राम की कहानी युगों से भारत को संवारने में उत्प्रेरक रही है। इसीलिए राष्ट्र के समक्ष सुरसा के जबड़ों की भांति फैले हुए सद्य संकटों की रामकहानी समझना और उनका मोचन इसी से मुमकिन है। शर्त यही है राम में रमना होगा, क्योंकि वे ”जन रंजन भंज न सोक भयं” हैं। बापू का अनुभव था कि जीवन के अंधेरे और निराश क्षणों में रामचरित मानस में उन्हें सुकून मिलता था। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि ”राम का असर करोड़ों के दिमाग पर इसलिये नहीं है कि वे धर्म से जुड़े हैं, बल्कि इसलिए कि जिन्दगी के हरेक पहलू और हरेक कामकाज के सिलसिले में मिसाल की तरह राम आते हैं। आदमी तब उसी मिसाल के अनुसार अपने कदम उठाने लग जाता है।”
इन्हीं मिसालों से भरी राम की किताब को एक बार विनोबा भावे ने सिवनी जेल में ब्रिटेन में शिक्षित सत्याग्रही जेसी कुमारप्पा को दिया और कहा, ”दिस रामचरित मानस ईज बाइबल ऐंड शेक्सपियर कम्बाइन्ड।” लेकिन इन दोनों अंग्रेजी कृतियों की तुलना में राम के चरित की कहानी आधुनिक है, क्योंकि हर नई सदी की रोशनी में वह फिर से सुनी, पढ़ी और विचारित होती है। तरोताजा हो जाती है।
गांधी और लोहिया ने सुझाया भी था कि हर धर्म की बातों की युगीय मान्यताओं की कसौटी पर पुनर्समीक्षा होनी चाहिए। गांधीजी ने लिखा था, ”कोई भी (धार्मिक) त्रुटि शास्त्रों की दुहाई देकर मात्र अपवाद नहीं करार दी जा सकती है।” (यंग इण्डिया, 26 फरवरी 1925)। बापू ने नये जमाने के मुताबिक कुरान की भी विवेचना का जिक्र किया था। लोहिया तो और आगे बढ़े। उन्होंने मध्यकालीन रचनाकार संत तुलसीदास के आधुनिक आलोचकों को चेताया, ”मोती को चुनने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं है, और न कूड़ा साफ करते समय मोती को फेंक देना।”
रामकथा की उल्लास-भावना से अनुप्राणित होकर लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला की सोची थी। उसके पीछे दो प्रकरण भी थे। कामदगिरी के समीप स्फटिक शिला पर बैठकर एक बार राम ने सुन्दर फूल चुनकर काशाय वेशधारिणी सीता को अपने हाथों से सजाया था। (अविवाहित) लोहिया की दृष्टि में यह प्रसंग राम के सौन्दर्यबोध और पत्नीव्रता का परिचायक है, जिसे हर पति को महसूस करना चाहिये।
स्वयं लोहिया ने स्फटिक शिला पर से दिल्ली की ओर देखा था। सोचा भी था कि लंका की तरह केन्द्र में भी सत्ता परिवर्तन करना होगा। तब नेहरू- कांग्रेस का राज था। फिर लोहिया को अपनी असहायता का बोध हुआ था, रावण रथी, विरथ रघुवीर की भांति। असमान मुकाबला था, हालांकि लोहिया के लोग रथी हुए उनके निधन के बाद।
लोहिया रामचरितमानस के छोटे किस्सों का उद्धरण करते थे और आमजन की जिज्ञासा जगाते थे ताकि राम पर चर्चा व्यापक हो। मसलन बड़े भाई राम अकसर अनुज लक्ष्मण को उकसाते थे। जब धनुष टूटा तो नाराज परशुराम से लक्ष्मण का विवाद तीखा था। शूर्पणखा को टालने के लिए फिर राम ने लक्ष्मण को एवजी बनाया। दोनों में संवाद का आयमन क्या था? लोहिया ने अपने राम को साधारण मनुष्य जैसा ही देखा था।
महात्मा गांधी के विषय में एक अचंभा अवश्य होता है। द्वारका के निकट सागर किनारे वे पैदा हुए पर जीवनभर सरयूतटी राम के ही उपासक रहे। वे द्वारकाधीश को मानो भूल ही गये। शायद इसलिए कि गांधीजी जनता के समक्ष राम के मर्यादित उदाहरण को पेश करना चाहते हों। रामराज ही उनके सपनों का भारत था, जहां किसी भी प्रकार का ताप नहीं था, शोक न था।
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)