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अब वृद्धाश्रम नहीं।

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यह कैसी विडंबना है कि एक माता-पिता अपने तीन -चार संतान को एक समान, लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा देकर एक सफल व्यक्ति बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती है, वहीं संतानें मिलकर भी अपने वृद्ध माता-पिता को देख- भाल, सेवा- सत्कार नहीं कर पाती है।उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ आती है। आखिरकार ऐसी मानसिकता क्यों पनपती जा रही है। सबसे आश्चर्य एवं चिंता की बात यह है कि ज्यादातर शिक्षित परिवारो में ऐसी घटनाएं देखने को मिल रही हैं। हमारी संस्कृति तो एसी नहीं रही हैं। नैतिक मूल्यों का ह्रास और पाश्चात्य संस्कृति ज्वर के कारण ही ऐसी मनोवृत्ति देखने को मिल रही है। नैतिक शिक्षा का अभाव, बेरोजगारी, आमदनी कम होना इत्यादि इसके मूल में काम कर रही है।दुसरी ओर परिवार में आई सभी नहीं कुछ बहूएं भी कम जिम्मेदार नहीं हैं वे अपने बच्चे तथा पति को ही परिवार समझती है, जिसके कारण वृद्ध वर्ग अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं। इसी कड़ी में एक वाकिया हमने पढा था उसी को लिख रहा हूं।एक शिक्षित विवाहित नौजवान अपने वृद्ध माता को वृद्धाश्रम में छोड़ आया। सप्ताह में एक दिन मिलने जाता।एक दिन की बात है कि वह नौजवान अपने वृद्ध माता से मिलकर हाल-चाल पूछा। वृद्ध माता ने कही,बेटा, मैं दो- चार दिनों का मेहमान हूं। वृद्धाश्रम में सबकुछ ठीक है पर एक काम करना,बेटा, मेरे मरने के बाद मेरे बिस्तर के ऊपर एक सीलिंग पंखा लगा देना। बेटा (नौजवान) ने बड़ी उत्सुकता से पूछा मां तुम तो नहीं रहोगी फिर पंखा का क्या काम? वृद्ध मां ने कही,  बेटा, मेरे जाने के बाद, तुम्हें भी वृद्धावस्था में इसी बिस्तर पर आना है फिर तुम्हें गर्मी लगेगी तो मुझे बड़ा दुःख होगी।यह सुनते ही बेटा बड़ा भावुक हो गया। तुरंत सबकुछ समझ गया और अपने वृद्ध माता को पुनः अपना घर ले आया।
पवन कुमार शर्मा (शिक्षक)
दुमदुमा (असम)
मोबाइल ९९५४३२७६७७

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