मैं खत्म होती टूथपेस्ट की ट्यूब को जोर से दबाकर बचा हुआ हिस्सा निकालने की कोशिश कर रही थी। लेकिन कुछ भी नहीं निकल रहा था। मेरे बाद भी दो लोगों को ब्रश करना था, इसलिए कभी ट्यूब को मोड़ती, कभी दबाती, और जरूरत पड़ने पर कैंची से काट भी देती—बस इतना कि तीनों के लिए कुछ न कुछ निकल ही आए।
चेहरे पर लगाने वाले सनस्क्रीन या तेल को भी बहुत एहतियात से निकालती हूं, लेकिन कभी-कभी थोड़ा ज्यादा निकल जाता है। तब अफसोस के साथ उसे वापस बोतल में डालने की कोशिश करती हूं। मां, बहन और मैं—हम तीनों एक ही बोतल से दो महीने तक तेल या क्रीम चलाने की कोशिश करते हैं।
संयोग से मां, बहन और मेरे पैर का माप लगभग एक ही है। जब बाहर जाते हैं, तो कभी-कभी एक ही जोड़ी चप्पल घुमाकर पहनते हैं। खाना खाते समय भी यही स्थिति होती है। कभी किसी पसंदीदा दाल या सब्जी का स्वाद मुंह में रह जाता है, लेकिन दुबारा मांगने से हिचकिचाती हूं—सोचती हूं कि कहीं मां के लिए कम न पड़ जाए! इसलिए कई बार मन में आते हुए भी कुछ और नहीं मांगती।
शादी या किसी समारोह में खाली हाथ नहीं जाया जा सकता, लेकिन उपहार भी ऐसा होना चाहिए जो जेब के हिसाब से सही बैठे। पसंद की चीज देने से पहले उसकी कीमत देखनी पड़ती है। क्योंकि पैसे खर्च करने से पहले मन में हजारों सवाल उठते हैं।
पिता अपनी जरूरतों को हमेशा टालते रहते हैं। त्योहारों पर हमारे लिए नए कपड़े जरूर लाते हैं, लेकिन खुद पुराने कपड़े में ही खुश रहते हैं। दुकानों में टंगी मां की पसंदीदा साड़ी हमेशा किसी कोने में रह जाती है।
हमें पिता के लिए दुख होता है, जो हमारी छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं। मां के लिए भी दिल दुखता है, जो हमारे लिए अपनी इच्छाओं को कुर्बान कर देती हैं।
हम कभी पिता से कुछ मांगते नहीं। बल्कि जब वे बाहर जाते हैं, तो दरवाजे पर खड़े होकर उनकी वापसी का इंतजार करते हैं। बचपन से लेकर आज तक, उनके हाथों से लाई गई एक छोटी-सी डेयरी मिल्क चॉकलेट भी हमें अमृत जैसी लगती है।
लेकिन जब पढ़ाई के लिए किताबों की जरूरत होती है, तो पिता बिना सोचे-समझे कहते हैं, “आज ही ले आओ, जितने भी पैसे लगें।” जबकि उनके बटुए में ज्यादा पैसे नहीं होते।
लोग अक्सर कहते हैं, “तुम्हें किस चीज की कमी है? गाड़ी है, फ्रिज है, घर में टाइल्स लगी हैं—पैसे की क्या दिक्कत होगी?” लेकिन वे नहीं जानते कि पिता अब भी छुप-छुपकर आंसू पोंछते हैं और हमारे लिए दिन-रात मेहनत करते हैं। महीने के अंत में जब तनख्वाह मिलती है, तो उसी में पूरे परिवार का खर्च चलता है।
जब हम आराम से सो रहे होते हैं, तब पिता बारिश-आंधी में भी काम पर जाते हैं। यह सोचकर दिल कांप उठता है। कभी-कभी खुद को बेबस महसूस करती हूं।
मां सुबह से रात तक रसोई से लेकर घर के बाकी कामों में लगी रहती हैं। उन्हें बिना आराम करते देख, दिल में एक अजीब-सा दर्द उठता है।
जो लोग कहते हैं, “तुम्हें क्या कमी?” वे सिर्फ हमारी बाहरी चमक-दमक देखते हैं। अगर वे हमारी असलियत देख पाते, तो समझ जाते कि असली संघर्ष क्या होता है।
लेकिन हमें इसकी परवाह नहीं। हमें दो वक्त की रोटी मिल रही है, इससे बड़ा सुख और क्या हो सकता है? हमें कोई शिकायत नहीं, क्योंकि हम जानते हैं कि हमसे भी ज्यादा जरूरतमंद लोग हैं।
धनवान लोग शायद पैसे से अमीर होते हैं, लेकिन दिल से गरीब भी हो सकते हैं। वहीं, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें न पैसे की चिंता होती है और न ही किसी चीज की खुशी।
पता नहीं, कितने पैसे होने पर कोई अमीर बनता है या कितनी कमी होने पर कोई गरीब कहलाता है।
बस इतना जानती हूं—हम जैसे मध्यमवर्गीय लोग इन्हीं दो वर्गों के बीच फंसे रहते हैं।
बाजार से लेकर जिंदगी के हर छोटे-बड़े फैसले में हमें संतुलन बनाना पड़ता है।
हम वे लोग हैं जिनके पास संपत्ति तो होती है, लेकिन कभी जरूरतें पूरी नहीं होतीं, और न ही इतनी गरीबी होती है कि मदद मांग सकें।
यहां तक कि बिजली बचाने के लिए बेवजह जलता हुआ बल्ब भी बंद कर देते हैं। गर्मी में भी सिर्फ एक ही पंखा चलाकर बैठते हैं। मां मुझे कंजूस कहती हैं, लेकिन मुझे कोई पछतावा नहीं।
क्योंकि मैं मध्यमवर्गीय हूं।
और मध्यमवर्गीय के लिए समझदारी और बचत बहुत जरूरी होती है।
बबिता बोरा
(लेखिका असम पुलिस में उप-निरीक्षक के रूप में कार्यरत हैं।)