53 Views
आजकल टमाटर कुछ अधिक ही लाल हो गया है। इतना कि डेढ़ सौ रूपए किलो के हिसाब से मार्केट में बिक रहा है। अजी ! टमाटर आजकल फुल फार्म में हैं और दोहरा शतक लगाने को तैयार है। सच तो यह है कि टमाटर ने आजकल आदमी की टांट(सिर) मार रखी है। हम तो कहते हैं कि अब देश की राजनीतिक पार्टियों को अपने फ्रीबीज में टमाटर को वरीयता देनी चाहिए, क्यों कि आम आदमी को आजकल टमाटर खाने को नहीं मिल रहा है। पार्टियों के घोषणापत्रों में यदि टमाटर होगा तो राजनीतिक दलों के साथ ही आम आदमी की भी पौ-बारह हो जाएगी। हमारे विचार से अब टमाटर पर सब्सिडी या किसानों के लिए लोन की व्यवस्था की जानी चाहिए और टमाटर उत्पादकों को सेक्युरिटी प्रदान की जानी चाहिए। शहरों और गांवों में आज कल चोर बहुत सक्रिय हो गए हैं और उनकी नजर आजकल विशेष रूप से टमाटरों पर है। खैर, जो भी हो आज टमाटर की शान एकदम से बढ़ गई है और वह फलों के राजा आम तक को भी चिढ़ाने लगा है। एक दिन फलों के राजा आम को चिढ़ाते हुए और इतराते हुए टमाटर आम को बोला -‘एक टमाटर की कीमत तुम क्या जानो राजा बाबू…।’ फिल्म स्क्रिप्ट राइटर भी अब अपने डायलाग कुछ इस प्रकार लिखेंगे -‘मेरे पास टमाटर हैं, तुम्हारे पास क्या है ?’, ‘ ये टमाटरों की थैली मुझे दे दे ठाकुर।’, ‘ये क्या हुआ,कैसे हुआ,कब हुआ ?’ अब किसी धार्मिक सीरियल में कोई ऋषि, मुनि किसी को वरदान देंगें तो कुछ यूं कहेंगे -‘जा , तू टमाटर हो जा।’ कोई शायर अब यूं शायरी लिख सकता है -‘इतनी रात गए अकेले अकेले टमाटर क्यों खा रहा है (शायर का नाम), ला एकाध टमाटर मुझे दे दे।’ कोई गीतकार अब यूं लिख सकता है -‘दिल है छोटा सा, टमाटर की आशा…!’ अब गरीब लोग टमाटर के बारे में कुछ यूं गुनगुना सकते हैं -‘मेरे नसीब में तू है कि नहीं।’ बहरहाल, टमाटर के भावों को देखते हुए इसे राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय सब्जी घोषित कर देना चाहिए। अब टमाटर पर व्यंग्य लिखने वालों को मानदेय के स्थान पर टमाटर ही दिए जाएंगे। अब पेट्रोल,डीजल, तेल,गई,दाल,आटा आपस में रेस लगायेंगे तो रेस के जीतने की पूरी संभावनाएं टमाटर की ही बन रहीं हैं। अब टमाटर आम आदमी को यह ताना मार सकता है कि -‘तुम स्साला गरीब आदमी मुझे खरीदने से डरेगा।’ अब गरीब आदमी टमाटर की चटनी नहीं बनाएगा। अब टमाटर ही गरीब आदमी की चटनी बनाएगा। अब हरेक टमाटर गुनगुनाएगा-‘आज मैं ऊपर, आसमां नीचे। आज मैं आगे, जमाना है पीछे।’ गरीब आदमी टमाटरों की बढ़ती कीमतों को लेकर भगवान के आगे अब यह गुनगुना सकता है कि -‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले…।’ टमाटर अब गुनगुनाएगा -‘अजीब दास्तां है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम, ये मंज़िले हैं कौनसी, न वो समझ सके न हम…।’
सुनील कुमार महला फ्रीलांस राइटर कालमिस्ट व युवा साहित्यकार।