रसाद अग्रवाल थे जिन्होंने महापुरुष शंकरदेव के एकशरनीय धर्म में दिक्षित हो गये और असमिया हो गयें व इनके कुल में समाज सेवी अध्यापक दीपक आग्रवाला जैसे कई हूए | दूसरे परिवार के दाताराम आगरवाला व्यपार करने के लिए जोनाय के नजदीक मूर्कगंसेलेगं मिरी गाव में आये वहाँ के मिरी राजा जतान पाईतर की बहन यामीर से प्रेमविवाह करके मीरी धर्म- संस्कृति में दीक्षित हो गये | इनके परिवार में साहित्यकार अध्यापक तोखेश्वर मिरि आगरवाला व जन्मेजय आगरवाला जैसे कई हुए | दोनों परिवार अपनी उपाधि आगरवाला ही लिखते है और कुछ परिवार मिरी आग्रवाला लिखते है |
इस आलेख में सुक्ष्म रुपसे चर्चा हुई है और बहुत से मारवाड़ी मूल के असमिया परिवार के कई विद्वान साहित्यकार – शिक्षाविद , उद्योगपति हुए हैं | अगले निबन्ध या पुस्तक के रूप में विस्तृत रुपसे चर्चा करने की कोशिश करेंगे |
नोट- सन्दर्भ निबंध व ग्रन्थ – 1.गोलाघाट बेजबरुआ विद्यालय का मुखपत्र “हेवती” में गोलाब गोस्वामी का आलेख | 2. श्री सुरजमल जालान : मधु-मंगल श्री ( ग्रन्थ ) प्रथम खण्ड, लेखक ऋषि जामीनी कोशिश “बरुआ” 3. भगवती प्रसाद लडिया के लिखे आलेख 4. “प्रसन्नलाल चौधरी” (ग्रन्थ ) लेखक नन्द तालुकदार 5. “विद्रोही कवि प्रसन्नलाल चौधरी” ( ग्रन्थ ) लेखक ड० भूपेन्द्र रायचौधुरी 6.”सरल आरु सुन्दर जीवनर आदर्श : भगवती प्रसाद लडिया ( ग्रन्थ ) लेखक अध्यापक लक्ष्मीकांत महन्त ( अप्रकाशित ) 7. सन् 2001 दिसम्बर मे प्रकाशित त्रिमासी “साहित्य” द्वीभाषी पत्रिका में लेखक साहित्यकार कैसव सयकिया का आलेख “सान्गवादिक भगवती प्रसाद लडिया आरु बिन्स सतिकार प्रथमार्द्धर गोलाघाट ” 8. “गोलाघाटर गुलाब फूल” ( ग्रन्थ ) लेखक ड० अजीत बरुआ 9. गान्धीवादी- स्वाधीनता संग्रामी शिक्षाविद गगन चन्द्र आगरवाला ( मिरी ) ( ग्रन्थ ) सम्पादक – बिजय बरि आरु रयेल पेगु 10. हरिविलास आगरवालार डायरी, सम्पादक ड० प्रवीण चन्द्र दास
लेखक – घनश्याम लडिया
भगवती प्रकाशन, गरिमा मिलेनियम, जी. एन . बी. रोड, पानबजार, गुवाहाटी -1 मोबाइल नंबर 94351 09150 , 8448352921
चित्र एक: लेखक – घनश्याम लडिया
दो: विद्रोही कवि प्रश्नलाल चौधरी
तीन: आनन्द चन्द्र आगरवाला शिलचर में भी ब्रिटिश सरकारके उच्च अधिकारी थे |