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आजकल अक्सर समाचार पत्रों ,टेलीविजन और सामाजिक संचार पटलों पर चिकित्सकों , अस्पताल ले कर्मचारियों से दुर्व्यवहार ,मार पिटाई , और अब दुष्कर्म -हत्या की खबरें आती रहती हैं आज से पहले भी ऐसी दुर्घटनाएं होती थी ।घटना की गंभीरता को देखते हुये प्रतिक्रियायें भी पढ़ने को मिलती थी पर कर्मचारियों के साथ बलात्कार और फिर हत्या जैसा अकल्पनीय और जघन्य अपराध देखने को नहीं मिला था । सार्वजनिक उबाल के बाद बात जब ठंडी होने लगती है तब फिर वही ढाक के तीन पात । अशांति की जड़ में जाने की बजाय एक अस्थायी मरहम पट्टी कर दी जाती है । बात फिर आई गयी हो जाती है । क्या किसी नीति नियामक ने बिना किसी आडंबर या लाव लश्कर के किसी सार्वजनिक अस्पताल के अंदर उसकी ओ पी डी ,उसके आपात कालीन स्थान , उसके परिसर ,उसके फुटपाथ ,सार्वजनिक उपयोग के जगहों को घूम घूम कर निज नयनों से देखा भी है या देखने की कोशिश भी की है कि वहाँ चिकित्सक या पराचिकित्सक ( नर्स ,सहायक ) किन विषम परिस्थितियों में काम करते हैं। कितनी अपार भीड़ लगती है हमारे अस्पतालों की ओ पी डी ,वार्ड ,आपातकालीन सेवाओं के अंदर । एक के ऊपर एक लोग चपे रहते हैं । कंधे छिलते रहते हैं । पसीना चूता रहता है पर लोग काम करते रहते हैं । किसी ने सोचा की मरीजों की संख्या के अनुसार इंफ्रास्ट्रक्चर हैं । काम करने की मौलिक सुविधाएं हैं भी या नहीं । सारे अभावों और तनाव के बीच चिकित्सक अपनी बुद्धि , क्षमता और कौशल के अनुसार उस कांव कांव के बीच काम करता रहता है । पीड़ित भी क्या करए उसके लिए अपना दुख ही सबसे बड़ा है – आपत के हित आपन चेतु , पुनि पुनि कहत आपनो हेतु । निर्धन है । सार्वजनिक अस्पताल ही उसका सहारा है । किसी प्रकार पैसा जुटा कर यहाँ आया है । लंबी लाईन लगी हुई है । उसका नंबर कब आएगा मालूम नहीं । नंबर आते आते डाक्टर के जाने का समय हो गया है । इस बात को लेकर चिल्ल पों मची हुई है । घमासान मचा हुआ है । डाक्टर परेशान । मरीज परेशान । सर्वत्र हलकान ।
इन परिस्थितियों को आकर कोई देखे तो सही । अफसरों की फौज के साथ नहीं । अप्रत्याशित -अघोषित वास्तविक स्थिति का मूल्याकंन तो करे । उससे रूबरू तो हो । कितनी करुणा पसरी हुई है हमारे सार्वजनिक अस्पतालों में । कितने आबहव , किस दबाव ,किस तनाव के बीच अधिकांश चिकित्सक विशेषतः विशेषज्ञ जो लोकप्रिय हैं , आपातकालीन विभागों में हैं । मैं यह नहीं कह कहता सभी चिकित्सक दूध के धुले -पुछे हैं पर यह अवश्य कह सकता हूँ की अधिकांश अपने प्रोफेशन के प्रति ,अपने रोगियों के लिए सजग और सचेष्ट रहते हैं । सेवा भाव की मात्रा कम ज्यादा हो सकती है पर कोि सेवा शून्य होगा ऐसा कम ही होता है । कर्तव्यपरायणता के भाव एक मात्र कारण यह है कि प्रत्येक चिकित्सक ने अपने पाँच वर्ष के छात्र जीवन में अपने गुरुजनों को रोगियों की सेवा में तत्पर देखा है । उनके अंदर करुणा और त्याग के कण देखे हैं । इसके साथ साथ मरीजों की व्यथा ,उनके कष्ट ,उनके घाव और दयनीय परिस्थतियों को देखा है । मरहम -पट्टी की है । यह सब उम्र के उस पड़ाव पर देखा होता है जब अंतर्मन निर्मल होता है और कुछ करने की तमन्ना होती है । ऐसा किशोर युवा होकर क्यों विपथगामी हो जाएगा ?
नीति नियामक जब स्वयं अपनी आँखों से सार्वजनिक अस्पतालों के एक एक कोने का शांतमन से दत्त -चित्त होकर दौरा करेंगें और वहाँ व्याप्त करुणा ,सेवा ,अभाव -तनाव का साक्षात् करेंगें तब स्वयं अव्यवस्थाओं के स्थायी समाधान के लिए विवश हो जायेंगे। चिकित्सालय करुणा सेवा के स्थान हैं संघर्ष -घमासान की जगह नहीं ।
डाक्टर श्रीधर द्विवेदी ,वरिष्ठ हृदय रोग विशेषज्ञ ,नेशनल हार्ट इंस्टिट्यूट ,नई दिल्ली