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आस -अनीता सिंह

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आस
अनीता सिंह
(प्र. स्ना. हिंदी, ज.न.वि. गोलाघाट, असम)
ज़मीन और सागर का भी
कैसा अजीब नाता है।
दोनों पास होकर भी
एक-दूसरे से कितने दूर हैं,
जैसे चाँद से सूरज और
धरती से गगन ।
असमानताएँ तो बहुत हैं लेकिन ,
सीमाएँ भी तय नहीं है दोनों की ।
ज़मीन, जहाँ कोलाहल को अपने में
समेट लेती है,
वहीं सागर नि:शब्दता का चादर
ओढ़ लेता है।
वहाँ सुनाई देती है सिर्फ़
लहरों की चंचल ध्वनि ,
और सागर मेंदूरी तय करतेहुए
कुछ छोटे-बड़े जहाज,
वहाँ न सड़कों जैसी भीड़ है,
और न ही किसी और गाड़ी से
आगे निकलने की होड़ ।
जहाज में सफ़र कर रहे
यात्री भी अपने में लीन ,
अपने कर्त्तव्य-पथ पर
आगे बढ़ते हुए
अपनों सेदूर ,
जिनके सुख- दुख
का साथी बस वहीं “जहाज”
जो उन्हें एक देश से
दूसरे देश तक
ले जाते हुए एकदम हताश ।
तीज- त्योहार भी ,
अनमने से मनाते।
न शिकवा न शिकायत ।
न शोर- शराबा न कोई ड्रामा ।
लेकिन सागर पार कोई ,
किसी के इंतज़ार की
घड़ियाँ गिनते हुए ।
कोई अपना जो, किसी अपनेके
आनेके इंतज़ार में“आस” लगाए है।
ज़मीन और सागर का भी
कैसा अजीब नाता है?
दोनों पास होकर भी
एक-दूसरे से कितने दूर हैं?
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