दिल्ली की ठंडी सुबह थी। दिसंबर की धुंध में लिपटी मेट्रो लाइन-7 अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही थी। कोच के एक कोने में खिड़की से सिर टिकाए बैठा था अविनाश-थका हुआ, बुझा हुआ और भीतर से कहीं बहुत खाली। उसकी आँखों में नींद कम, चिंता ज़्यादा थी। कपड़े साफ़ तो थे, लेकिन उसके मासूम से चेहरे पर बेरोज़गारी की परतें साफ़ झलक रही थीं। उसे नहीं पता था कि उसके ठीक सामने जो लड़की मोबाइल में खोई बैठी है, वह भारत ही नहीं, दुनिया भर में मशहूर इंटरनेशनल वेब सीरीज़ की स्टार है। वही चेहरा, जिन्हें लोग लाखों-करोड़ों दिलों की धड़कन कहते हैं। बाकी यात्रियों में से किसी ने उसे पहचान लिया, किसी ने चुपचाप तस्वीर खींच ली, और देखते ही देखते सोशल मीडिया पर तूफान उठ गया-‘मेट्रो में आम लड़के के साथ सफर कर रही मशहूर वेब सीरीज की एक्ट्रेस!’ कुछ ही घंटों में वह तस्वीर भारत की हर बड़ी वेबसाइट, हर न्यूज़ चैनल और हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फैल गई। लोग उस लड़की का नाम नहीं पूछ रहे थे-लोग पूछ रहे थे उस लड़के के बारे में- ‘यह लड़का आखिर है कौन और इतनी बड़ी स्टार के सामने इतना शांत और संयम से कैसे बैठा रहा? ‘ ‘क्या यह कोई मॉडल है?’ लेकिन अविनाश उस वक्त इन सब से पूरी तरह से बेख़बर था। उसके मन में सिर्फ़ एक ही सवाल था-आज रात रुकने की जगह कहाँ मिलेगी ? कैसे और क्या होगा ? दरअसल, अविनाश राजस्थान के एक छोटे-से गाँव का रहने वाला था। उसके पिता किसान थे। सूखे और कर्ज़ ने खेती को निगल लिया था। माँ बचपन में ही चल बसी थी। बारहवीं पास करते ही वह दिल्ली आ गया था।इस उम्मीद में कि महानगर उसे कोई पहचान देगा, दो वक़्त की रोटी देगा और शायद थोड़ी इज्ज़त भी।शुरुआत में उसने होटल में बर्तन मांजे, फिर डिलीवरी बॉय बना, फिर ऑटो में खलासी। लेकिन पिछले छह-सात महीनों से वह पूरी तरह बेरोज़गार था। कमरा छूट चुका था। अब वो कभी किसी दोस्त के यहाँ तो कभी रैन बसेरे में रात काटता। उसके पास टिकट तक के पैसे नहीं थे, फिर भी रोज़ मेट्रो में सफ़र करता।कभी काम की तलाश में, कभी बस यूँ ही, ताकि खुद को जिन्दा महसूस कर सके। जिस दिन वह तस्वीर खिंची थी, उस दिन वह एक फैक्ट्री में इंटरव्यू देकर लौट रहा था। वहाँ भी वही जवाब मिला-‘आपकी प्रोफाइल ठीक है, हम कॉल करेंगे।’ उसने यह जान लिया था, कि इसका मतलब अब कुछ नहीं बचा।उसे नौकरी नहीं मिलने वाली है। अगले दिन सुबह जब वह एक छोटी सी दुकान के बाहर लगे टीवी के सामने खड़ा था, तभी उसने खुद को स्क्रीन पर देखा। पहले तो उसे लगा कि कोई और है, फिर उसने स्क्रीन पर लगातार नीचे चल रही पट्टी पढ़ी- ‘मेट्रो में वायरल हुआ रहस्यमयी लड़का आखिर कौन है ?’ उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। कुछ ही घंटों बाद एक बड़ा पत्रकार उसके पास पहुँचा। कैमरा, माइक, भीड़-सब एक साथ। पत्रकार ने उससे पूछा- ‘आप उस मशहूर एक्ट्रेस के साथ बैठे थे, लेकिन आपने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी?’ अविनाश कुछ पल चुप रहा। उसकी आँखें नीचे झुकी थीं। फिर उसने बहुत सादे शब्दों में कहा- ‘जब सर पर रहने का सवाल हो, रोज़ की रोटी की चिंता हो… तब सामने कोई स्टार बैठे या आम इंसान, फर्क नहीं पड़ता। उस वक़्त दिमाग़ में सिर्फ़ अगला दिन होता है। एक गरीब की रोज की यही कहानी है जनाब ! उसकी यह बात जैसे पूरे देश के दिल में उतर गई। स्टूडियो में बैठे सभी एंकर यकायक चुप हो गए। सोशल मीडिया पर जो लोग कल तक उसकी बॉडी लैंग्वेज पर मीम बना रहे थे, वही लोग आज उसकी सादगी को सलाम करने लगे।एक बड़े हिंदी मैगज़ीन ने उसकी पूरी कहानी छापी-गाँव से लेकर दिल्ली की सड़कों तक का सफ़र। उसी शाम उसे उसी मैगज़ीन के ऑफिस से फोन आया -अविनाश, क्या तुम नौकरी करना चाहोगे?’ उसे लगा कि कोई मज़ाक कर रहा है।हर रोज़ की भांति, जैसे कि उसके साथ यह होता आया है। ये लोग भी जैसे उसका मजाक बना रहे हैं। ‘कौन-सी नौकरी? कहां की नौकरी? ‘ मुझे नौकरी मिलेगी ? उसे बिल्कुल भी यकीं नहीं हो रहा था, इसलिए उसने काँपती आवाज़ में पूछा। ‘ऑफिस में कूरियर और फाइलों का काम। सैलरी बीस हज़ार रुपये महीने। खाना-पीना और रहने की व्यवस्था अलग से।’ उस रात अविनाश पहली बार सड़क पर सोते हुए रोया नहीं। वह देर तक आसमान देखकर मुस्कराता रहा। कुछ ही दिनों में उसकी ज़िंदगी सच में बदल गई। उसके पास पहचान पत्र था, नौकरी थी, पक्की छत थी और महीने की तय आमदनी थी। वही लोग जो कभी उसे मेट्रो में धक्का देकर आगे बढ़ जाते थे, आज उसे नाम से बुलाने लगे थे। एक दिन उसी मशहूर एक्ट्रेस ने भी उससे मिलने की इच्छा जताई। जब वे आमने-सामने बैठे तो अविनाश ने सिर झुकाकर सिर्फ़ इतना कहा- ‘मैडम,आप बहुत बड़ी स्टार हैं और उस दिन मैंने आपको इसलिए नहीं देखा, क्योंकि मैं खुद में ही खो रहा था। मुझे अपने अगले कल की चिंता थी कि आखिर मेरा इस दुनिया में होगा क्या ? लड़की की आँखें नम हो गईं। आज अविनाश हर महीने अपने गाँव पैसे भेजता है। पिता के कर्ज़ का बड़ा हिस्सा वह अब चुका है। अब वह उसी मेट्रो से रोज़ ऑफिस जाता है, लेकिन अब उसका सिर पहले की तरह झुका नहीं होता। आँखों में डर नहीं, बल्कि भरोसा, विश्वास होता है। कभी-कभी वह सोचता है-‘अगर वह दिन न होता, तो शायद मैं आज भी भीड़ में खोया होता।’वास्तव में, ज़िंदगी कभी-कभी सबसे बड़ा मोड़ वहीं देती है, जहाँ इंसान खुद को सबसे बिखरा हुआ महसूस करता है। किस्मत हमेशा शोर मचाकर नहीं आती।कई बार वो एक खामोश सफ़र में, भीड़ से अनजान बैठी हुई, एक साधारण-सी मुलाकात बनकर आती है। और अविनाश आज भी यही मानता है-‘मुश्किलें जाती नहीं हैं, इंसान मजबूत हो जाता है। वास्तव में, दुनिया में शोहरत बड़ी नहीं होती है,शोहरत से बड़ी होती है भूख !
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।





















