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एक विरान ज़िन्दगी — डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती

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 डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती
सरकारी प्रथम दर्जा कॉलेज, के आर पुरा, बैंगलोर-36
शिलचर का टिकर बस्ती इलाका। बड़ी-छोटी कुछ इमारतो के बीच एक मध्यम दर्जे का घर। चारों तरफ झाड़ियों से ढका। मालूम होता है कि काफी दिनों से वहाँ की सफाई नहीं हुई है। घर घुसते ही नज़ारा कुछ इस तरह का। टूटा दरवाज़ा, सामने की सीढ़ियाँ टूटी हुई, लाल रंग का पेंट कभी किसी ज़माने में लगाया गया था अब धूल और मिट्टी लग कर बेरंग सा हो गया है। दरवाज़े के बगल में मेटेल की कुर्सी में बैठे विश्वंबर देवनाथ जी अपनी मोतियाबिंद वाली आँखों से किसी को आवाज़ दे रहे हैं। हाँ उन्हें मोतियाबिंद हो गया है। दोनों ही आँखों में। अब पूरी तरह से अंधे हो चुके हैं। चेहरे में बीते समय की लकीरे। बाल सफेद और लम्बे हो चुके हैं जिस पर शायद दो दिन से कंघी नहीं फिरी है। शरीर हड्डियों का ढाँचा बन चुका है। शरीर के लोम तक सफेदी की चादर ओढ़ चुके हैं। पुरानी बनियान और नीली चेक वाली लूंगी पहने हुए हैं। पत्नी को मरे भी अरसा बीत गया है। एक बेटी थी जिसका ब्याह हो चुका है। अब परदेश में रहती है। अपने ससुराल में पूरी तरह से रम चुकी है।
विश्वंबर जी की आवाज़ सुनकर उनके पास उनका छोटा भाई दिगंबर आता है। दुबला-पतला व्यक्तित्व, झुका हुआ शरीर, बुढ़ापे ने उसे भी अच्छी तरह से निचोड़ दिया है। हाथ में एक पुराना अलुमीनियम का मग्गा लिए गरम पानी भर कर वह अपने बड़े भाई के पास आते हैं। अपने भाई का मुख धुलवाकर उन्होंने दाड़ी बना दी। फिर गमछा लेकर मुँह पोछा और वही पर बैठने का कहकर उनके लिए कपड़े लेने भीतर चले गए।
जितना बाहर का नज़ारा देख कर लगता था कि ये दोनों बुजुर्ग गरीबी में जी रहे हैं उससे कही ज्यादा भीतर का नज़ारा भयानक था। जिस कमरे में ये दोनों भाई सोते थे वहाँ बड़ा सा पलंग जिसमें मच्छरदानी अभी तक लटकी हुई थी। उसका रंग पहले चाहे जो भी रहा हो मगर अब काला पड़ चुका था। इतनी गंदगी कि कमरे में घुसते ही बदबू से कोई कै कर दे। धूल ने अपनी विरासत कमरे के हर कोने में फैला रखी थी। दीवार से लगी मेज हो चाहे छोटी अलमारी, दराज हो या फिर बिस्तर से सटा स्टूल हो। हर जगह धूल-ही-धूल। एक तरफ आलना(कपड़े रखने का स्टेंड जो कि हर बंगाली घरों में हुआ करता था।) कपड़ों का ढेर यू ही लटका हुआ है। उन कपड़ो को देख लगता है कि जैसे कि पानी-साबुन से दूर कर दिया गया हो। उन्हीं कपड़ों के ढेर से एक पुरानी मैली-कुचली शर्ट लेकर दिगंबर निकालता है साथ में एक पैंट निकालते हैं। अपने बड़े भाई को पहनाने के लिए। आज दोनों को बैंक जाना जो है। पेंशन मिलने वाली है। दोनों को वहाँ बैंक में हाजरी लगानी है। पैसे निकालने है ताकि ज़रूरत का सामान ला सके। दिगंबर अपने बड़े भाई को बड़े जतन के साथ कपड़े पहनाते हैं। फिर वे उन्हें कुर्सी में ही बिठाकर खुद तैयार होने चले जाते है। कभी दोनों भाई शिलचर के प्राथिक स्कूल में शिक्षक हुआ करते थे। साथ-साथ नौकरी और घर दोनों ही भाईयों ने बड़े शौक से बनवाया था। पूरा घर भरा-भरा सा था। पत्नी और बच्चों की किलकारियों से घर गूंजा करता था। फिर एक-एक करके सब कुछ बर्बाद हो चला। पहले दिगंबर की पत्नी बिमारी के चलते चल बसी। फिर विश्वंबर की धर्मपत्नी ने दोनों बच्चों की ज़िम्मेदारी सम्भाली। बेटी की शादी तक सब ठीक था। मगर एक दिन वह भी संसार को अलविदा कर गयी।
सड़क के किनारे कड़ी धूप में दोनों काफी देर से खड़े हैं। कोई ऑटो वाला रुक नहीं रहा है। कोई रिजर्व जाना चाहता है तो कोई दोनों बूढ़ों की मजबूरी का फायदा उठाकर ज्यादा पैसे लेने की कोशिश करता है। इसी के चलते लगभग आधे घंटे से दोनों भाई खड़े किसी रहमदिल ऑटो वाले की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनके पास सिर्फ बैंक जाने तक के पैसे है, कुछ पैसे छोटे भाई ने अपनी जेब में रखे हैं ताकि बैंक से आते वक्त दवाई लेते हुए जाए। अपने बड़े भाई को काफी देर से सहारा देकर पकड़ते हुए खड़े रहने के कारण अब दिगंबर के भी बाजुओं में दर्द होने लगा है। वह अपने भाई को सड़क के किनारे ही बिठा देते हैं। काफी देर प्रतीक्षा करने के बाद एक ऑटो वाला रुकता है। दिगंबर उसे बैंक ले जाने के किराया पूछते है तो ऑटो वाला चालीस रुपये मांग लेता है। दिगंबर के काफी बहस करने पर ऑटो वाला तीस पर मानता है जबकि बैंक तक जाने के लिए सिर्फ़ बीस रुपए लगते थे। ये था उस समय शिलचर के ऑटो रिक्शा का रेट। दिगंबर जब ऑटो वाले से अपने बड़े भाई विश्वंबर को ऑटो में बिठाने के लिए मदद मांगता है तो ऑटो वाला मुँह बनाते हुए पहले तो मना कर देता है लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर वह उन्हें सहारा देकर बिठा देता है।
बैंक पहुँचने के बाद दोनों भाई बैंक की सीढ़ियों में बड़ी मुश्किल से चढ़ाई करते हुए उपरी मंजिल पहुँचते हैं जहाँ आज बहुत भीड़ लगी हुई है। विशेषकर पैंशन लेने वालों की लाइन सबसे लम्बी है। सभी प्रकार के लोग वहाँ आए हुए हैं। लेकिन ये क्या? कुछ जवान नव-विवाहित लोग पैंशन वाली लाइन लगे कुछ बुढ्ढे-बुढ्ढियों के पास क्या कर रहे होंगे? दिगंबर को बैंक का ये दृश्य देख समझते देर नहीं लगी। क्योंकि उनके साथ भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। करीब चार साल पहले की बात है। इसी तरह अपने पैंशन की पासबुक लिए वह बैंक के काउंटर के सामने खड़े थे। पास ही उनका बेटा अमल खड़ा था। बैंक के बाहर गाड़ी में उसकी नव-विवाहिता पत्नी इंतज़ार कर रही थी। दिगंबर ने काउंटर में पासबुक दिया और अपनी पैंशन की रक्म निकाली जिसमें से आधी से ज्यादा रकम अमल ले लेता है। दिगंबर कुछ कहते इससे पहले अमल बोल उठता है –“इतने पैसों का तुम क्या करोगे बाबा? मैं जाता हूँ। वह इंतज़ार कर रही है।” दिगंबर को उस दिन पैसों की ज्यादा ज़रूरत तो नहीं थी लेकिन उन्हें निकालने पड़े थे। अपने बेटे की इच्छाओं की पूर्ति के लिए उन्हें पैसे निकालने पड़े। आखिर पिता जो थे। बेटे के लिए कर्तव्य का पालन जो करना था। अपने बेटे को उन्होंने इसी तरह जाते हुए देखा था। इसके बाद जितनी बार भी मिला वह अपने पिता से पैसों के लिए मिला। फिर न जाने क्या हुआ उसका आना भी बंद हो गया और फोन पर भी कभी बात नहीं होती।
दिगंबर! अपना नाम सुनते ही जैसे वह नींद से जागे हो इस प्रकार वह चेतना में लौट आते हैं। विश्वंबर उनको लगातार कुछ कहे जा रहे थे। मगर उनको अपने बेटे की याद में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
विश्वंबर –‘मैं जानता हूँ तू फिर से उसी बात को याद करके बैठ गया है। देख तेरी लापरवाही लाइन कितनी आगे निकल गयी है। अगर तू ऐसे बुत न बना होता तो कब का हमें पैंशन मिल जाता। अब यही खड़े रहना है? चल-चल आगे चल। दोनों के पासबुक काउंटर पर दे और पैसे निकाल। जल्दी से घर चले जाएंगे। कौन इस चिलचिलाती गर्मी में मरेगा यहाँ।’
दिगंबर –‘घर जाकर क्या करना है तुम्हें? घर में कोई है जो हमारा इंतज़ार कर रहा हो? पैंशन के बहाने ही सही एक बार तो घर से निकलते हो। यहाँ देखो कितने लोग है। लोगों को देखकर थोड़ा अच्छा लगता है। सुकून मिलता है। वरना घर का अकेलापन तो मुझे काटने को दौड़ता है।’
विश्वंबर –‘बेकार की बात मत कर दिगंबर। मैं जानता हूँ घर का अकेलापन बगैरह कुछ नहीं है। सब बकवास है। तू यहाँ पैंशन लेने के बहाने क्यों मुझे भी साथ ले आता है। अपने बेटे को ढूँढने आता है। सोचता है कि काश तेरा बेटा यहाँ आ जाए तुझसे मिलने के लिए। पैसे लेने के बहाने ही सही। अरे तुझे कितनी बार समझाया है कि अमल गया अपनी पत्नी के साथ नया संसार बसाने। उसे अब तेरी ज़रूरत नहीं है। तू अब उनके नए संसार में बूढ़ा लगाम है। वरना वह नहीं आता तुझसे मिलने? शादी के बाद ही जब उसने अपने ससुर के दिए फ्लेट में रहने चला गया था तभी समझ गया था कि वह लड़का हाथ से निकल चुका है। जब भी तुझसे मिलने आता तो पैसों के लिए आता था। भूल गया था कि किस तरह से उसकी माँ के जाने के बाद तूने उसकी माँ और पिता  बनकर उसका लालन-पालन किया है। उस दिन भी आया था वह। वो तो मैं समझ चुका था इसलिए बहाने से उसे तुझसे मिलने रोक दिया था। वरना वह सिर्फ पैसों के लिए ही आता। इतना स्वार्थी लड़का मैंने तो नहीं देखा कभी। राम-राम!’
दिगंबर –‘बस करो दादा। सबके सामने अभी ये सब क्यो कह रहे हो। मुझसे और सहा नहीं जाता। तुम्हारी बातें काँटों जैसी चुभती है।’ दिगंबर किसी प्रकार अपने मन पर काबू पाते हैं। इसी बीच उनकी बारी आती है तो काउंटर पर वे अपना पासबुक देते हैं। पासबुक अपडेट हो जाता है। फिर पैंशन निकालने के लिए रसीद लेकर वे भरते हैं तथा कुछ पैसे ले लेते हैं। विश्वंबर को भी पैंशन की रकम निकालकर गिनते हुए वह उन्हें पकड़ाते हैं।
विश्वंबर–‘रख-रख। ये पैसे रख। मैं क्या इनका अचार डालूंगा? जानता नहीं कि मैं देख नहीं सकता। पूरी तरह से तुझी पर निर्भर हूँ।’
दिगंबर –‘फिर भी। आपके हाथों में पैसे पकड़ाना मेरा दायित्व है।’
विश्वंबर–‘बड़ा आया दायित्व की बात करने वाला। चल-चल घर चल।’
दोनों बूढ़े धीरे-धीरे बैंक की सीढ़ियाँ उतर कर किसी प्रकार नीचे आते हैं। फिर से वही ऑटो की जद्दोजहद शुरु होती है। फिर से वही पुरानी विरान से पड़े घर में जाकर अपने बचे-कुचे दिन काटने के लिए……..

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