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बरसों से इन आँखों में बसा है
कुछ लम्हों का इंतज़ार
देखने को तरस रही ये आँखें
कभी न होती बेज़ार
बरसों से इन आँखों में बसा हे
कुछ लम्हों का इंतज़ार
बारिश की बुंदे टप-टप छत पर टपके
फूलों की पंखुड़ियों में बुंदे झपके
कमल के पत्तों में ये बुंदे मोती से बने
आकाश में जैसे बादल काले घने
चारों तरफ हरियाली ही हरियाली
झूलों में झुलती है सारी सहेली
गुपचुप गुपचुप बुने कोई पहेली
मिट्टी के आंगन में है बचपन की अठखेली
मिट्टी के चुल्हे में पके खाने की खुशबू
हे माँ की ममता जो समेटती जाती रूह
पिता संग लुका-छिपी खेल का लड़कपन
बिता हुआ आज याद आता है बचपन।।