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अभावों के बावजूद कोई व्यक्ति अपने संकल्प के बल पर अपनी और अपने समाज की भी उन्नति कर सकता है। श्री मन्नाथु पद्मनाभन पिल्लई इसके जीवंत उदाहरण हैं। उनका जन्म दो जनवरी, 1878 को केरल के कोट्टायम जिले के पेरुन्ना (चंगनाशेरी) गांव में हुआ था। उनके पिता श्री ईश्वरन नंबूदरी तथा माता श्रीमती मन्नाथु पार्वती अम्मा थीं। मातृवंशीय उत्तराधिकार के रूप में उन्हें अपना पारिवारिक नाम मन्नाथु प्राप्त हुआ। यद्यपि उनका प्रचलित नाम मन्नम था।
यह परिवार बहुत गरीब था। उनके जन्म के कुछ समय बाद माता-पिता अलग हो गये। इससे उनकी शिक्षा अधूरी रह गयी। 16 वर्ष की अवस्था में वे पांच रु. प्रतिमास पर एक प्राथमिक स्कूल में पढ़ाने लगे। अगले दस साल तक वे यही काम करते रहे। फिर उन्होंने कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की और वकालत करने लगे। अब उनकी आय 400 रु. प्रतिमास तक होने लगी।
आर्थिक स्थिति सुधरने पर अपने नायर समाज में व्याप्त अंधविश्वास, पाखंड तथा वैवाहिक कुरीतियां दूर करने के लिए उन्होंने कुछ मित्रों के साथ मिलकर 31 अक्तूबर, 1914 को ‘नायर सर्विस सोसाइटी’ बनायी। यह काम उन्हें इतना महत्व का लगा कि कुछ समय बाद उन्होंने वकालत छोड़कर पूरा समय इसी में लगा दिया। उन्होंने ग्राम समाज तथा कार्ययोगम् जैसी पुरानी व्यवस्था को नया रूप दिया। इससे परिवार और समाज की स्थिति में सुधार हुआ। कई कुरीतियां दूर हुईं तथा सरकार ने भी इस बारे में कानून बनाये।
1924-25 में उनके प्रयास से त्रावणकोर में नायर विनियमन कानून लागू हुआ। इससे परिवार की सम्पत्ति का बेटों और बेटियों में समान बंटवारा होने लगा। यह नायर समाज की व्यवस्था में एक बड़ा और क्रांतिकारी परिवर्तन था। अब उनका ध्यान केरल में व्याप्त छुआछूत की ओर गया। उन्होंने नायर समाज के मंदिरों में सब जातियों को प्रवेश एवं पूजा का अधिकार दिया। वहां कई मंदिरों की निकटवर्ती सड़कों पर कुछ तथाकथित छोटी जाति वाले नहीं जा सकते थे। फिर गांधी जी की अनुमति से केरल के सभी मंदिरों में इस अधिकार के लिए 1924 में वाइकाॅम में तथा 1931 में गुरुवायूर में सत्याग्रह किया। 1936 में त्रावणकोर के महाराजा ने अपने क्षेत्र के मंदिर सबके लिए खोल दिये।
इस सफलता से उनका उत्साह दूना हो गया। त्रावणकोर देवस्थानम बोर्ड के पहले अध्यक्ष के रूप में उन्होंने ऐसे कई प्राचीन मंदिरों का पुनरुद्धार किया, जो बंद हो गये थे। अब उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र पर ध्यान दिया। उन्होंने केरल में अनेक नये विद्यालय खोले। केरल के भारत में पूर्ण विलय के लिए 68 साल की अवस्था में वे जेल भी गये। 1946 में वे कांग्रेस के तथा 1948 में केरल विधानसभा के सदस्य बने। 25 मई, 1947 को उन्होंने अलपुझा के मथुकुलम में जो भाषण दिया, वह आज भी प्रसिद्ध है।
स्वाधीनता के बाद केरल में ई.एम.एस. नंबूदरीपाद के नेतृत्व में बनी पहली साम्यवादी सरकार की गलत नीतियों का उन्होंने इतना भीषण विरोध किया कि उसे त्यागपत्र देना पड़ा। इसे विमोचन समरम (मुक्ति संघर्ष) कहा जाता है। इसके बाद लोग उन्हें ‘भारत केसरी’ कहने लगे। वे मलयालम भाषा के एक अच्छे लेखक भी थे। 1966 में भारत सरकार ने उनकी समाजसेवाओं के लिए उन्हें ‘पद्म भूषण’ सम्मान प्रदान किया।
25 फरवरी, 1970 को उनका देहांत हुआ। प्रतिवर्ष दो जनवरी को लोग चंगनाशेरी में बने ‘मन्नम स्मारक’ पर आकर उन्हें याद करते हैं। 1989 में इस दिन सरकार ने उन पर 60 नये पैसे का डाक टिकट जारी किया। वे 31 साल तक नायर सर्विस सोसायटी के सचिव तथा तीन साल अध्यक्ष रहे। पूरा नायर समुदाय आज भी उन्हें दूरदर्शी सुधारक तथा अपना नैतिक मार्गदर्शक मानता है।