98 Views
कभी-कभी एक व्यक्ति का छोटा-सा संकल्प पूरे समाज की पहचान बन जाता है। यही कहानी है अरुणाचल प्रदेश के बनवांग लोसु की, जिन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि लिपि बनाना सिर्फ अक्षरों का आकार तय करना नहीं होता, बल्कि वह एक समुदाय की आवाज़, अस्मिता और आत्मसम्मान का पुनर्जन्म होता है।अरुणाचल प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर में भाषा और लिपि की अपनी अनमोल भूमिका है। हर भाषा किसी समुदाय की पहचान, इतिहास और संवेदनाओं का दर्पण होती है, और जब उसकी लिपि नहीं होती या उसे सही ढंग से व्यक्त नहीं किया जा सकता, तो उस भाषा की असली आत्मा खतरे में पड़ जाती है। इसी संकट और चुनौती का सामना करते हुए बनवांग लोसु ने वांचो भाषा के लिए ऐसी लिपि विकसित की, जिसने न केवल उनकी मातृभाषा को संरक्षित किया बल्कि पूरे समुदाय के लिए सांस्कृतिक पुनर्जागरण का मार्ग भी प्रशस्त किया।
साल 2001 में, एक युवा छात्र के रूप में बनवांग लोसु ने महसूस किया कि वांचो भाषा को रोमन लिपि में व्यक्त करना असंभव था। रोमन अक्षर भाषा की स्वर-ऊँचाई, ध्वनि की लंबाई और स्वरांत परिवर्तन को पकड़ नहीं पा रहे थे। किसी शब्द का अर्थ केवल इसकी ध्वनि और स्वर की लंबाई पर निर्भर होता है, और इसी असमानता ने लोसु को प्रेरित किया कि वे अपनी भाषा के लिए एक स्वतंत्र, वैज्ञानिक और ध्वन्यात्मक रूप से सटीक लिपि तैयार करें। यह विचार उनके लिए केवल व्यक्तिगत चुनौती नहीं थी, बल्कि पूरे समुदाय की भाषाई पहचान और सांस्कृतिक आत्मसम्मान को सुरक्षित करने का मिशन बन गया।लोसु ने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए किसी भी प्रकार का संक्षिप्त या आसान मार्ग नहीं चुना। उन्होंने स्नातक की पढ़ाई के बाद खुद को भाषाविज्ञान और ध्वनिविज्ञान के गहन अध्ययन में समर्पित कर दिया। उन्होंने वर्षों तक शोध किया कि लिपि कैसे बनती है, अक्षर कैसे ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और किसी भाषा की मौखिक धारा को लिखित रूप में कैसे संरक्षित किया जा सकता है। उनके अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि लिपि केवल कला नहीं, बल्कि साइंस और समुदाय की भागीदारी का मिश्रण है।
लगातार एक दशक से अधिक की मेहनत और समर्पण के बाद 2012 में लोसु ने अपनी नई लिपि के पहले अक्षर मुद्रित किए। यह उनके लिए केवल एक तकनीकी उपलब्धि नहीं थी, बल्कि मानव संवेदना और सामुदायिक प्रयास का प्रतीक बन गई। उन्होंने अपनी यात्रा में सामुदायिक सहयोग को भी महत्व दिया। वांचो छात्र संघ और वांचो सांस्कृतिक समाज के सहयोग से उन्होंने 2013 में वांचो लिपि की पहली पुस्तक प्रकाशित की। यह घटना उनके समुदाय के लिए ऐतिहासिक महत्व की थी, क्योंकि यह न केवल भाषा की पहचान को मजबूत कर रही थी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए सांस्कृतिक और भाषाई सेतु भी बना रही थी।आज वांचो लिपि केवल एक लिखित माध्यम नहीं, बल्कि 56,000 से अधिक वांचो भाषियों की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक बन चुकी है। यह लिपि अब 20 से अधिक सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जा रही है, जिससे नई पीढ़ी अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं से जुड़ रही है। बच्चों के नोटबुकों में अब वांचो के अक्षर सजते हैं, और यह दृश्य अपने आप में भाषाई पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया है।
बनवांग लोसु ने यह भी समझा कि केवल पुस्तकों में दर्ज लिपि पर्याप्त नहीं होगी। डिजिटल युग में भाषा का अस्तित्व सुरक्षित करने के लिए इसे इंटरनेट और कंप्यूटर प्लेटफॉर्म पर उपयोग योग्य बनाना आवश्यक था। इसके लिए उन्होंने Unicode Consortium (USA) से संपर्क किया — वही संगठन जो दुनिया भर की सभी लिपियों को डिजिटल मानक प्रदान करता है। शुरुआती दौर में यह प्रक्रिया उनके लिए जटिल और कठिन थी। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लिया, जिनमें ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय के प्रो. स्टीफन मोरे और भाषाई विशेषज्ञ माइकल एवर्सन शामिल थे। इनके सहयोग से एक विस्तृत प्रस्ताव तैयार किया गया, जिसे यू.एस. नेशनल एंडोमेंट फॉर ह्यूमैनिटीज़ ने वित्तीय सहायता प्रदान की। वर्षों के प्रयास और परिश्रम के बाद, 2019 में वांचो लिपि को आधिकारिक रूप से यूनिकोड मानक में शामिल कर लिया गया, जिससे यह डिजिटल दुनिया में स्थायी और सुरक्षित हो गई।बनवांग लोसु का यह अद्वितीय प्रयास यह प्रमाण है कि एक व्यक्ति भी अपनी भाषा, संस्कृति और समुदाय के लिए इतिहास बदल सकता है, यदि उसके पास सच्चा समर्पण, ज्ञान और धैर्य हो। यह कहानी केवल वांचो समुदाय के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत और विश्व के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह बताती है कि भाषा और लिपि सिर्फ संचार का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, पहचान और आत्मसम्मान का संवाहक होती हैं।
आज जब डेंगाओन या अन्य क्षेत्रों में नई लिपियों के विकास को लेकर चर्चा होती है, तो बनवांग लोसु की यात्रा हमें यह सीख देती है कि सफल लिपि निर्माण केवल कल्पना या प्रेरणा से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक अध्ययन, सामुदायिक सहभागिता और वर्षों की मेहनत से ही संभव है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि लिपि निर्माण केवल अक्षरों का खेल नहीं, बल्कि भाषाई विरासत और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा का गंभीर और जिम्मेदार कार्य है।उनकी इस उपलब्धि से यह संदेश मिलता है कि भाषा और संस्कृति का सम्मान करना केवल एक दायित्व नहीं, बल्कि एक सम्मानजनक योगदान और सामाजिक जिम्मेदारी है। उनकी मेहनत से वांचो भाषा अब डिजिटल प्लेटफॉर्म, विद्यालय और सामाजिक पहचान में मजबूत रूप से स्थापित हो चुकी है। यह एक उदाहरण है कि सही दृष्टि, संकल्प और सामुदायिक सहयोग के माध्यम से किसी भी भाषा और संस्कृति को स्थायी और अमर बनाया जा सकता है।
बनवांग लोसु की यह कहानी न केवल भाषाविदों और शोधकर्ताओं के लिए प्रेरक है, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए संदेश देती है जो अपनी मातृभाषा, संस्कृति और पहचान के लिए समर्पित है। यह याद दिलाती है कि भाषा का सम्मान, लिपि का विकास और सांस्कृतिक संरक्षण कोई संयोग नहीं, बल्कि ज्ञान, धैर्य और समुदाय के सहयोग से ही संभव है।वास्तव में, बनवांग लोसु ने साबित कर दिया है कि जब कोई व्यक्ति अपने समुदाय की पहचान और संस्कृति के लिए सच्चा समर्पण रखता है, तो वह अक्षरों के माध्यम से इतिहास, संस्कृति और आत्मा को अमर बना सकता है।
समराज चौहान, युवा लेखक , असम, दूरभाष :- 6000059282





















