20 Views
बदरपुर श्रीगौरी गाँव अपने प्राकृतिक सौंदर्य का भंडार था, जहाँ छोटे-बड़े कच्चे-पक्के मकान और नन्हे-नन्हे पोखरों का घेरा था। गाँव के पास से गुज़रती रेल लाइन के किनारे चावल के खेतों की हरियाली मन मोह लेती थी। सुनहरी मिट्टी की पगडंडियों के किनारे खिले जंगली फूलों की रंगत आँखों को तरो-ताज़ा कर देती थी।
उसी पगडंडी पर चंपा पानी से भरी कलसी को कमर पर सँभाले अपनी दो वर्ष की सुमना को लेकर घर जा रही थी। साथ में उसकी बड़ी बेटी तारा भी थी। सुमना जितनी गोरी थी, तारा उसके बिल्कुल विपरीत थी। अक्सर तारा को लोग उसके रंग-रूप के कारण चिढ़ाया करते थे, पर वह बेचारी, मात्र छह वर्ष की बच्ची, क्या जाने कि रंग-रूप क्या चीज़ है और एक लड़की के जीवन में उसका क्या महत्व है? वह तो बस ‘काली’ कहलाने पर इसलिए रो पड़ती थी कि पिछली बार जब उसने काली पूजा में माँ काली की विकराल मूर्ति देखी थी, तो डर गई थी। बड़ी मुश्किल से उसके पिता ने माँ काली के बारे में समझाकर उसे शांत किया था। साथ ही, यह भी बताया था कि तारा नाम भी माँ काली का ही सौम्य रूप को कहा जाता होगा है और उन्हें माँ तारा कहकर ही पूजा जाता है।
तारा अपनी आँखें मलते हुए, सिसक-सिसक कर रोती हुई चल रही थी। वहीं सुमना भी रो रही थी। फ़र्क़ बस इतना था कि एक को माँ से मार पड़ी थी, तो दूसरी को बहन से।
बात यह थी कि सुमना और तारा, दोनों आपस में जितना प्यार से रहती थीं, वहीं किसी भी बात पर लड़ भी पड़ती थीं। अकसर सुमना तारा को मारती थी। तारा जानती थी कि सुमना अभी शिशु है, इसलिए उसे किसी चीज़ की समझ नहीं है। बड़ी बहन होने के नाते वह अपनी नन्ही-सी गुड़िया जैसी बहन की हर ज़िद और बदमाशियों को बर्दाश्त करती और उसे प्यार से सँभाले रखती। लेकिन कभी-कभी उसे भी लगता कि इतना प्यार कहीं बहन को बिगाड़ न दे और वह उसके सिर चढ़कर न बोलने लगे।
आज बात कुछ यूँ हुई कि चंपा अपनी दोनों बेटियों को लेकर पोखर में नहाने आई थी। माँ ने तारा और सुमना को कड़ी हिदायत दी थी कि वे पानी में बिल्कुल न उतरें। दोनों को ही उसने पानी की कलसी भर कर पोखर से दूर बिठा रखा था। पोखर के किनारे दोनों गीली मिट्टी लेकर खेलने लगी थीं। आज घर पर कोई न होने की वजह से चंपा को मजबूरन दोनों बेटियों को साथ लाना पड़ा था।
चंपा बच्चों पर नज़र रखते हुए जल्दी से स्नान करके, कपड़े बदलकर उनके पास आई। पर इधर केवल कुछ ही क्षणों में दोनों बच्चियों ने माँ की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर गीली मिट्टी से खुद को सान लिया था। जब माँ ने डाँट लगाई, तो तारा ने न जाने किस जोश में अपनी छोटी बहन को एक थप्पड़ जड़ दिया। बेचारी सुमना चीख मारकर रोने लगी। तब चंपा ने तारा को भी थप्पड़ मार दिया। फिर बारी-बारी से उन्हें पोखर के पानी से नहलाकर, कपड़े बदलवाकर वह घर की ओर चल पड़ी।
घर पहुँचकर चंपा दोनों को भोजन कराकर सुला देती है और अपने पति के आने की प्रतीक्षा करती है।
दो दिन बाद काली पूजा और दिवाली है। चौदह साग खाने और बत्ती (दीप) दान का तिथि और समय कब है, यह चंपा को नहीं पता। घर में पंचांग नहीं है। उसके पति रमेश पास के भट्ट बाबू के घर पता करने गए हैं। फिर बाज़ार जाकर उन्हें सभी चीज़ें भी लानी होंगी।
सिलहट के बंगाली समुदायों में दिवाली पर यह नियम है कि उन्हें चतुर्दशी के दिन चौदह तरह के साग-पत्तों को एक साथ पकाकर खाना होता है। फिर संध्या समय की तय तिथि में पुरुषों द्वारा अपने पूर्वजों के नाम पर चौदह दिए जलाने होते हैं। इसके बाद अगले दिन काली पूजा भी होती है और साथ ही दिवाली के लिए घर के हर कोने में महिलाएँ और बच्चियाँ दीप जलाकर सजा देती हैं। दिवाली पर माता काली का आह्वान होता है।
चंपा ने पति से कह दिया था कि मुहूर्त सभी पता कर बाज़ार से कुछ साग-पत्तियाँ खरीद लें। बाक़ी जो भी पत्तियाँ बचेंगी, वह बागान से और पड़ोस से माँग लाएगी। वही अश्विन महीना खत्म हो, कार्तिक महीना भी शुरू होने को है, सो आठ अनाज की संक्रांति भी आने वाली है। इसलिए अन्य सब्ज़ियाँ भी लेते आएँ। अश्विन के आखिरी दिन इन सब्ज़ियों को पकाकर खा लेंगे और फिर आधी सब्ज़ी कार्तिक के पहले दिन के लिए बचा लेंगे। कार्तिक के पहले दिन बासी सब्ज़ी खाकर वर (आशीर्वाद) माँगेगे। सिलहटीयों में यह भी एक प्रथा है।
चंपा इन्हीं सब विचारों में लगी हुई थी। देखते-देखते शाम होने को आई। बगल के घर से चटाई का काम पूरा कर उसकी विधवा ननद झूमि आती है। फिर दोनों ठाकुर घर जाकर दिया-बाती करती हैं, उलू ध्वनि करती हैं और काँसा बजाती हैं।
तब तक रमेश भी घर वापस लौट आता है। उसके हाथों में ढेरों सब्ज़ियों की दो बड़ी थैलियाँ हैं। झूमि इसे ले लेती है और रसोई में रख आती है।
चंपा: “क्यों जी! क्या कहा भट्ट दा ने?”
रमेश: “कल दोपहर 2 बजकर 47 मिनट के अंदर ही साग खा लेना है और फिर बत्ती (दीपदान) के लिए अगले दिन की 5 बजकर 36 मिनट तक का समय बताया है।”
चंपा: “हैं! इतना लंबी पड़ गई क्या तिथि? सर्वनाश!”
रमेश: “इसमें सर्वनाश की क्या बात है? तिथि ही तो है, कभी-कभी दो दिन पड़ जाती है। तुम दोनों औरतें मिलकर ये काम सँभाल लो। मैं तो चला काली पूजा के पटाखे खरीदने।”
चंपा: “और बच्चियों को कौन देखेगा? तुम तो चले बाज़ार फिर से। यहाँ मैं अकेले इन दो शैतानों को सँभाल कर थक गई हूँ जी।”
रमेश: “अच्छा, अच्छा, कोई नहीं। मैं सँभाल लूँगा। लाओ।”
इधर झूमि ने दोनों बच्चियों को उठाया तो सुमना रोने लगी। चंपा उसे लेकर दूध पिलाने लगी।
अगले दिन दोनों ननद-भाभी साग छाँटने बैठीं। रमेश काली पूजा हेतु सामान लेने बाज़ार निकल चुका था। माँ के सामने दोनों बच्चियाँ बैठ अपनी गुड़ियों से खेल रही थीं। इतने में सुमना उठकर पोखर की तरफ़ दौड़ने लगी। तारा ने उसे रोकना चाहा, लेकिन तब तक सुमना पोखर के पानी में अचानक कूद पड़ी।
तारा ने अपनी माँ को चीखकर पुकारा और अपनी जान की परवाह किए बिना ही वह भी पानी में कूद पड़ी। दोनों ननद-भाभी इससे पहले कि कुछ समझ पाते, दोनों बच्चियाँ पानी में डूबने-उतरने लगी थीं।
देवयोग से तारा के हाथों बाँस की कुछ पतली डालियाँ हाथ लगीं, जो कि पोखर में डाली हुई थीं। तारा ने अपनी बहन का हाथ जैसे-तैसे कसकर पकड़ा और खुद को बाँस की डाली के सहारे खींचने लगी।
उधर झूमि ने आनन-फानन में ज़ोर-ज़ोर से चीखना शुरू कर दिया, जिससे आस-पास के पड़ोसी जमा हो गए। सबके सम्मिलित प्रयास से अंत में तारा और सुमना को बचा लिया गया। वही बेचारी सुमना को तारा ने खींचते समय कुछ ज़्यादा ही कसकर पकड़ा था, सो उसका हाथ टूट गया।
लेकिन दोनों बच्चियाँ बचा ली गई थीं। सभी ने तारा के साहस की दाद दी। तारा, जो मात्र छह वर्ष की थी, उसकी सूझ-बूझ ने सुमना की जान बचा ली। सबने तारा की भूरी-भूरी प्रशंसा की। यह वही तारा थी, जिसको कभी उसके काले रंग की वजह से अकसर पड़ोसियों से ताने और मज़ाक सुनने पड़ते थे।
डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती
अतिथि व्याख्याता
सरकारी प्रथम दर्जा कॉलेज के आर पूरा बंगलुरू 36





















