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अनहद बाजत नाद ! बुलावा आया है– आनंद शास्त्री

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अब हम अनहद नाद पर आगे चर्चा करते हैं ! हमने आप सभी को बताया है कि जैसे एक पेटी में दूसरी,दूसरी के भीतर तीसरी, तीसरी के भीतर चौथी और उसके भी भीतर पाँचवी पेटी होती है जिसमें अनमोल रत्न होते हैं ! बिलकुल उसी प्रकार स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर -उसके भीतर कारण ! कारण शरीर के भीतर महाकारण शरीर और उसके भी अंदर -“सूक्ष्मतम्” से भी अतीत-“कैवल्य” होता है ! यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्थूल में कंपन होता है ! अर्थात स्थूल शरीर और कंपन बिलकुल ही पृथक-पृथक हैं ! यह कंपन शरीर के भीतर कुछ है जिससे होता है ! और वह कुछ जो-“है” उसके निकलते ही शरीर कंपन रहित हो जाता है ! अर्थात वह कंपन ही कुछ विशेष है।
मित्रों ! कंपन के -“स्पन्दन,गति,उर्जा,अग्नि,प्रकाश,वाइब्रेट, फायर, सूर्य,चन्द्र,नक्षत्र से निकलता प्रकाश ” जैसे हजारों हजार नाम हैं ! हो सकता है कि इनमें से भी कुछेक एक-दूसरे के सोपान हों ! किन्तु ये निश्चित है कि यह सभी कंपन हैं ! अभी इसके भी आगे हमें समझ्ना होगा ! अर्थात कंपन ही अग्नि है ! अर्थात कंपन ही वह-“अखण्ड जोति” है जो इस अपने-आप को प्राप्त शरीर के द्वारा नाना प्रकार के -“शब्द,रूप,रस,गन्ध और स्पर्शों” के द्वारा अन्नादि का सेवन कर सभी विषयों को इन्द्रियों के द्वारा भोगता है ! अर्थात वह इस शरीर के द्वारा प्रकृति एवं शरीर का भी शोषण करते हुवे -“कंपन “करता रहता है।
ये अग्नि स्वरूप जो कंपन है यही वह ज्योति है जो निरन्तर शरीर रूपी इंधन को जलाते हुवे अपनी-“शक्ति से और शक्ति” की वृद्धि करती रहती है ! इसका एक उदाहरण आपको देना आवश्यक समझता हूँ कि आप जैसा अन्न खाते हैं ! उससे वैसा ही रस,रक्त, माँस,मज्जा,चर्म,वीर्य,रज, अस्थि,कफ,लार,मल,मूत्र बनता है और निर्धारित अवधि में निष्कासित होता रहता है।और इसी से आप देखें इसी शरीर मे हजारों हजार प्रकार के अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के करोड़ों अरबों-खरबों कीटाणु होते हैं ! जो इसी शरीर में जन्मते-पोषण प्राप्त कर मरते रहते हैं ! इनमें अच्छे कीटाणुओं के बढने से शरीर स्वस्थ और बुरे कीटाणुओं के बढने से शरीर अस्वस्थ होता रहता है !
मित्रों ! इसीलिए कहते हैं कि-
“अन्नाद् भवन्ति भूतानी पर्जन्यादन्न सम्भवः।
यज्ञाद् भवन्ति पर्जन्या यज्ञ कर्म समुद्भवः॥
कर्म ब्रम्होभवेद्वृद्धिः ब्रम्हाक्षरः समुद्भवः।
तस्मात सर्व गतं ब्रम्ह नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठित॥”
अर्थात आप ध्यान रखना कि-“जैसा अन्न वैसा कर्म” पाप से आये धन से बने स्वादिष्ट और पौष्टिक आहार भी बुद्धि को भ्रष्ट कर देते हैं अर्थात -“पापी का अन्न खाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है” आप ये भी ध्यान रखना कि सात्विक,शुद्धता से बना हुवा, भलीभांति पात्रों को धोकर बनाया हुवा,भगवान का प्रसाद समझकर बिना चखे ध्यान से पवित्रता पूर्वक यथासम्भव स्नान करके धुले वस्त्र पहनकर बनाया हुवा-“पक्वान्न” थोडा सा ही खा लेने से शरीर और इन्द्रियों को तृप्ति मिल जाती है किन्तु इसके विपरीत बना पकवान व्याधियों और पाप का कर्ता धर्ता बनाता है।इसी हेतु कहते हैं कि-“अन्न और जल जीवन है” किन्तु ये नहीं भूलना चाहिए कि-“अन्न और जल मृत्यु के महाकारण भी हैं ! स्वर्ग,नर्क,कीट,पतंगा,पशु,पक्षी, एवं  मनुष्यादि शरीर प्राप्त करने में हेतु है ! आप स्वयं देखें कि श्रुति यह भी कहती है कि-
“द्वयक्षरस् तु भवेत् क्षरः, त्रयक्षरमं ब्रम्ह शाश्वतम् ।
‘मम’ इति च भवेत् मॄत्युः, नमम इति च शाश्वतम्॥
अर्थात क्षरः यह दो अक्षरों का शब्द है तथा ब्रम्ह शाश्वत है वह तीन अक्षरोंका है। “मम’ यह भी क्षरः के समान दो अक्षरोंका शब्द है तथा-“नमम” यह शाश्वत ब्रम्ह की तरह तीन अक्षरोंका शब्द है ! इस रहस्य को जिसने जान लिया वही महात्मा है और जो नहीं जानते वे अंधकार में अंधकार को ही ढूंढते फिरते हैं ।
बच्चों ! कंपन ही अग्निर्देवता हैं ! यह सतत् धधकते रहते हैं ! हजारों हजार योनि ! लाखों लाखों-करोड़ों शरीर रूपी इंधन को जलाकर भी यह देवता तृप्त नहीं होते ! इनका भौतिकीय स्वरूप ऊपर की ओर  स्थिर-“अखण्ड ज्योति” है ! यह जलती ही रहती है-
“उलटा कूँवां गगन में जिसमें जरत चिराग,
जिसमें जरत चिराग बिना रोगन बिन बाती।
छह ॠतु बारह मास रहत जरतै दिन राती।
पलटू जो कोई जुवै ताको पूरे भाग।
उलटा कूँवां गगन में जिसमें जरत चिराग॥”
“प्यारे बच्चों ! सम्पूर्ण शरीर की उर्जा का केन्द्र ललाट के ठीक नीचे अर्थात-“धगद् धगद् धगद् ज्वल ललाट पट्ट पावके,किशोर चन्द्र शेखरे रतीप्रतिर्क्षणमम्॥” यह उर्जा का केन्द्र है एवं इस उर्जा के निष्कासित होने के अंतिम दो स्थान है-“अधोगमनार्थ-जननांग एवं उर्ध्व-गमनार्थ सहस्रार” अर्थात ललाट के ठीक नीचे वह ज्योति है जिसके दर्शन के लिये हमलोग व्याकुल हैं।
अब ये तो निश्चित है कि जहाँ कंपन होगा ।जहाँ अग्निर्देवता होंगे वहाँ चिंगारियों की चटचटाहत से बार-बार अंधकार के बीच प्रकाश बिलकुल उसी प्रकार लपलपाता है जैसे उदाहरण स्वरूप आपके घर की एलईडी खराब होने के पूर्व बार-बार जलती-बुझती रहती है!
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दीपक का प्रकाश ऊर्ध्वगामी है ! दीपक तले अंधेरा है ! यहाँ आकर शेष शरीर स्तब्ध हो चुका ! शेष शरीर अंधकार मे डूब चुका ! किन्तु अब समूचे ललाट में चिंगारियां सतत् झिलमिला रही हैं।
और इसी झिलमिलाहट के मध्य अखण्ड जोति से-“निकसत एक अवाज चिराग की जोति की मांही ! सुगरा मानुष सुनत और कोई सुनता नांहि।
पलटू जो कोई सुनै ताको पूरो भाग, उलटा कूँवां गगन में जिसमें जरत चिराग॥”-आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971″

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