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श्रीराम जन्मभूमि मंदिर संपूर्ण देश के लिए स्थायी प्रेरणा का स्रोत -अवधेश कुमार 

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अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के शिखर पर ध्वजारोहण के साथ शास्त्रीय परंपरा अनुसार निर्माण कार्य पूर्ण हो गया। विरोधियों की प्रतिक्रियाएं वैसी ही हैं जैसी 22 जनवरी 2024 के प्राण प्रतिष्ठा के समय थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंचालक डॉक्टर मोहन भागवत के बटन दबाने के साथ ध्वज का धीरे-धीरे ऊपर चढ़ना और अंततः मंदिर के शिखर पर विराजमान होकर लहराना भारत के बहुत बड़े वर्ग के लिए वेदनाओं से पूर्ण संघर्ष के युग के समापन और नये युग के सूत्रपात का साक्षात स्वरूप बन गया। सच है कि राजनीतिक और गैरराजनीतिक विपक्ष ने कभी भी श्रीराम मंदिर निर्माण कार्य तो छोड़िए इसके विचार का समर्थन नहीं किया। प्रत्यक्ष और परोक्ष इसके मार्ग में जितनी अड़चनें डाली जा सकतीं थीं डालीं गईं। जिन लोगों ने शास्त्रों में वर्णित अयोध्या को ही काल्पनिक साबित करने के लिए इतिहास के नाम पर पुस्तकें लिखवाईं, अभियान चलाया न्यायालय में इसके विरुद्ध मुकदमे लड़े और इलाहाबाद उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर आज तक प्रश्न खड़ा करते रहे हैं उनसे हमें सकारात्मक प्रतिक्रिया या समर्थन करने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। ध्यान रखिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत के उद्बोधनों के भाव में बिल्कुल समानता थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का स्वर भी ऐसा ही था।‌ भारत की सही समझ और राष्ट्र के लक्ष्य की यथार्थ कल्पना के कारण स्वर में समानता बिलकुल स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर 2047 तक विकसित भारत के लक्ष्य की याद दिलाते हुए ध्वजारोहण के साथ संबद्ध किया तो भारत को समझने वालों के लिए यह बिलकुल स्वाभाविक है। जिन्हें समझ नहीं या समझते हुए भी राजनीतिक रूप से विरोध करना है उनके लिए यह उपहास और विरोध का ही विषय होगा। बात अत्यंत सरल है। किसी भी समाज के अंदर यह भाव बिठा दिया जाए कि आपकी संपूर्ण सभ्यता, जो धर्म से निर्धारित है वह कपोल कल्पनाओं, मिथकों और बहुत हद तक अंधविश्वासों से भरी है तो उसके अंदर एक समाज और राष्ट्र के रूप में बड़े लक्ष्य पाने की प्रेरणा का स्रोत पैदा होना कठिन हो जाएगा। श्रीराम मंदिर आंदोलन केवल एक सामान्य मंदिर के लिए नहीं था, बल्कि उसका लक्ष्य सांस्कृतिक- धार्मिक- राष्ट्रीय पुनर्जागरण तथा ज स्थायी प्रेरणा स्रोत खड़ा करना ताकि भारत जागृत रहे और हम सब देश को शीर्ष पर ले जाने के लिए प्राणपण से संकल्पित हो।

  इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ध्वजारोहण उत्सव के क्षण को अद्वितीय व अलौकिक और इसे भारतीय सभ्यता की पुनर्जागरण की ध्वजा कहना स्वाभाविक था। मोहन भागवत  के अनुसार यह एक ऐतिहासिक व पूर्णत्व का क्षण, कृतार्थता का तथा संकल्प की पुनरावृत्ति का दिवस था, जिसे हमारे पूर्वजों ने हमें दिया है। दृश्य को याद करिए। ध्वजारोहण के समय सामने की कतार में साधु-संत भावुकता में अपने आंसू पोंछते दिखेंगे। श्रीराम मंदिर के मुख्य शिखर पर केसरिया ध्वज लहराने के साथ अगर जयश्री राम का उद्घोष था तो दूसरी ओर भाव विह्वलता के दृश्य भी। महसूस कर सकते हों तो उसमें अद्भूत आध्यात्मिक ऊर्जा और उमंग साफ दिखाई दे जाएगा। 5 अगस्त ,2020 को भूमि पूजन से लेकर अभी तक की प्रक्रिया के लिए अत्यंत सूक्ष्मता से अध्ययन व शोध हुए और फिर साधकों – विद्वानों ने मिलकर इसे संपूर्ण विश्व के लिए अद्भुत स्थान में विकसित किया है। कोरोना काल में हजारों श्रमिकों की अथक मेहनत के बाद श्रीराम मंदिर का पारंपरिक नागर शैली में निर्माण पूरा हुआ।  इसके साथ सप्तऋषि मंदिर बने जिनमें निषाद राज और शबरी से लेकर भगवान वाल्मीकि आदि के मंदिरों का निर्माण और प्राण प्रतिष्ठा भी पूर्ण शास्त्रीय परंपरा से हुई। 22 जनवरी, 2024 को भगवान श्रीराम बालक राम के रूप में स्थापित किए गए थे और 5 जून, 2025 को दूसरी प्राण प्रतिष्ठा में भगवान राम राजा के रूप में स्थापित किए गए। इसके बाद अंतिम कार्य ध्वजा स्थापित करने का था।

 सनातन परंपरा में शिखर पर लहराते ध्वज को मंदिर का रक्षक, ऊर्जा का वाहक और पूर्णता तथा ईश्वर की उपस्थिति का प्रतीक माना जाता है। ध्वजा से ही मंदिर को पूर्णता प्राप्त होती है। कौन-सा निशान रामलला के धाम की पवित्रता और युगों तक कायम रहने वाली सनातन परंपरा का प्रतिनिधित्व करेगा इसके चयन के लिए अनेक ग्रंथों को खंगाला गया। रामचरितमानस , भारत की सभी भाषाओं के रामायण देखे गये। विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र के अध्याय 42 में ध्वजाओं के लक्षणों का विस्तृत वर्णन है। महाभारत, ऋग्वेद, विष्णुधर्मोत्तर पुराण में ध्वज का वर्णन है। इसमें भगवान विष्णु के ध्वज का रंग पीला और सुनहला बताया गया है। जो इनके अवतार होंगे उनके ध्वज का रंग केसरिया और पीतांबरी होगा।  सूर्यवंशी होने के कारण सूर्य का निशान अंकित है। सूर्य जीवंतता और ऊर्जा का भी प्रतीक होता है। ॐ ब्रह्मांड का द्योतक है, इसलिए ॐ का निशान अंकित है। रघुकुल का राजकीय निशान होने के कारण कोविदार वृक्ष को अंकित किया गया है। हरिवंश पुराण में उल्लेख है कि महर्षि कश्यप ने पारिजात के पौधे में मंदार के गुण मिलाकर इसे तैयार किया था। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के अनुसार चित्रकूट में वनवास के दौरान भगवान राम ने लक्ष्मण को ध्वजों से विभूषित अश्व और रथों से आती हुई सेना की सूचना दी और इसके बारे में पता लगाने को कहा। इसे देखकर लक्ष्मण ने कहा कि ‘यथा तु खलु दुर्भद्धिर्भरत: स्वयमागत:। स एष हि महा काय: कोविदार ध्वजो रथे।’ अर्थात् ‘निश्चय ही दुष्ट दुर्बुद्धि भरत स्वयं सेना लेकर आया है। यह कोविदार युक्त विशाल ध्वज उसी के रथ पर फहरा रहा है।’ इसी प्रसंग से स्पष्ट हुआ कि कोविदार वृक्ष युक्त ध्वज अयोध्या की पहचान और प्राचीन धरोहर रही है। प्राण प्रतिष्ठा के समय ही राम मंदिर परिसर में कोविदार वृक्ष लगाए गए हैं, जो इस समय लगभग आठ से 10 फुट के हो चुके हैं।

इतनी सूक्ष्मता से एक-एक पहलू का ध्यान रखने की सोच और इसके पीछे के दर्शन को विरोधी समझ ही नहीं सकते। अगर प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि अयोध्या की भूमि आदर्श आचरण का स्वरूप है और राम आदर्श एवं अनुशासन तथा जीवन के सर्वोच्च चरित्र के प्रतीक जो हमें तभी प्रेरित करेंगे जब हम अपने भीतर के राम को जगाएं। मेकाले शिक्षा प्रणाली की गुलाम मानसिकता से मुक्ति के लिए 10 वर्षों का लक्ष्य देने के लिए निश्चय ही यह उपयुक्त जगह और समय था। अयोध्या व राम – सीता को काल्पनिक बनाने की सोच इसी गुलाम मानसिकता से निकली थी। भारत को अपनी विपुल आध्यात्मिक ऊर्जा, सभ्यता और संस्कृति की शक्ति से विश्व के लिए नेतृत्वकारी आदर्श महाशक्ति के रूप में खड़ा करना है तो प्रेरणा यही से मिलेगी। प्रधानमंत्री ने इसके लिए रामायण में रावण से संग्राम के समय भगवान श्रीराम के कथन का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘विकसित भारत की यात्रा को गति देने के लिए हमें एक ऐसे रथ की आवश्यकता है जिसके पहिये वीरता और धैर्य हों, जिसका ध्वज सत्य और परम आचरण हो, जिसके घोड़े शक्ति, विवेक, संयम और परोपकार हों, और जिसकी लगाम क्षमा, करुणा और समता हों।

इसे निश्चय ही उस यज्ञ की आहुति कहनी होगी जिसकी अग्नि बाबर द्वारा मंदिर विध्वंस के साथ ही 500 वर्षों तक लोगों के हृदय में प्रचलित रही और यह संघर्ष अनवरत चलता रहा। डॉ भागवत ने कहा कि वृक्ष स्वयं धूप में खड़े रहकर सबको छाया देते हैं, फल स्वयं उगाते हैं और दूसरों को बांट देते हैं। “वृक्षाः सत्पुरुषाः इव” अर्थात वृक्ष सत्पुरुषों के समान हैं। उन्होंने कहा कि यदि ऐसा जीवन जीना है तो चाहे कितनी प्रतिकूलता हो, साधनहीनता हो, दुनिया स्वार्थ में बहती हो फिर भी हमारा संकल्प है कि हमें धर्म के पथ पर चलना है। हमारे संकल्प का प्रतीक हम पूरा कर चुके हैं। धर्म, ज्ञान, छाया तथा सुफल संपूर्ण दुनिया में बांटने वाला भारतवर्ष खड़ा करने का काम शुरू हो गया है। इस प्रतीक को ध्यान में रखते हुए सभी विपरीत परिस्थितियों में हमें एकजुट होकर सतत कार्य करना होगा। उनकी कुछ पंक्तियां देखिए, “एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः” अर्थात इस देश में जन्मे अग्रजन्मा ऐसा जीवन जिएं कि दुनिया उनसे प्रेरणा लें,। “स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः” यानी पृथ्वी के समस्त मानव भारतवासियों के चरित्र से जीवन की विद्या सीखें। …. परम वैभव सम्पन्न, सबके लिए खुशी और शांति बांटने वाला तथा विकास का सुफल देने वाला भारतवर्ष हमें खड़ा करना है। यही विश्व की अपेक्षा और हमारा कर्तव्य भी है।

तो संघर्ष से लेकर मंदिर निर्माण, प्राण प्रतिष्ठा और ध्वजारोहण तक के पूरे पुरुषार्थ को देखें तो समझ में आता है कि हर भारतवासी के लिए यह मंदिर और उसके ऊपर लहराता हुआ धर्म ध्वज अपनी संस्कृति की व्यापकता एवं संघर्ष की प्रभाव प्रखरता की सतत प्रेरणा देता रहेगा। हम इससे प्रेरणा लेते हुए सामूहिक रूप से भारत के लक्ष्य का ध्यान रखते हुए काम करेंगे तो यह देश विश्व के लिए आदर्श और प्रेरणादाई देश बनेगा।  यही भारत का मुख्य ध्येय है।

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