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देश के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग लोक परम्पराएँ विद्यमान हैं जो उस समाज की दर्पण होने के साथ ही स्वयं में एक लम्बा इतिहास समेटे हुए होती हैं. ये लोक परम्पराएँ व्यक्तियों की दैनिक चर्या का अंग होती हैं इसीलिए कोई इन्हें नजरंदाज नहीं कर सकता. उत्तर प्रदेश के विशिष्ट सन्दर्भ में यहाँ विभिन्न सांस्कृतिक अंचलों में अलग-अलग लोक संस्कृतियाँ उस क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्त्व करती हैं जिनका सम्बन्ध वहां के लोगों से सीधे होता है. सांस्कृतिक दृष्टि से यहाँ अवधी, भोजपुरी, बुन्देलखंड, ब्रज और पश्चिमी लोक संस्कृति का सामान्य रेखांकन किया जा सकता है जो अध्ययन और शोध की दृष्टि से ज्यादा उपयुक्त लगता है.ताकि परंपरा बची रहे।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में खेती-किसानी से जुड़े लोकगीतों में ढ़नमुनिया कजरी की एक अलग पहचान है जो मूलतः किसानों द्वारा बरसात के दिनों में खेतों में काम करने के बाद आराम के क्षणों में अपनी थकान मिटाने और इसी बहाने मनोरंजन करने के उद्देश्य से गीत-संगीत की बैठकी में गयी जाती है जिसमें तरह तरह के लोक गीतों की प्रस्तुतियों के माध्यम से घर, परिवार समाज और देश की विभिन्न स्थितियों का चित्रण किया जाता है.. प्रारंभ में इन प्रस्तुतियों का श्रोता वर्ग उनका किसानों का समूह, मोहल्ला अथवा गाँव होता था लेकिन धीरे-धीरे जब ये लोक कलाएं मंच पर स्थान पाने लगीं तो इनके श्रोता वर्ग समाज के अन्य लोग भी बने और उनके द्वारा इनको भरपूर स्नेह, प्यार और दुलार भी मिला. उनकी देख-रेख और संरक्षण में यह कला खूब फली फूली. और अपने माधुर्य को बनाए रखा।
लोक संस्कृति की उपर्युक्त पृष्ठभूमि में पूर्वांचल की कजरी लोक विधा का जिक्र किया जाना प्रासंगिक है जो यहाँ के ऋतु गीतों की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण लोक विधा मानी जाती है. यद्यपि कजरी अवध, बुंदेलखंड और पूर्वांचल में काफी लोकप्रिय है लेकिन कजरी का एक विशिष्ट स्वरुप दूनमुनिया कजरी, पूर्वांचल क्षेत्र में ही दृष्टिगोचर होती है जो आज इस क्षेत्र से भी लगभग विलुप्त सी हो रही है.
ढूनमुनिया कजरी में लोक गायकी का एक विशिष्ट पुट दिखाई पड़ता है जिसमें कजरी और बिरहा की मिश्रित शैली में यह लोक वाद्यों के संग वृत्ताकार समूह में कलाकारों द्वारा घूम-घूम कर नृत्य की मुद्रा में ढोल, मंजीरा और करताल के साथ तालियों की थाप से लय में लय मिलकर गायी जाती है. इस गीत टोली में लगभग ८ से १० कलाकार होते हैं जिसमें महिला पुरुष का कोई विशिष्ट वर्गीकरण नहीं होता. यह केवल इस विधा के कलाकारों की
उपलब्धता पर निर्भर करता है. सुनने और देखने में अत्यधिक प्रिय एवं मनोरंजक यह कजरी कभी पूर्वांचल की प्रमुख लोक शैली थी परन्तु आज अनेक कारणों से यह लोक विधा लगभग विलुप्त होने के कगार पर है. विशेष कर नयी पीढ़ी के गायक कलाकारों में इस विधा के प्रति रुझान भी कम दिखाई पड़ता है. ऐसे में हमारी जिम्मेदारी है कि इस लोक विधा के संरक्षण और संवर्धन के लिए कारगर प्रयास करें अन्यथा यह विधा दम तोड़ने के लिए विवश होगी.
(लेखक- संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत कलाकार हैं)