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हिंदी दैनिकों का नियमित पाठक हूँ। कतिपय अखबारों में रविवार के संपादकीय पृष्ठ पर एक ख्यात एजेंडवादी लेखक का आलेख नियमित छपता हैं।ये एजेंडवादी आलेख हर हप्ते बड़े जहीन तरीके से अपनी व्यक्तिगत घृणा से सने वामपंथी वैचारिक जहर को पाठकों के अंदर संप्रेषित करता है।
अक्सर ये आलेख भारत की विदेश नीति और बाहरी देशों की राजनीतिक घटनाओं पर लिखे होते हैं।
लेखक महोदय के आज 3 अक्टूबर को छपे एक आलेख का शीर्षक है “हिटलर के मुल्क में मार्क्सवादियों की जीत”।उन्होंने ‘जर्मनी’ की जगह ‘हिटलर का मुल्क’ और वामपंथ की चुनावी जीत के संदेश को इस तरह परोसा है जैसे दुनिया भर में राष्ट्रवाद पर वामपंथियों की जीत का सिलसिला बस शुरू हो ही गया है।जब कि वहां 735 सीटों वाली संसद के चुनावों में एक तिहाई से भी कम 206 सांसद,मार्क्सवादी विचार की वाहक पार्टी से चुने गए हैं।
वो हिटलर के देश मे…लिख कर उसकी बर्बरता की याद दिलाना चाहते हैं पर वामपंथियों की बर्बरता पर भाई मौन रहते हैं।सनद रहे कम्युनिष्टों ने हिटलर से कम नर संहार नहीं किये हैं।
कई वर्षों की एंटी इनकंबेंसी और कोरोना आपदा से झल्लाई हुई जनता के गुस्से के बावजूद सत्तारूढ़ गठबंधन से 196 सांसद चुन कर आये हैं।अन्य छोटी पार्टियों के समर्थन से अभी भी सत्तारूढ़ गठबंधन की सरकार की संभावना को अनदेखी करते हुए लेखक एंजेला मर्केल पर गढ़ी हुई छवि का आरोप लगाते हुए मोदीजी की तुलना उनसे करते दिखते हैं।वे एंजेला मर्केल को हंटर वाली कहते हुए उनकी पूर्व भद्र और लोक-मुखी नेत्री की छवि पर प्रहार करते हैं।इस कथन से वे आज के जनमुखी नेता नरेंद्र मोदी के काल्पनिक मुखौटे को भी एक दिन उतर जाना है जैसा नरेटिव सेट करने की कोशिश करते हैं।
कन्हैया कुमार के कांग्रेस जॉइन करने से लेखक तिलमियाये नजर आते हैं।वे बताते हैं कि हिटलर के देश में मार्क्सवाद के पौधे फिर से प्रस्फुटित हो रहे हैं।वस्तुतः वे भारतीय वामपंथ की एक दम नई कमाई हुई अर्जित और गढ़ी हुई बौद्धिक संपत्ति (कन्हैया कुमार) के कांग्रेस में जाने से निराश दिखते हैं।दूसरे तरीके से वे कहना ये चाहते हैं कि जिस तरह जर्मनी में सेंट्रिक पार्टियों को वामपंथी के साथ मिल कर सरकार बनाने की बाध्यता आन पड़ी है ठीक उसी तरह कांग्रेस और वामपंथी मिल कर भारत की सत्ता पर काबिज हो सकते हैं पर आज के भारतीय वामपंथी हड़बड़ाहट में अपनी विन-विन(win-win) स्थिति पर कुठाराघात कर रहे हैं।लेखक कन्हैया कुमार के कांग्रेस में जाने जैसी घटना को पुरानी श्रृंखला का नया नमूना मानते हैं।वे 1975 के चमकते वामपंथी नेता देवी प्रसाद त्रिपाठी से लेकर 1999 के एसएफआई के तेजतर्रार विद्यार्थी नेता नासिर अहमद की एक लंबी फेहरिश्त गिनाते हैं। उनका मानना है कि संभावना वाले वामपंथी नेता कांग्रेस में जा कर अपनी मारक क्षमता को निस्तेज कर लेते हैं।वे उदाहरण देते हुए ये कहना चाहते हैं कि आज के भारतीय वामपंथी नेता सत्ता की हड़बड़ी में अपनी निर्णायक राजनीतिक बढ़त को अपने ही कदमों तले रौंद देते हैं।अब इन्हें कौन समझाए की वामपंथियों का यही मूल चरित्र है।उनका सिद्धांत ही बंदूक से सत्ता प्राप्त करना है जो आज के दिन काल-बाह्य विचार है।जैसे ही इन नेताओं को ये समझ आता है वे फटाफट कांग्रेस की गोद में बैठ जाते हैं।वैसे भी दोनों राजनीतिक दलों का पुराना अनकहा समझौता रहा है कि शिक्षा संस्थान तुम्हारे (वामपंथियों के) और सत्ता हमारी (कांग्रेस की)।विडम्बना ये है कि कांग्रेस के अलावा इनकी पूछ कहीं होती नहीं और वो पार्टी खुद एक डूबता हुआ जहाज है।अब तो कन्हैया कुमार स्वयं ये कह कर कांग्रेस में जा रहे हैं कि वे अपनी व्यक्तिगत क्षमता से 135-36 साल की राजनीतिक पार्टी को डूबने से बचा लेंगें।इस बड़बोले पन और कांग्रेस की दयनीय स्थिति पर क्या कहा जाए!
अंत में लेखक की तिलमिलाहट बड़ी तीव्रता से अपना गुबार निकालते हुए उनसे ये तक कहला देती है कि “यदि डी.राजा,विनय विश्वम,अतुल अंजान या फिर अमरजीत कौर को ये भ्रम है कि कन्हैया कुमार को इन लोगों ने तैयार किया है,तो उसका कुछ नहीं किया जा सकता।”
आगे लेखक का रोष और तीव्र होता है और वे लिखते हैं ” दरअसल,कन्हैया कुमार को बीजेपी ने एक ऐसे पोलिटिकल पंचिंग बैग के रूप में तैयार किया,जिसे तथाकथित राष्ट्रवादी जब चाहें टुकड़े-टुकड़े गैंग बोलकर घूंसे लगा सकते हैं।” “….जिस दिन टुकड़े टुकड़े गैंग बोलना बन्द हो जाएगा ,कन्हैया की ब्रांडिंग धूमिल हो जाएगी।”
जो भी हो वामपंथी सरोकार के इस लेखक ने अंतिम बात को ठीक पकड़ा है कि संबित पात्रा जैसे भाजपाई लोगों ने राहुल गांधी और कन्हैया कुमार जैसे टटपुँजियों की बातों को टीवी चैनलों पर इतने इको-इफेक्ट के साथ गुंजायमान किया कि वे फेमस हो गए।इन दोनों बौनों को इतना बड़ा फलक देकर चतुर भाजपाइयों ने गहरे विचारवान वामपंथी और समझदार कांग्रेसियों को हासिये पर धकेल दिया है और दोनों पार्टियां भाजपा की पिच पर खेलने पर मजबूर है।
अंतरराष्ट्रीय विषयों के गहरे जानकर लेखक पुष्परंजनजी शब्दों और घुमावदार वाक्यों के कलाकार लेखक हैं। अपने इस आलेख में भी उन्होंने बड़े महीन तरीके से अपना एजेंडावादी लेखन जारी रखा है।जर्मनी की राजनैतिक घटना को भारत के परिपेक्ष्य में पाठकों के सामने रख कर नरेटिव सेट करना एक लेखकीय कलाबाजी तो है ही..।कुछ भी हो ये तो मानना पड़ेगा कि पुष्परंजन जी कलम के कलाकार हैं।
-संवेद अनु