वसंत के प्रारंभ में कड़कड़ाती शीत ऋतु में असंख्य वनस्पतियाँ व वृक्ष पत्ररूपी अपने समस्त वस्त्र गिराकर ठूँठ से खड़े दृष्टिगोचर होते हैं लेकिन वास्तव में वे जड़वत नहीं एक साधक की तरह चुपचाप साधना में लीन होते हैं। मौन साधना में लीन। कुछ समय उपरांत इसी मौन साधना की परिणति होती है उनके कोमल किसलय रूपी परिधान में। यह स्थिति पेड़-पौधों को न केवल पल्लवित व पुष्पित करती है अपितु उनके आकार को विस्तार भी देती है। फूलों व फलों से युक्त कर देती है। समस्त प्रकृति के साथ धरती भी कम नहीं ठिठुरती पर पूर्णतः शांत-स्थिर व मौन होकर उस ठिठुरन को सहती है। इसी मौन अथवा सहिष्णुता का परिणाम है उर्वरता। प्रकृति की शांति, स्थिरता अर्थात् मौन का ही परिणाम है कि समस्त प्रकृति न केवल हरीतिमा से ओतप्रोत हो जाती है अपितु विविधवर्णी पत्रावली व पुष्पावली के माध्यम से उसके गर्भ से इंद्रधनुषी रंगों के फव्वारे से छूटने लगते हैं। मनुष्य भी जब तक शांत-स्थिर व प्रकृतिस्थ नहीं होता, मौन का आश्रय नहीं लेता उसके द्वारा कुछ नया, कुछ उपयोगी, कुछ आकर्षक सृजन संभव नहीं होता। मौन भी केवल बाह्य नहीं अपितु वास्तविक आंतरिक मौन क्योंकि वास्तविक आंतरिक अर्थात् आदर्श मौन द्वारा ही संभव है किसी भी प्रकार का सकारात्मक सृजन। आदर्श मौन ही वह स्थिति है जिसमें उपयोगी व सकारात्मक संकल्प लिए जा सकते हैं और आदर्श मौन की अवस्था विशेष में ही लिए गए संकल्पों की पूर्णता संभव है। साधना में उपवास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उपवास जहाँ भौतिक शरीर की शुद्धि का साधन है वहीं मौन मन की शुद्धि के लिए अनिवार्य है। मौन वस्तुतः मानसिक उपवास ही है। मौन की अवस्था में हम अपने मुख जिह्वा तथा बोलने में सहायक स्वर यंत्रों पर नियंत्रण कर सकते हैं लेकिन इसके बावजूद हम बाह्य जगत से जुड़े रहते हैं। आँखों से देख सकते हैं, कानों से सुन सकते हैं, इशारों तथा भाव-भंगिमाओं द्वारा अपनी बात दूसरों को समझा सकते हैं तथा दूसरों की बातों को ग्रहण कर सकते हैं। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या स्थिति को देख कर हमारे मन में विचार उत्पन्न हो सकते हैं और हम बोलने पर भी विवश हो सकते हैं।
आदर्श मौन का अनुपालन अनिवार्य है ताकि विचार प्रक्रिया अथवा विचारों के प्रवाह से मुक्ति मिल सके तथा निर्णय लेने की स्थिति से बचा जा सके। यही ध्यान की अवस्था है। आदर्श मौन वह स्थिति है जब हम बोलने पर नियंत्रण के साथ-साथ अपनी अन्य ज्ञानेंद्रियों के कार्यकलापों को भी सीमित अथवा नियंत्रण में कर लेते हैं जिससे अपने आस-पास के वातावरण के प्रति निरपेक्षता अथवा तटस्थता आ जाती है। शब्द के साथ-साथ रूप, रस, गंध तथा स्पर्श से विमुख होना ही आदर्श मौन है। आँखें बंद करने का तो और भी महत्व है। आँखें बंद करने का अर्थ है मस्तिष्क की तरंगों की आवृति में
कमी जो हमें मन की गहराई में पहँुचने का अवसर प्रदान करती है। अतः आँखें बंद करके बैठना भी साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है।
आदर्श मौन अथवा बाहर से संवादहीनता का अर्थ है अपने अभ्यंतर से संवाद जो आध्यात्मिक विकास के लिए अनिवार्य है। जब हम देखते हैं, बोलते हैं अथवा अन्य किसी भी क्षेत्र में किसी भी दिशा में गतिशील होते हैं तो ऊर्जा का बहाव अंदर से बाहर की ओर होता है अर्थात् हमारी ऊर्जा में निरंतर कमी होती रहती है। इसके विपरीत मौन की स्थिति में, न देखने की स्थिति में, निश्चलता की स्थिति में ऊर्जा का बहाव बाहर से अंदर की ओर होता है अर्थात् हम पराभौतिक ऊर्जा के लाभ प्राप्त करने लगते हैं। मौन के अभाव में हमारी ऊर्जा का निरंतर ह्रास होता रहता है जबकि मौन की स्थिति में न केवल ऊर्जा की बचत होती है अपितु ऊर्जा सही दिशा में चैनेलाइज़ भी होती है। मौन साधना का ही एक हिस्सा है जो ध्यान अथवा मेडिटेशन में होने से पहले की अवस्था है। आदर्श मौन के बाद मन को किसी एक ओर केन्द्रित करना अथवा इच्छित दिशा में ले जाना संभव है। ध्यान का मुख्य प्रयोजन भी यही है। योग के आठ अंगोंयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि में ध्यान से पहले की अवस्थाएँ हैं ‘प्रत्याहार’ तथा ‘धारणा’। ‘प्रत्याहार’ है ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण अथवा बाह्य जगत से संबंध तोड़ना ताकि अंतर्यात्रा संभव हो सके। ‘धारणा’ है चित्त का केंद्रीकरण और यहीं से प्रारंभ होती है ध्यान की यात्रा। इस प्रकार मौन की विभिन्न स्थितियाँ योग साधना के मार्ग के विभिन्न सोपान हैं।
मौन में आप अपने श्वास के आवागमन पर ध्यान केंद्रित करें तो मन के अवचेतन भाग में दबे विकार निकल जाएँगे जो अनेक व्याधियों का कारण बनते हैं। मौन में आप संकल्प लें, संकल्प पूर्ण होंगे। तकनीकी भाषा में कहें तो संकल्प लेना या करना एक प्रकार से स्वीकारोक्ति ही है जो मौन की विशेष अवस्था में, जिसे हम एल्फा लेवल ऑफ माइंड कहते हैं, ही संभव है। मौन में लिए गए संकल्प ही अधिक गहरे होते हैं अर्थात अधिक प्रभावी होते हैं। जिस प्रकार से उचित तापमान में ही कोई बीज अंकुरित होकर एक विशाल वृक्ष बन सकता है उसी प्रकार से संकल्प रूपी बीज को अंकुरित होकर
पल्लवित व पुष्पित होने के लिए मौन की आवश्यकता होती है। मौन ही वह तत्त्व है जिसमें महान घटनाएँ विचार रूप में स्वयं को निर्मित करती हैं।
संसार के महान आविष्कार, महान घटनाओं की शुरुआत, महान योजनाओं की रूपरेखा सबसे पहले किसी न किसी के मन में ही बनती है जो कि बाद में कार्य रूप में परिणत होती है। मन में उत्पन्न विचार तभी प्रभावी ढंग से क्रियान्वित होते हैं जब मन शांत हो। अशांत, उद्वेलित मनःस्थिति में कोई भी सकारात्मक विचार या महान योजना न तो उत्पन्न होगी और न ही पूर्ण। तभी तो कहा गया है साइलेंस इज़ गोल्ड। कुछ समय खाली पड़ी रहने के उपरांत ज़मीन पुनः उर्वर हो जाती है और अच्छी फसलें पैदा करने में सक्षम हो जाती है। यही स्थिति मन की भी है। यदि हम चाहते हैं कि मन रूपी ज़मीन की उर्वरता का आरोग्य तथा भौतिक इच्छापूर्ति के लिए अधिकाधिक लाभ हमें मिल सके तो इसके लिए मौन नामक तत्त्व को जीवन में महत्त्व देना ही होगा।
सीताराम गुप्ता,
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