17 Views
पंडित श्रद्धाराम शर्मा का जन्म 30 सितम्बर1837 को पंजाब के जालंधर के फिल्लोर ग्राम में हुआ । सनातन धर्म प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिन्दी के ही नहीं, बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में से एक थे। इनकी गिनती उन्नीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठ साहित्यकारों में होती थी। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वक्तृता के बल पर उन्होंने पंजाब में नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह जगाया, जिससे आगे चलकर आर्य समाज के लिये पहले से निर्मित उर्वर भूमि मिली। उनका लिखा उपन्यास ‘भाग्यवती’ हिन्दी के आरंभिक उपन्यासों में गिना जाता है। पं. श्रद्धाराम शर्मा गुरुमुखी और पंजाबी के अच्छे जानकार थे और उन्होंने अपनी पहली पुस्तक गुरुमुखी मे ही लिखी थी; परंतु वे मानते थे कि हिन्दी के माध्यम से इस देश के ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है। उन्होंने अपने साहित्य और व्याख्यानों से सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ जबर्दस्त माहौल बनाया था। उन्होंने सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार किया और उसी क्रम में ओम जय जगदीश हरे आरती रची।
पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने सन 1866 में पंजाबी (गुरुमुखी) में ‘सिखों दे राज दी विथिया’ और ‘पंजाबी बातचीत’ जैसी किताबें लिखकर मानो क्रांति ही कर दी। अपनी पहली ही पुस्तक ‘सिखों दे राज दी विथिया’ से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गए और उनको “आधुनिक पंजाबी भाषा के जनक” की उपाधि मिली। बाद में इस रचना का रोमन में अनुवाद भी हुआ। इस पुस्तक में सिक्ख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के बारे में बहुत सार गर्भित रूप से बताया गया था। पुस्तक में तीन अध्याय हैं। इसके तीसरे और अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत, व्यवहार आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। इसी कारण से शायद इस पुस्तक को उच्च कक्षा की पढाई के लिए चुना गया। अंग्रेज़ सरकार ने तब होने वाली आई.सी.एस. (जिसका भारतीय नाम अब ‘आई.ए.एस.’ हो गया है) परीक्षा के कोर्स में, अनिवार्य पठनीय पुस्तक विषय के रूप में इस पुस्तक को शामिल किया था। “पंजाबी बातचीत” में मालवा, मझ्झ जैसे प्रान्तों में जो इस्तेमाल की जातीं हैं, वह बोली, बातचीत, पहनावा, सोच, मुहावरे, कहावतें जैसी बातों को समेटा गया है। “पंजाबी बातचीत” को अंग्रेज़ ब्रिटिश राज के समय पंजाबी भाषा सीखने के लिए सबसे बड़ा सहारा समझते थे।
‘ओम जय जगदीश हरे’ की रचना
पंडित श्रद्धाराम शर्मा का गुरुमुखी और हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 1870 में 32 वर्ष की उम्र में पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने ‘ओम जय जगदीश हरे’ आरती की रचना की। उनकी विद्वता और भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था और तब हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते, अपनी लिखी ‘ओम जय जगदीश हरे’ की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानों लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढ़ियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू क़ायम है। इस आरती का उपयोग प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक और हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता मनोज कुमार ने अपनी सुपरहिट फ़िल्म ‘पूरब और पश्चिम’ में किया था और इसलिए कई लोग इस आरती के साथ मनोज कुमार का नाम जोड़ देते हैं।
भारत के घर-घर और मंदिरों में ‘ओम जय जगदीश हरे’ के शब्द वर्षों से गूंज रहे हैं। दुनिया के किसी भी कोने में बसे किसी भी सनातनी हिन्दू परिवार में ऐसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है, जिसके हृदय-पटल पर बचपन के संस्कारों में ‘ओम जय जगदीश हरे’ के शब्दों की छाप न पड़ी हो। इस आरती के शब्द उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत के हर घर और मंदिर मे पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ गाए जाते हैं। बच्चे से लेकर युवाओं को और कुछ याद रहे या न रहे, इसके बोल इतने सहज, सरल और भावपूर्ण है कि एक दो बार सुनने मात्र से इसकी हर एक पंक्ति दिल और दिमाग में रच-बस जाती है। हजारों साल पूर्व हुए हमारे ज्ञात-अज्ञात ऋषियों ने परमात्मा की प्रार्थना के लिए जो भी श्लोक और भक्ति गीत रचे, ‘ओम जय जगदीश’ की आरती की भक्ति रस धारा ने उन सभी को अपने अंदर समाहित-सा कर लिया है। यह एक आरती संस्कृत के हजारों श्लोकों, स्तोत्रों और मंत्रों का निचोड़ है।
किसी भी कृति का कालजयी होना इसी तथ्य से प्रमाणित होता है कि जब कृति उस कर्ता की न होकर समाज के प्रत्येक व्यक्ति की, अपनी-सी बन जाये। जिस तरह ‘रामचरितमानस’ या ‘श्रीमद्भगवद गीता’ या ‘नानक बानी’ कालांतर में बन पायी है। इसी तरह श्रद्धाराम शर्मा जी द्वारा लिखी ‘ओम जय जगदीश हरे’ आज हरेक सनातनी, हिन्दू धर्मी के लिए श्रद्धा का पर्याय बन गयी है। इस आरती का प्रत्येक शब्द श्रद्धा से भीगा हुआ, ईश्वर की प्रार्थना और मनुष्य की श्रद्धा को प्रतिबिंबित करता है।
आपका स्वर्गवास मात्र 44 वर्ष की आयु 24 जून 1881 को लाहौर में हुआ l