उदयपुर, समाचार एजेंसी, 11 फरवरी। कार्बन डेटिंग के बाद डीएनए जांच, थ्रीडी इमेजिंग जैसी नई तकनीकों ने सिंधु घाटी सभ्यता के संदर्भ में कई नए तथ्यों को उजागर किया है। खासतौर से डीएनए की जांच ने यह साबित किया है कि सिंधु घाटी सभ्यता की संस्कृति सिर्फ अवशेष प्राप्ति के स्थल के समीप ही नहीं, दूर-दूर तक तो फैली ही थी, और इस सभ्यता में कहीं भी किसी अन्य संस्कृति के स्थानांतरण (माइग्रेशन) से बदलाव नहीं हुआ। अपितु डीएनए जांच के परिणाम यह बता रहे हैं कि कम या ज्यादा, आधी दुनिया में इसी सभ्यता के डीएनए आज भी मौजूद हैं।
यह बात सभ्यता अध्ययन केन्द्र नई दिल्ली के तत्वाववधान में आयोजित वेबिनार में उभर कर आई। बुधवार 10 फरवरी को हुई इस वेबिनार में यह तथ्य भी उभर कर आए कि सिंधु घाटी सभ्यता जिसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है, की लिपि चित्रात्मक है और वह वेदों के मंत्रों और जीवन की उत्पत्ति की अवधारणा के संकेत देते हैं।
वेबिनार में डक्क्न काॅलेज के पूर्व उपकुलपति डाॅ. वीएस शिन्दे ने कहा कि भारत की नींव हड़प्पा के लोगों की देन है। जहाजरानी हड़प्पा की देन है। इस संस्कृति में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के प्रमाण मिलते हैं। हड़प्पा की शहर योजना आधुनिक स्मार्ट सिटी जैसी थी। नालियां सड़क के बीच से निकलती थीं और शहर की प्राचीर के बाहर उनका निकास रखा जाता था। भवन निर्माण प्रौद्योगिकी अत्यन्त आधुनिक और विकसित थी। बिल्डिंग ब्लाॅक कंस्ट्रक्शन में ईंट की एक समानान्तर और एक उध्र्व तह बनाकर निर्माण करने की ब्रिटिश ब्लाॅक पद्धति वास्तव में हड़प्पन है यानी भारतीय है। मोहन-जो-दारो का बौद्ध विहार अब हड़प्पाकालीन माना गया है और इसे अब बौद्ध विहार नहीं बल्कि वहां का विशाल प्रासाद माना जा रहा है। राजस्थान के गणेश्वर-जोधपुरा से तांबा मिलता था। दक्षिण भारत से सोना आता था। जावर की खदानों से चांदी आती थी। यह सभी बातें इस संस्कृति के भौगोलिक विस्तार और उसके भारतीय होने को प्रमाणित करती हैं। डाॅ. शिन्दे ने कहा कि राखीगढ़ी से मिले 4500 वर्ष पुराने शव के डीएनए की जांच से पता चला है कि अफगानिस्तान से हिन्द महासागर और ईरान से बर्मा तक पूरे भारतवर्ष का डीएनए समान है। यही प्रमाण यह कहने के लिए अब काफी है कि यहां कोई बाहर से नहीं आया। भारतवर्ष या जम्बूद्वीप पर फली-फूली संस्कृति प्राचीन समय से एक ही है।
वेबिनार में साहित्य संस्थान के पूर्व निदेशक वरिष्ठ पुरातत्वविद डाॅ. ललित पाण्डे ने कहा कि हड़प्पा संस्कृति या सिन्धु सभ्यता में कुछ भी भारत के बाहर का नहीं था। इसे सेमेटिक या मेसोपोटामिया का विस्तार बताना अंग्रेजों द्वारा भारत में शासन को वैध बताने का प्रयास था। बौद्धायन धर्मसूत्र में जो नगर निर्माण का नियम बताया गया है, वही स्वरूप हमें पूरी सिन्धुकालीन नगर निर्माण विधा में नजर आता है। कौटिल्य का नगर प्रकरण तो नगर निर्माण के सभी नियम वैसे ही बताता है जैसे कि हड़प्पा या मोहन-जो-दारो में बने हैं। इन शास्त्रों का भी अब तक इस दृष्टिकोण से अध्ययन नहीं किया गया। यदि भारत में उपलब्ध प्राचीन शास्त्रों, महाकाव्यों का अध्ययन किया जाए तो उनमें वर्णित तथ्यों के आधार पर वे उसी संस्कृति को प्रतिपादित करेंगे जैसी सिंधुकालीन सभ्यता में सामने आ रही है।
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में सिन्धु घाटी से मिली सीलों की अध्येता और विश्लेषक स्वतंत्र पुरातत्व अनुसंधानकर्ता डाॅ. रेखा राव ने कहा कि हड़प्पा और सिन्धु-सरस्वती के अन्य स्थलों से मिली सीलों का सीधा सम्बंध ऋग्वेद के मंत्रों और सूक्तों से है। उन्होंने इन सीलों में मानव के वैदिक विधि से होने वाले अंतिम संस्कार और पितरों के अंकन को सूक्तों और सूत्रों से स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि अधिकतर चित्रों में सिल्क काॅटन अर्थात सेमल के वृक्ष पर पितृ को बिठाया गया है। यह वर्णन हमें ऋग्वेद के 10वें मण्डल में मिलता है। साथ ही एकल और युग्म समाधि और भूमिज करने की विधि भी ऋग्वेद के दशम मडल के अनुरूप है।
इसी सत्र में हड़प्पा की लिपि को चित्रात्मक बताते हुए वरिष्ठ पुरातत्वविद डाॅ. धर्मवीर शर्मा ने कहा कि इन चित्रों में जीवन का विज्ञान दर्शाया गया है। उन्होंने कहा कि उत्खनन मंे प्राप्त निर्माण सामग्रियों पर एक-दूसरे से जोड़े जाने वाले अवशेषों पर चित्रों से इस प्रकार संकेत अंकित किए मिलते हैं मानो वह कारीगर को समझाने के लिए हों कि कौन सा हिस्सा बाहर रहेगा और कौन सा हिस्सा अन्य उपकरण में समाहित होगा। कई सीलों पर उन्होंने मानव प्रजनन विधि का अंकन बताया। उन्होंने कहा कि भारत में प्रजनन अर्थात जीवन को दैवीय और पूजित माना जाता था जिसका संकेत इन सीलों पर मिलता है। इतना ही नहीं, कुछ सीलों पर उभरी आकृतियों को उन्होंने प्रजनन क्षमता बढ़ाने के नुस्खों के रूप में प्रतिपादित किया और कहा कि हड़प्पा संस्कृति अपने ज्ञान को चित्रात्मक तरीके से संयोजित और संवर्धित करती रही थी।
वेबिनार के समापन सत्र में दिल्ली इंस्टीट्यूट आॅफ हैरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट में सीनियर फैकल्टी डाॅ. आनन्दवर्धन ने कहा कि सिन्धु कहें या भारतीय, यह सभ्यता एक ही है। इसमें निरन्तरता है। इसका विभाजन अंग्रेजों ने स्वयं के भारत में नैतिक अधिष्ठान का विकास करने के लिए किया। उन्हें जब भारतीय क्षेत्र में सिन्धु जैसी विकसित सभ्यता के बारे में जानकारी उपलब्ध होने लगी तब उन्होंने इस क्षेत्र के महत्व को कम करने की मानसिकता से इस सभ्यता को मेसोपोटामिया व भूमध्यसागरीय प्रदेशों से यहां तक विस्तृत होने की परिकल्पना प्रस्तुत करनी शुरू कर दी। डाॅ. आनंदवर्धन ने कई उदाहरण देते हुए इस बात को स्पष्ट किया और कहा कि सभी विद्वानों के वक्तत्व्य को अलग-अलग करके नहीं, बल्कि समायोजित करके देखने की आवश्यकता है। समायोजन के बाद सिंधु संस्कृति ही भारत और भारतीयता की प्राचीन सनातन वैदिक संस्कृति साबित होने में देर नहीं लगेगी और वैदिक काल का गौरव ज्ञान स्थापित हो सकेगा।
वेबिनार के प्रथम सत्र का संचालन रितेश पाठक ने किया, वहीं दूसरे सत्र का संचालन विवेक भटनागर ने किया। तीसरे सत्र में संचालन, हस्तक्षेप और सहयोग सभ्यता अध्ययन केन्द्र के निदेशक रविशंकर ने किया। इस पूरे कार्यक्रम का प्रबंधन धीप्रज्ञ दुबे ने किया।