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आस पास के किसी गाँव में कॉलेज न होने से मुझे पढ़ने के लिए में शहर आना पड़ा । यहां किसी रिश्तेदार का एक कमरे का बिना किराये का मकान मिल गया था।
आस-पास निर्धन लोगो के घर थे। यहां अकेले होने के कारण सारे काम मुझे खुद ही करने पड़ते थे। खाना-बनाना, कपड़े धोना, घर की साफ़-सफाई करना, सबसे बुरा लगता था बर्तन धोना ।
कुछ दिन बाद एक पड़ोसी लड़की अपने छोटे भाई के साथ मेरे रूम पर आई। आते ही सवाल किया:- “क्या तुम मेरे भाई को ट्यूशन पढ़ा दोगे ?”
मेंने कुछ सोचकर मना कर दिया । मेने कहा “टाइम नही है, मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब होगी।” उसने कहा “बदले में मैं तुम्हारा खाना बना दूँगी।” शायद उसे पता था कि मुझे खाना खुद बनाना पड़ता है ।
मैं चुप रहा तो वह और लालच दे कर बोली :-मैं बर्तन भी साफ़ कर दूंगी।” अब मुझे भी लालच आ गया और बोला “कपड़े भी धो दो तो पढ़ा दूँगा।” वो सहमत होगई।
अब उसका रोज घर में आना-जाना होने लगा। वो काम करती रहती और मैं खुद पढ़ने के साथ साथ उसके भाई को पढ़ा रहा होता। ज्यादा बात नही होती। उसका भाई सातवीं कक्षा में था। खूब होशियार भी था। इस कारण कोई ज्यादा माथा-पच्ची नही करनी पड़ती थी ।कभी-कभी वह बिना कहे बड़े ही करीने से घर की सफाई कर दिया करती थी। यूँ ही दिन गुजरते चले गए ।
एक रोज शाम को वो मेरे घर आई तो उसके हाथ में एक बड़ी सी कुल्फी थी।
मुझे दी तो मैंने पूछ लिया:-” कहाँ से लाई हो ? “घर से” उसने उदास चेहरे से जवाब दिया, “आज बरसात होने के कारण कुल्फियां बिक नहीं पाईं।”
मैंने फिर कहा:-” मग़र तुम्हारे पापा तो समोसे टिक्की का ठेला लगाते हैं?
उसने कहा- “वो,सर्दियों में समोसे-टिक्की और गर्मियों में कुल्फी। और आज बरसात हो गई तो कुल्फी नही बिकी, मतलब ठण्ड के कारण लोग कुल्फी नही खाते।”
“ओह” मैंने गहरी साँस छोड़ी।
मैंने आज उसे गौर से देखा । गम्भीर मुद्रा में वो उम्र से बडी लगी। समझदार भी, मासूम भी। धीरे-धीरे वक़्त गुजरता रहा।
मैं कभी-कभार उसके घर भी जाने लगा। विशेषतौर पर किसी त्यौहार या उत्सव पर। कई बार उससे नजरें मिलती तो मिली ही रह जाती। पता नही क्यों होता था ऐसा !
समय बीतता गया, इस बीच कुछ बातें मुझे उसके बारे में पता चलीं जैसे कि वो बूटे काढ़ने का काम करती है। मतलब किसी ओढ़नी या चुनरी पर धागे से गोल- गोल चमकीले बिंदु बनाना। मैंने बूटे काढ़ने का काम करते उसे बहुत बार देखा था।
एक दिन मेंने उसे पूछ लिया:-” ये काम तुम क्यों करती हो?”
वह मुस्कुरा के बोली:-“पैसे मिलते हैं।”
“क्या करोगी पैसों का?”
“इकठ्ठे करती हूँ।”
“कितने हो गए?”
“यही कोई छः-सात हजार।”
“अरे, तो मुझे हजार रुपये उधार दे दो ।
जल्दी लौटा दूंगा।” मैंने मांग लिए।
उसने सवाल किया:-“किस लिए चाहिए?”
“कारण पूछोगी तो रहने दो।” मैंने मायूसी के साथ कहा।
वो बोली अरे मेंने तो “ऐसे ही पूछ लिया। तू माँगे तो सारे दे दूँ।” उसकी ये आवाज़ अलग सी जान पड़ी। मग़र मैं उस वक़्त कुछ समझ नही पाया। पैसे मिल रहे थे उन्ही में खोकर रह गया। एक दोस्त से उधार लिए थे और कमबख्त दो – तीन बार वापस माँग चूका था।
एक दिन मेरी जेब में गुलाब की टूटी हुई सूखी पंखुड़ियाँ मिलीं मग़र मैं यही सोच कर रह गया कि कॉलेज के किसी दोस्त ने चुपके से डाल दी होगी।
उस समय इतनी समझ भी नही थी ।
एक दिन कॉलेज की मेरी एक दोस्त मेरे घर आई कुछ नोट्स लेने। मैंने दे दिए। और वो मेरे घर के बाहर खडी थी और मेरी दोस्त को देखकर बाहर से ही तुरंत अपने घर वापस हो गई । फ़िर दूसरे दिन दोपहर में ही आ धमकी और आते ही कहा:-” मैं कल से तुम्हारा कोई काम नही करूंगी।”
मैने पूछा “क्यों ?”
बड़ी देर तो उसने जवाब ही नही दिया। फिर धोने के लिए मेरे बिखरे कपड़े समेटने लगी।
मैने कहा “कहीं बाहर जा रही हो?”
उसने कहा “नही। बस काम नही करूंगी।
और मेरे भाई को भी मत पढ़ाना कल से।”
मैने कहा “अरे तुम्हारे हजार रूपये कल दे दूंगा। कल घर से पैसे आ रहे हैं।”
मुझे पैसे को लेकर शंका हुई इसलिए पक्का वादा कर दिया ।
“पैसे नही चाहिए मुझे।” जवाब मिला
“तो फिर ?”
मैने आँखे उसके चेहरे पर स्थिर कीं । उसने एक बार मुझसे नज़र मिलाई तो लगा हजारों प्रश्न है उसकी आँखों में।
मग़र मेरी समझ से बाहर थे। उसने कोई जवाब नही दिया। मेरे कपड़े वह अपने घर से ही धोकर लाया करती थी। दूसरे दिन न वह आई न उसका भाई आया।
मैंने जैसे-तैसे खाना बनाया। फिर खाकर कॉलेज चला गया। दोपहर को आया तो सीधा उसके घर चला गया। यह सोचकर कि कुछ कारण तो पता चले काम नही करने का। उसके घर पहुंचा तो पता चला की बीमार है। छप्पर के नीचे पड़ी चारपाई पर लेटी थी अकेली। घर में उसकी मम्मी थी जो काम में लगी थी। मैं उसके पास पहुंचा तो उसने करवट बदलकर मुँह फेर लिया ।
मैंने पूछा:-” दवाई ली क्या कुछ ?”
“नही।” छोटा सा जवाब दिया बिना मेरी तरफ देखे।
मैने कहा “क्यों नही ली?
उसने कहा “मेरी मर्ज़ी। तुझे क्या ?
“मुझसे क्यों नाराज़ हो ये तो बता दो।”
तुम सब समझते हो, कोई बच्चे नहीं हो, जवाब दिया बिना मेरी तरफ देखे।
मैने कहा “अच्छा दवा क्यों नही ली?
उसने कहा “मेरी मर्ज़ी। तुझे क्या?
” अच्छा मुझसे नाराज़ क्यों हो यही बता दो।”
“तुम सब समझते हो, फिर मैं क्या बताऊँ।”
” मुझे कुछ नही पता। सच्ची नहीं पता , तुम्हारी कसम। सुबह से परेशान हूँ। बता दो, प्लीज ।”
“नही बताती । जा यहाँ से।” इस बार आवाज़ रोने की थी।
मुझे जरा घबराहट सी हुई। डरते-डरते उसके हाथ को छूकर देखा तो उछल कर रह गया। बहुत गर्म था। मैंने उसकी मम्मी को पास बुलाकर बताया। फिर हम दोनों उसे हॉस्पिटल ले गए। डॉक्टर ने दवा दी और एडमिट कर लिया।
कुछ जाँच वगेरह होनी थी। क्यूंकि शहर में एक दो डेंगू के मामले आ चुके थे। मुझे अब चिंता सी होने लगी थी। उसकी माँ घर चली गई उसके पापा को बुलाने। मैं उसके पास अकेला था। बुखार जरा कम हो गया था। वह गुमसुम सी लेटी थी और दीवार को एकटक घूरे जा रही थी ।
मैंने उसके चैहरे को सहलाया तो उसकी आँखों में आँसू आ गए और मेरे भी।
मैंने भरे गले से पूछा:- “बताओगी नही?”
उसने आँखों में आँसू लिए मुस्कराकर कहा:-” अब बताने की जरूरत नही है। पता चल गया है कि तुझे मेरी परवाह है । है ना?”
मेरे होठों से अपने आप ही एक अल्फ़ाज़ निकला:- “बहुत।”
उसने कहा “बस । अब मैं मर भी जाऊँ तो कोई गम नही।” उसने मेरे हाथ को कस कर दबाते हुए कहा।
उसके इस वाक्य का कोई प्रत्युत्तर मेरे लबों से नही निकल सका मग़र आँखे प्रत्युत्तर को संभाल न सकीं, बरस पड़ीं ।
वह उठ कर बैठ गई और बोली, रोता क्यूँ है पागल ? मैने जिस दिन पहली बार तेरे लिए रोटी बनाई थी उसी दिन से चाहती हूँ तुझे। एक तू था पागल ! कुछ समझने में इतना वक़्त लगा दिया !”
फिर उसने अपने साथ मेरे आँसू भी पोछे। थोडी देर में उसके घर वाले आ गए। रात हो गई थी। उसकी हालत में कोई सुधार नही हुआ। देर रात तक उसकी बीमारी की रिपोर्ट आ गई, पता चला कि उसे डेंगू है। ये जान कर आग सी लग गई मेरे सीने में।
खून की कमी हो गई थी उसे। पर ईश्वर की कृपा ये हुई कि मेरा खून मैच हो गया था उससे । दो बोतल खून दिया मैंने तो जरा सुकून सा मिला दिल को। उस रात वह अचेत सी ही रही। बार-बार अचेत अवस्था में उल्टियाँ कर देती थी। मैं एक मिनिट भी नही सोया उस रात ! डॉक्टरों ने दूसरे दिन बताया कि रक्त में प्लेटलेट्स की संख्या तेजी से कम हो रही है, खून और चढ़ाना होगा। मैंने अपना और खून देने का आग्रह किया मग़र रात को देने के कारण डॉक्टर ने मना कर दिया ।
मैंने मेरे कॉलेज के दो चार दोस्तों को बुलाया। साले दस एक साथ आ गए। खून दिया। हिम्मत बढ़ाई । पैसों की जरूरत हो तो देने का आश्वासन दिया और चले गए। उस वक़्त पता चला दोस्त होना भी कितना जरूरी है। पैसों की कमी नही थी, घर से आ गए थे।
अगली रात को वो कुछ ठीक दिखी और बातें भी करने लगी। रात को सब सोए थे पर मैं उसके पास बैठा जाग रहा था।
उसने मुझे कहा:- “बीमार मैं हूँ तू नही। ऐसी हालत क्यों बना ली है तुमने?”
मैंने कहा:-” तू ठीक हो जा पहले। मैं तो नहाते ही ठीक हो जाऊंगा।”
उसने उदास होकर पूछा,” एक बात बता “
मैने कहा “क्या ?”
उसने कहा “मैंने एक दिन तुम्हारी जेब में गुलाब डाला था तुझे मिला?
मैने कहा “गुलाब की पंखुड़ियाँ मिली तो थीं ।
“हाँ” उसने कहा “कुछ समझे थे ?”
“नही , क्यूँ ?” “सोचा था कॉलेज के किसी दोस्त का मज़ाक है।”
“और वो रोटियाँ?”
“कौन सी ? “
“दिल के आकार वाली।”
“वो अब समझ में आ रहा है।”
“बुद्धू हो”
“हाँ ” मैने कहा
फिर वह हंसती रही । काफी देर तक। निश्छल मासूम हंसी।
“कल सोए थे क्या?”
“नही।”
“अब सो जाओ । मैं ठीक हूँ मुझे कुछ न होगा।”
सचमुच नींद आ रही थीं। मग़र मैं सोया नही। वह फिर से सो गई पर घंटे भर बाद वापस जाग गई। मैं जाग ही रहा था।
“सुनो “
“हाँ ” मैं अलसाया सा बोला।
“ये बताओ ये बीमारी छूने से किसी को लग सकती है क्या?”
“नही, सिर्फ एडीज मच्छर के काटने से लगती है।”
“इधर आओ।”
मैं उसके करीब आ गया।
“एक बार गले लग जाओ। अगर मर गई तो ये आरज़ू बाकी न रह जाए।”
“ऐसा ना कहो प्लीज।” मैं इतना ही कह पाया।
फिर वो मुझसे काफी देर तक लिपटी रही और सो गई।
फिर उसे ढंग से लिटाकर मैं भी एक खाली बेड पर सो गया।
सुबह मैं तो उठ गया पर वो नही उठी और सदा के लिए सो गई। मैंने उसे जगाने की बहुत कोशिश की थी, पर आँखे न खोली उसने। वो सँसार को और मुझे छोडकर इस दुनिया से ही जा चुकी थी, रोता बिलखता छोड़कर, मगर एक सीख देकर ।
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प्यार करने वाले इंसान की सदा कदर करें, प्यार एक ऐसा एहसास है जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता । एक दूसरे की परवाह, एक दूसरी की खुशियां ही सच्चा प्यार है । दुनिया में बेइंतहां चाहने वाले बहुत कम लोगो को नसीब होते हैं , और जिनके पास ऐसे लोग होते है उनकी जिंदगी इस धरती पर ही जन्नत होती है।
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