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गतांक से आगे….
कल यानी 12 सितंबर के अंक में हमने शिवसागर की घटना के संभावित कारणों की पड़ताल कर अपने विचार आपसे साझा करने का प्रयास किया था. शिवसागर जैसी दुर्भाग्यजनक परिस्थितियों से अगर फिर दो-चार होना पड़े या फिर ऐसे हालात पैदा ही ना हो, यह सुनिश्चित करने के लिए मारवाड़ी समाज और उसकी सभा-संस्थाओं को क्या करना चाहिए, इन गंभीर विषयों पर चर्चा आज के अंक में..
क्या करें मारवाड़ी :
शिवसागर जैसी घटना की पुनरावृत्ति न हो, या फिर इस तरह की घटना के दोहराव का अंदेशा हो तो समाज और सामाजिक संगठनों को क्या करना चाहिए, इस विषय पर गंभीर चिंतन की जरूरत है. यह तो तय है कि शिवसागर में 12 अगस्त के बाद जो हुआ वह कोई एकाकी घटना नहीं है. यह बात इसके घटने के बाद राज्य भर में शुरू हो गए मारवाड़ियों को कोसने (Marwari bashing) के मामलों से स्वयं सिद्ध हो जाती है. दरअसल शिवसागर की घटना ऊपरी असम के जिलों में तेजी से पनप रहे एक खास तरह के विचार का विस्तार है. यह एक खास तरह का प्रतिक्रियावादी क्षेत्रीयतावाद है. यह क्षेत्रीयतावाद की रूढ एवं किताबी परिभाषा से थोड़ा हटकर है. बहरहाल, इस विषय को मारवाड़ी संदर्भों से जोड़कर देखना उपयुक्त होगा. यह उघड़ी हुई सच्चाई है कि मारवाड़ी असम में एक अति सूक्ष्म अल्पसंख्यक (microscopic minority) समुदाय है. पर यहां मारवाड़ियों की स्टेक उनकी जनसंख्या के अनुपात में कहीं अधिक है. राज्य के संसाधनों के एक बड़े हिस्से पर उनका अधिकार है. यहां यह बात दीगर है कि यह अधिकार मारवाड़ियों ने अपने पुरुषार्थ से हासिल किया है. पर यहां के जल-जंगल-जमीन पर मूल निवासियों के अधिकारों की वकालत करने वालों को यह स्थिति पसंद नहीं है. वे यहां के संसाधनों एवं अवसरों पर मूल निवासियों का एकाधिकार चाहते हैं. राज्य में आमतौर पर बहिरागत माने जाने वाले मारवाड़ियों की आर्थिक स्थिति और उसे लेकर एक समूह विशेष की सोच एक फॉल्ट लाइन को जन्म देती है, जो कालक्रम में शिवसागर जैसी घटनाओं का कारण बनती है.
ऐसे में इस तरह की घटना की स्थिति से निपटने के लिए मारवाड़ी समाज को अल्पकालिक और दीर्घकालिक सोच के साथ दो स्तरों पर काम करना होगा. पहले बात अल्पकालिक उपायों की.
अल्पकालिक उपाय :
सर्वविदित है कि कतिपय कारणों से असमिया जाति पहचान के संकट से जूझ रही है. निचले असम की जनसांख्यिकी पूरी तरह बदल चुकी है और ऊपरी असम के लोग भी बाहरी लोगों की बढ़ती जनसंख्या का दबाव महसूस करने लगे हैं. परिदृश्य ऐसा है कि असमिया अपनी ही जमीन पर अल्पसंख्यक होने के कगार पर खड़े हैं. इस स्थिति से बचने के लिए वे सारे राज्य में अपने लिए एक संरक्षणवादी व्यवस्था चाहते हैं. वे अपने लिए साल 1985 में हुए असम समझौते की धारा 6 के अनुसार संवैधानिक सुरक्षा कवच चाहते हैं. यह एक ऐसा मेकैनिज्म होगा जो उनकी आबादी, उनकी संस्कृति और उनकी भाषा को सुरक्षित रखेगा. असम के मारवाड़ियों को उनकी इस मनःस्थिति को समझना चाहिए. उन्हें असमिया लोगों की जायज मांगों का खुलकर समर्थन करना चाहिए. आखिर राज्य का मारवाड़ी भी यह कभी नहीं चाहेगा कि भविष्य में दिसपुर के तख्त पर कोई ऐसा व्यक्ति काबिज हो, जो या जिसके पूर्वज कभी वैध या अवैध रूप से सीमा लांघ कर राज्य में घुसे थे.
असमिया जाति की मांगों के समर्थन में एक तर्क और दिया जा सकता है. उसके अनुसार अगर कोई जाति या नस्लीय समूह अपनी ही सरजमीं पर अल्पसंख्यक हो जाता है, तो इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि वहां के जल, जंगल और जमीन पर उसका पहला हक खत्म हो गया है. सनद रहे की चार्ल्स डार्विन का योग्यतम की उत्तरजीविता (survival of the fittest) का सिद्धांत संसार के तमाम जीवों और वनस्पतियों पर तो सटीक बैठता है, पर सभ्य सामाजिक जीव के रूप में विकसित मानव एक हद तक स्वयं से इस सिद्धांत से अलग करने की कोशिश करता है. असम के मूल निवासियों का मामला भी कुछ इसी तरह का है. मारवाड़ियों को इस बात को समझना होगा.
असम के मारवाड़ियों का यहां की सभ्यता, संस्कृति और भाषा के प्रति हमेशा श्रद्धा भाव रहा है. ऐतिहासिक असम आंदोलन हो या फिर हालिया नागरिकता कानून संशोधन (CAA) विरोधी आंदोलन, असम के मारवाड़ी हमेशा यहां के मूल निवासियों के साथ खड़े रहे हैं. आज की परिस्थितियों में मारवाड़ियों को असमिया सरोकारों के समर्थन में कहीं अधिक मुखर होना होगा. असम के जातीय एवं क्षेत्रीयतावादी संगठनों की अधिकांश मांगे व्यवहारिक हैं. भूमि अधिकार व असमिया भाषा जैसे मुद्दों पर मारवाड़ियों को असमिया जाति के पक्ष में सुनाई पड़ने लायक आवाज उठानी होगी. मारवाड़ी समाज के प्रतिनिधि संगठन इसका जरिया बन सकते हैं.
पिछले दो-तीन दशकों में असम के मारवाड़ियों के बीच एक प्रभु वर्ग का उदय हुआ है. यह वे लोग हैं जिनके पास बड़ी मात्रा में आवारा पूंजी है. असम में व्यावसायिक लाभ के लिए बड़े पैमाने पर जमीन की खरीद- फरोख्त ये आवारा पूंजी वाले लोग ही करते हैं. इनकी आबादी राज्य की कुल मारवाड़ी आबादी के दो फीसदी से अधिक नहीं है. 98 फीसदी मारवाड़ी आबादी तो ताउम्र अपने लिए एक घर या एक फ्लैट होने के सपने के साथ जीती है और उनमें से भी ज्यादातर इस अधूरे सपने को लिए ही दुनिया से रुखसत हो जाते हैं. ऐसे में इन दो फीसदी लोगों के लिए 98 फीसदी मारवाड़ियों को उलाहना सुनने की कोई जरूरत नहीं है. मारवाड़ी संगठनों को उपरोक्त तथ्य से स्थानीय लोगों के संगठनों को अवगत करवा देना चाहिए. मजे की बात यह है कि प्रभु वर्ग के जिन चंद लोगों की कारस्तानियों का खामियाजा समूचे मारवाड़ी समाज को भुगतना पड़ता है, वे अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति जरा भी संवेदनशील नहीं है. जब भी समाज पर कोई आपदा या विपत्ति आती है तो ये लोग कन्नी काट कर अंतर्ध्यान हो जाते हैं.
शिवसागर प्रकरण के बाद जिस तरह राज्य के एक के बाद एक स्थान से मारवाड़ियों की सभा- संस्थाओं पर मूल निवासियों द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के समाचार मिल रहे हैं, उनसे इनके औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगने के साथ इनके द्वारा कथित रूप से स्थानीय लोगों के लिए किए जा रहे जन सेवा कार्यों की कलई भी खुल गई है. इन घटनाक्रमों से ऐसा प्रतीत होता है कि मारवाड़ी सभा-संस्थाओं के बारे में स्थानीय लोगों में गलत अवधारणाएं घर करने लगी हैं, यह आदर्श स्थिति नहीं है. वहीं अब यह बात जग जाहिर हो गई है कि मारवाड़ी संस्थाओं द्वारा किए जा रहे सेवा कार्यों का लाभ लक्षित व्यक्तियों या समूह तक नहीं पहुंच रहा हैं. मारवाड़ी सभा-संस्थाओं के सेवा कार्य हिंदी अखबारों के तीसरे और चौथे पन्नों पर फोटो सहित समाचार छपवाने का माध्यम भर बन कर रह गए हैं. दूसरे, पिछले लगभग 30 वर्षों में मारवाड़ियों ने असम में कहीं भी स्थायी चरित्र का कोई सेवा प्रकल्प नहीं लगाया है. अतीत में स्कूल, कॉलेज, नामघर (कीर्तनघर) या फिर सार्वजनिक चरित्र के भवन बनाने वाला समाज सड़कों के किनारे खिचड़ी बांटने और बेतुके धार्मिक आयोजनों तक सीमित होकर रह गया है. तीसरे, अपनी प्रवास भूमि की चुनौतियों का सामना करने के लिए संगठित होने के बजाय मारवाड़ी अग्रवाल, जैन, ओसवाल, माहेश्वरी, ब्राह्मण और विभिन्न अन्य जाति-उपजातियां में बंट गए. राजस्थान के शहरों और कस्बों तक के नाम पर उन्होंने संस्थाएं बना ली और अपनी-अपनी डफली पर अपना-अपना राग छेड़ने लगे. यह सब करते उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि असम जैसी जगह पर उनकी सामूहिक पहचान केवल और केवल मारवाड़ी है. इस सामाजिक विखंडन का एक बड़ा नुकसान यह भी हुआ कि इससे मारवाड़ियों के संसाधन और उनकी ऊर्जा बंट गई. चौथे, लायंस क्लब और इस चरित्र की अन्य विदेशी एनजीओ ने भी मारवाड़ियों के सेवा के लिए उपलब्ध संसाधनों में बड़े पैमाने पर सेंधमारी की है. मारवाड़ियों के संसाधन और उनकी ऊर्जा इस तरह बिखर गई कि लाभार्थियों को समझ ही नहीं आया कि उनका दाता कोई मारवाड़ी है. इस बात को इस तथ्य से समझा जाना चाहिए कि अल्फा उग्रवाद के भयावह दौर में भी कभी मारवाड़ी सभा-संस्थाओं पर प्रतिबंध की बात नहीं उठी थी. पर आज उठ रही है. लिहाजा वक्त की मांग है कि मारवाड़ी सभा-संस्थाएं जन सेवा के अपने मॉडल पर पुनर्विचार करें. अपने जन सेवा कार्यों के समाचार हिंदी के अलावा स्थानीय भाषाओं के समाचार पत्रों एवं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी देने की कोशिश करें. पर इसके पहले एक समाज के रूप में मारवाड़ियों को जन सेवा का वास्तविक अर्थ
समझकर उसका लाभ लक्षित लाभार्थी तक पहुंचाने की
कोशिश करनी होगी. छिछली और नाम के साथ फोटो छपवाने के लिए की गई कथित जन सेवा बदनामी का ही कारण बनेगी.
शिवसागर प्रकरण में अल्फा के परेश बरुआ गुट की एंट्री को अलग एंगल से देखने की जरूरत है. उल्लेखनीय है कि इस घटना के बाद सत्ताधारी पार्टी से संबंधित एक मारवाड़ी पॉलीटिकल एक्टिविस्ट ने सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने और वैमनस्य फैलाने का आरोप लगाते हुए वीर लाचित सेना के प्रमुख श्रृंखल चालिहा के खिलाफ गुवाहाटी में एक मामला दर्ज किया था, जिस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अल्फा ने उक्त राजनीतिक कार्यकर्ता को अपनी एफआईआर वापस लेने की धमकी दी थी. गौरतलब है कि परेश बरुआ को छोड़ अल्फा के सभी बड़े नेता केंद्र सरकार के साथ बातचीत का समर्थन कर मुख्यधारा में आ गए हैं. अल्फा की अलगाववादी विचारधारा के प्रति असम के लोगों का आकर्षण अब नहीं रह गया है. ऐसे में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए आजादी के त्यौहार यानी 15 अगस्त को राज्य में जगह-जगह नहीं फटने वाले बम रखकर या फिर शिवसागर जैसी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया देकर अल्फा का परेश बरुआ गुट अपने को प्रासंगिक बनाए रखने की कोशिश करता दिख रहा है. इस काम में लगता है कि राज्य सरकार का परोक्ष समर्थन भी उक्त गुट को हासिल है. लगता है राज्य सरकार परेश बरुआ को मुख्य धारा में आने के लिए सम्मानजनक रास्ता मुहैया कराने के मूड में है.
शिवसागर प्रकरण के बाद मारवाड़ी समाज और उसका नेतृत्व पूरी तरह असमंजस की स्थिति में नजर आया. इतनी बड़ी घटना घट गई पर किसी को तत्काल कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए. ऐसे में मारवाड़ी समाज के बौद्धिक क्षमता वाले लोगों को लेकर उसके प्रतिनिधि संगठन राज्य स्तर पर त्वरित प्रतिक्रिया दल (quick response team) बना सकते हैं. यह टीम किसी भी आपातकालीन स्थिति के समय समाज को नेतृत्व दे सकती है. इसके अलावा मारवाड़ी संगठनों को राज्य भर में फैली अपनी शाखाओं के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया या मानक आचरण प्रक्रिया (standard operating procedure) तैयार करनी चाहिए. इसमें शाखाओं को शिवसागर या उस जैसी दूसरी चुनौतियों से निपटने के उपायों के बारे में विस्तार से बताया जा सकता है.
असमिया जाति का एक बड़ा वर्ग, जो विचारों में उदारवादी है, शिवसागर प्रकरण को अपने ही कुछ प्रतिक्रियावादी लोगों की कारस्तानी मानता है. ऐसे लोगों को चिन्हित कर मारवाड़ियों को उनके सामने अपना पक्ष रखना चाहिए. इसके अलावा असमिया जाति के ओपिनियन मेकर्स के साथ बौद्धिक स्तर पर संवाद स्थापित कर रिश्ते मजबूत किए जा सकते हैं.
पिछले एक अरसे से मारवाड़ी समाज के युवाओं के संगठन में नेतृत्व के स्तर पर शुरू हुआ घमासान अब कार्यकर्ताओं तक पहुंचने लगा है. छन कर आ रही सूचनाओं की मानें तो संस्था में विभाजन (vertical split) तक की नौबत आ गई है. वक्त का तकाजा है कि मारवाड़ी युवाओं का संगठन अपने मतभेदों और मनभेदों को भुलाकर प्रवास की चुनौतियों का एकजुट होकर सामना करें.
लंबी अवधि के उपाय :
देश के अन्य भागों की तरह असम में भी मारवाड़ी विरोध अपने आप में एक विचार है. संसाधनों की लूट और अवसरों पर बेजा कब्जे की शिकायत कर मारवाड़ी को यहां भी खलनायक चित्रित किया जाता है. इनके अलावा इस जाति के बारे में और भी कई स्टीरियोटाइप अवधारणाएं हैं. इन गलत और भ्रामक आरोपों का सटीक जवाब और तर्कसंगत खंडन मारवाड़ियों की सही परिप्रेक्ष्य में ब्रांडिंग के द्वारा ही संभव है. मारवाड़ियों के पास जितने संसाधन, क्षमता और प्रचार उपकरण मौजूद हैं, उनके जरिए वह आसानी से अपनी ब्रांडिंग कर सकता है. पर यह भी उनके लिए जरूरी काम है, यह संभवतः मारवाड़ी ने कभी सोचा ही नहीं. बहरहाल, मारवाड़ियों की सभा-संस्थाएं इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं. इसके लिए उन्हें अपने समाज की ब्रांडिंग को अपने एजेंडे में वरीयता देनी होगी. उल्लेखनीय कि देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के साथ हिंदू धर्म-संस्कृति के उत्थान में मारवाड़ियों का अतुलनीय योगदान है. पर उसका सही तरीके से आज तक मूल्यांकन नहीं हुआ है. इसीलिए मारवाड़ी देश के सबसे कम आंके और गलत समझे गए (under rated and misunderstood) लोग हैं. मारवाड़ियों के सामाजिक नेतृत्व को समझना होगा कि राष्ट्र निर्माण में उनके समाज की भूमिका के मूल्यांकन का काम इतिहास के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. शिवसागर प्रकरण के बहाने ही सही उन्हें मारवाड़ी जाति की ब्रांडिंग विषय को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करना चाहिए. ब्रांडिंग का बीड़ा उठाने के पहले मारवाड़ी समाज के नेतृत्व को समझना होगा कि यह काम एक-दो किताबों के प्रकाशन या दो चार सेमिनारों के आयोजन से संभव नहीं है. यह काम दीर्घकालीन योजना के तहत होगा. यह धीमी आंच का उपक्रम है.
असम में प्रवासी मारवाड़ियों ने यहां के लोगों की सदाशयता हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर जन सेवा के काम किए हैं. पर समाज अपने कामों की सही तरीके से मार्केटिंग नहीं कर
पाया. आज की तारीख में मारवाड़ियों के द्वारा किए जा रहे सेवा कार्य तदर्थ आधार पर और उद्देश्यहीन होते हैं. इनसे न तो मारवाड़ी समाज को कोई लाभ होता है और न हीं इनका फायदा लक्षित लाभार्थियों को मिल पाता है. आदर्श स्थिति यह होगी कि मारवाड़ी समाज सेवा के लिए अलग किए गए अपने संसाधनों का प्रयोग स्थायी चरित्र के प्रकल्पों में करें. उदाहरण के लिए असम के विभिन्न मेडिकल कॉलेज के बाहर मारवाड़ी समाज न्यूनतम मूल्य पर लोगों को शुद्ध सात्विक भोजन उपलब्ध करा सकता है. इस चरित्र के प्रकल्प असम जैसे राज्य में मारवाड़ियों के लिए सामाजिक सुरक्षा की गारंटी बन सकते हैं.
असम के लोग अपनी भाषा को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं. आमतौर पर उनकी शिकायत होती है कि असम में सैकड़ो वर्षों से रहने का दावा करने वाले मारवाड़ी शुद्ध उच्चारण के साथ असमिया भाषा नहीं बोल सकते हैं. समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है! पूर्वी भारत की ही बात करें तो उड़ीसा के मारवाड़ी धाराप्रवाह उड़िया बोलते हैं. बंगाल के मारवाड़ियों की बांग्ला सुनकर पता ही नहीं चलता कि कोई गैर बंगाली बोल रहा है. इसी प्रकार बिहार के मारवाड़ियों का लहजा भी ठेठ बिहारी होता है. पर असम में असमिया भाषा के मामले में उनसे कहां और क्यों चूक रह गई, यह एक शोध का विषय हो सकता है. ऐसा भी नहीं है कि असमिया साहित्य में मारवाड़ियों का कम योगदान है. आज भी कई ऐसे मारवाड़ी लेखक हैं जो लगातार अपनी रचनाओं से असमिया भाषा और संस्कृति को समृद्ध कर रहे हैं. पर एक आम मारवाड़ी अभी भी असमिया भाषा के प्रति बेरुखी का भाव रखता है. जब स्थानीय निवासी अपनी भाषा जानने वालों का बाहें फैला कर स्वागत- अभिनंदन करते हैं, तो फिर मारवाड़ी एक समाज के रूप में इस अवसर का लाभ क्यों नहीं उठाते. मारवाड़ियों को असमिया भाषा बोलने-लिखने को एक मिशन की तरह लेना होगा. केंद्रीय बोर्ड के स्कूलों में तीसरी भाषा के रूप में असमिया का विकल्प है. अपने बच्चों को उन्हें इस विकल्प का लाभ लेने के लिए प्रेरित करना होगा. ऐसा करने से असमिया और मारवाड़ी समाज के बीच समन्वय की डोर और मजबूत होगी.
मारवाड़ियों को स्थानीय लोगों के साथ समन्वय और समरसता के भावों को और शिद्दत के साथ पुष्ट करना होगा. पिछले कुछ वर्षों में इस काम में ढिलाई आई है. जहां तक मारवाड़ी समाज की सभा-संस्थाओं का सवाल है तो वह अपने सेवा प्रकल्पों में स्थानीय लोगों के संगठनों को साझेदार बना सकते हैं. यह एक पंथ दो काज वाली स्थिति होगी. इससे एक और सेवा का लाभ लक्षित लाभार्थियों को मिलेगा वहीं दूसरी ओर सामाजिक समरसता भी मजबूत होगी.
अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम जातीयतावादी युवा छात्र परिषद (अजायुछाप) के अलावा अन्य जातीयतावादी क्षेत्रीयतावादी संगठनों के साथ मारवाड़ियों को संवाद कायम करना होगा. इन संगठनों के साथ संयुक्त रूप से सेवा प्रकल्प कर इस काम की शुरुआत की जा सकती है. मारवाड़ी समाज द्वारा असम में बड़े पैमाने पर रक्तदान किया जा रहा है. छोटे शहरों और कस्बों में मारवाड़ियों की सभा-संस्थाएं अपने रक्तदान शिविर स्थानीय संगठनों के साथ मिलकर आयोजित कर सकते हैं. इससे मेल-मिलाप और आपसी संवाद बढ़ेगा जो मारवाड़ियों की सामाजिक सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी है.
प्रवासी मारवाड़ियों में राजनीतिक जागरूकता की काफी कमी है. इसके तीन मूल कारण नजर आते हैं. पहला, मारवाड़ी आमतौर पर अपने धंधे में मशगूल रहने वाले लोग हैं. उनके लिए जीवन में सफलता का एकमात्र पैमाना आर्थिक समृद्धि है. दूसरा, व्यापार-वाणिज्य के बाद मारवाड़ियों के पास जो समय बचता है, उसे वे धार्मिक गतिविधियों में लगा देते हैं. धर्म के नाम पर नाना प्रकार के आयोजन ही उनकी संस्कृति बन गई है. यही उनके मनोरंजन का साधन है. और तो और वे अपनी हैसियत का प्रदर्शन भी धार्मिक आयोजनों के जरिए करते हैं. इससे उनकी नैसर्गिक रचनात्मकता प्रभावित होती है. राजनीतिक चेतना भी उसमें से एक है. तीसरा, हिंदू-हिंदी-हिंदुस्तान की विचारधारा के प्रति अति आग्रह ने उनकी राजनीतिक समझ को एकदम कुंद कर दिया है. यह नारा अपने आप में एक खास तरह का मिथ्याभास है जो मारवाड़ियों के जीवन में बुरी तरह घर कर चुका है. इसके चलते वे प्रवास की चुनौतियों को भूलकर एक अलग ही काल्पनिक लोक में विचरण करते हैं . मारवाड़ियों को यह समझना होगा कि प्रवास भूमि में जो उनकी सुरक्षा और सामाजिक सम्मान को सुनिश्चित करेगा, वही उनका सगा है. चाहे वह किसी भी राजनीतिक विचारधारा का हो.
समाज पर आपदा के समय मारवाड़ियों का सामाजिक व्यवहार सिद्ध करता है कि वे रणनीतिक और राजनीतिक रूप से बेहद अपरिपक्व है. यह बात शिवसागर प्रकरण के बाद और भी साफ हो गई है. मारवाड़ी समाज को अपनी प्रवास भूमि की वास्तविकताओं को समझकर उनके अनुसार आचरण करना होगा. अपनी सुरक्षा और सामाजिक सम्मान को उन्हें प्राथमिकता देनी होगी. जरूरत पड़ने पर इसके लिए उन्हें अपने हिंदू, हिंदी और हिंदुस्तान वाले पूर्वाग्रह को त्यागना भी पड़ सकता है. इस वैचारिक प्रेतबाधा से मुक्ति यथार्थवादी राजनीतिक चेतना से ही संभव है. अगर मारवाड़ी इस दिशा में चिंतन नहीं करते हैं तो इस विचार को बल मिलेगा कि व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में विश्व भर में खिलाड़ी माने जाने वाले मारवाड़ी राजनीतिक रूप से नितांत अनाड़ी होते हैं.
अना असमिया (गैर असमिया) और बहिरागत जैसे शब्दों को लेकर असम के मारवाड़ियों के बीच काफी गलतफहमियां हैं. स्थानीय मीडिया ने इन शब्दों का प्रयोग हमेशा नकारात्मक संदर्भों में किया है. कालांतर में ये अपमानजनक और गाली का पर्याय बन गए. अना असमिया या बहिरागत पुकारे जाने पर दुःखी होने या उत्तेजित प्रतिक्रिया देने से पहले इन शब्दों का अर्थ जान लेना जरूरी है. उल्लेखनीय है कि असम में चार श्रेणी के लोग निवास करते हैं. ये श्रेणियां आदिवासी (aboriginals), मूल निवासी (originals), बहिरागत (outsiders) एवं विदेशी (foreigners) हैं. इनमें आदिवासियों और मूल निवासियों को स्थानीय भाषा में खिलंजिया कहा जाता है. मारवाड़ी बहिरागत की श्रेणी में आते हैं. ज्योति प्रसाद अगरवाला जैसे कुछ मारवाड़ी परिवारों ने पीढ़ी दर पीढ़ी खिलंजिया लोगों के साथ वैवाहिक संबंध बनाकर अपने आप को मूल निवासियों की श्रेणी में शामिल कर लिया है. उत्तरी असम के लखीमपुर और धेमाजी जिले के मिरी अगरवाल भी कुछ इसी तरह के लोग हैं. पर बहुसंख्यक मारवाड़ी वर्षों से असम में रहने के बाद भी बहिरागत या गैर असमिया (अना असमिया) ही हैं. वे असम और असमिया संस्कृति का सम्मान करते हैं, पर उनकी अपनी एक अलग विशिष्ट संस्कृति, विशिष्ट मूल्य, भाषा, खान-पान की आदतें और यहां तक की अलग देवी-देवता भी हैं. उत्तर भारत में कहावत है कि खाना और गाना एक होने से ही दो संस्कृतियों एक हो सकती हैं. असमिया और मारवाड़ियों का खाना-गाना अलग है. लिहाजा असमिया और मारवाड़ी संस्कृतियों में समन्वय और समरसता तो हो सकती है, पर एकरसता फिलहाल संभव नहीं दिखती. ऐसे में बहिरागत या अना असमिया कहे जाने से मारवाड़ियों को दुखी होने की जरूरत नहीं है. अपने सांस्कृतिक अधिष्ठानों पर कायम रहकर भी असमिया भाषा व संस्कृति को आदर दिया जा सकता है. ऐसा करके मारवाड़ी असम के अच्छे शहरी कहला सकते हैं. ध्यान रहे कि एकरसता एक लंबी अवधि की प्रक्रिया है. असम के मारवाड़ी, खासतौर पर वे जिनका अब अपनी मूल भूमि से कोई नाता नहीं रह गया है, चाहे तो एकरसता के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं. उत्तरी असम के मिरी अगरवालों का उदाहरण उनके सामने है ही. इस विषय पर अपनी स्थिति मारवाड़ी एक अन्य तरीके से भी स्पष्ट कर सकते हैं. तर्क की खातिर वे कह सकते हैं कि अगर असमिया एक जाति (caste) है, तो वे इस अर्थ में असमिया नहीं भी हो सकते हैं. पर अगर असमिया एक जातीयता (nationality) है तो वे भी असमिया जातीयता के अभिन्न अंग हैं.
मारवाड़ियों के बारे में अन्य जातियों के बीच एक अवधारणा है कि वे परले दर्जे के कंजूस होते हैं. यह अवधारणा कितनी गलत और भ्रामक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कई दशकों से मारवाड़ियों का सामाजिक विमर्श आडंबर और फिजूल खर्ची को रोकने पर केंद्रित है. शादी-विवाह सहित अन्य मांगलिक सामाजिक आयोजनों के अलावा मृत्यु भोज तथा धर्म के नाम पर ऊलजलूल कार्यक्रमों पर समाज बेतहाशा पैसा खर्च कर रहा है. दिखावे की इस प्रवृत्ति ने मारवाड़ी समाज को एक ऐसी अंधी गली में धकेल दिया है जिसका दूसरा छोर कहीं नजर नहीं आ रहा है. मारवाड़ियों द्वारा अपनी आर्थिक समृद्धि का प्रदर्शन स्थानीय लोगों की आंखों को चुभता है. उनमें यह धारणा बलवती होती है कि मारवाड़ी उनके संसाधनों को लूटकर मजे कर रहे हैं. इस तरह की सोच का विकसित होना अपनी प्रवास भूमि में मारवाड़ियों के लिए आदर्श स्थिति नहीं है. कालक्रम में इससे उनकी सामाजिक सुरक्षा खतरे में पड़ती है. समाज में आडंबर और दिखावे की सुरसा के मुंह की तरह फैलती जा रही प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए मारवाड़ी सामाजिक संस्थाओं को बड़ा एवं व्यापक अभियान चलाना होगा.
किसी भी प्रकार की बौद्धिकता से मारवाड़ी समाज चिढ़ता है. बुद्धिजीवियों की बातें उन्हें नहीं सुहाती. इसका कारण यह है कि उनकी लीक से हटकर स्थापनाएं मारवाड़ियों को अपने वैचारिक कंफर्ट जोन से बाहर निकलने को मजबूर करती है. नतीजतन बुद्धिजीवी प्रजाति के लोग इस समाज में कम ही दिखते हैं. जो एकाध हैं वे चुपचाप तमाशबीन बने रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं. इस स्थिति का बड़ा खामियाजा समाज को भुगतना पड़ रहा है. पिछले दिनों हुए शिवसागर प्रकरण में समाज में बौद्धिक नेतृत्व की कमी शिद्दत से महसूस की गई. ऐसे में मारवाड़ी समाज के सभा-संगठनों को चाहिए कि सादिया से धुबड़ी तक बौद्धिक क्षमता वाले मारवाड़ियों की शिनाख्त कर समाज में एक बौद्धिक नेतृत्व विकसित करें.
शिवसागर और मारवाड़ी सभा-संस्थाएं :
शिवसागर की घटना के बाद सोशल मीडिया के बयानवीर काफी सक्रिय नजर आए. उन्होंने इस घटनाक्रम पर कुछ नहीं करने का आरोप मढ़ते हुए हुए मारवाड़ी समाज के संगठनों के नेतृत्व को जी भर के कोसा. उनका मानना है कि संकट की इस घड़ी में समाज के प्रतिनिधि संगठनों के नेता नेतृत्व देने में नाकामयाब रहे. समाज के नेताओं से सवाल पूछना लाजमी है. पर बगैर तथ्यों की पड़ताल के दोषारोपण करना कम से कम ऐसे चुनौती पूर्ण समय में सही नहीं कहा जा सकता. उल्लेखनीय है कि मारवाड़ी समाज का नेतृत्व करने वाले कोई दूसरे ग्रह के प्राणी यानी एलियन नहीं है. वे मारवाड़ी समाज के ही लोग हैं और समाज की सामूहिक सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं. हो सकता है कि शिवसागर की घटना से उपजी चुनौतियों की गहराई और गंभीरता को समझने में उनसे कुछ चूक हुई हो, पर यह कहना कि संकट की इस घड़ी में वे चुपचाप बैठे थे, सही नहीं होगा. नेतृत्व की अपनी कुछ मजबूरियां भी होती हैं. इस तरह के मौके पर किए गए सभी कार्य कलापों को पब्लिक डोमेन में लाना यानी सार्वजनिक करना उसके लिए संभव नहीं होता है. यह रणनीति के हिसाब से भी उचित नहीं जान पड़ता. इसका मतलब यह भी नहीं की नेतृत्व के ऊपर पैनी नजर नहीं रखी जानी चाहिए. बिल्कुल उन्हें कसौटी पर कसा जाना चाहिए, पर तथ्यों और तर्कों के आधार पर. किसी मुद्दे विशेष पर सैद्धांतिक मतभेद होने की स्थिति में उनकी आलोचना भी की जानी चाहिए, पर वह सकारात्मक, मुद्दा आधारित एवं पूर्वाग्रह रहित होनी चाहिए. अगर उनसे बात बनती नहीं लगती है तो बदलाव का विकल्प तो हमेशा खुला है. यहां एक अच्छी बात यह भी है कि मारवाड़ी समाज के प्रतिनिधि संगठन कहलाने वाले मारवाड़ी युवा मंच और मारवाड़ी सम्मेलन में तृणमूल स्तर से लेकर एकदम ऊपर तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाई जाती है. समय पर निष्पक्ष चुनाव होते हैं. अगर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को मौजूदा नेतृत्व से परेशानी है तो वे खुद इन संगठनों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का लाभ उठाकर नेतृत्व की बागडोर संभाल सकते हैं. उन्हें कोई नहीं रोकेगा. पर किनारे पर बैठकर तूफानों से जूझते लोगों को ज्ञान देना, उन पर सतही टिप्पणियां करना अच्छी बात नहीं है.