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आज कुछ ऐसी रात अनोखी,
ना दिल लागे, ना मन लागे,
समय की मांग हो गई हुई छोटी,
काटे नहीं कटता यह पल मानो।
बिताते थे दिन वो इंतजार में,
कहते थे हम यूं हो जाए गोधूलि,
बिताएंगे हम शाम कुछ नया अनोखा।
मगर इस निशा के अंधेरे में,
निगाह पड़ी उन अधरों की तरफ,
जहां झुंड पड़े उन मासूमों की,
रात कुछ भी बिताते रेल गाड़ियों , के हवाओं के बीच,
देख कर मन में भाव जगा,
क्या है इनकी जिंदगी आखिर,
ना वस्तुओं की चाहत, ना मृत्यु का भय।
लोग नंगे पड़े यू जमीन पर ऐसे,
वो शरद की ठंडी हवाएं,
नन्हे बच्चों का वो ठिठुरना,
क्या है यह सब कुछ।
कुछ तो रात की खुशबू में सिमटकर,
बिता रहे कुछ लम्हे हसीन,
कर रहे शुक्रिया अदा ,
ए खुदा हम तेरे।
जीने के तो बहाने सौ,
मगर सच जिंदगी क्या है, कल तक जिन रातों की,
करते थे इंतजार हम,
आज डरने लगे मानो,
निशा की व्यथा को देखकर,
आज ही एक ऐसी राते अनोखी।।
डोली शाह
सुल्तानी ,हाइलाकांदी