बहुतेरे लोग कुत्ता पालते हैं। नहीं भी पालते हैं। दूसरे भी बहुत से पालतू जीवों को पालते हैं। विविध आदतों को भी पालते हैं। पालने पर कोई रोक भी नहीं है। पाल भी सकते हैं। नहीं भी पाल सकते हैं। मनुष्य का स्वभाव है पालना, इसलिए भी पालता है। तनहाई दूर करने के लिए भी पालता है। शानो – शौकत दिखाने के लिए भी पालता है। बिना सोच – विचार के भी पालता है।
राजा महाराजाओं ने घोड़े, हाथी, बंदर, मगरगोह आदि भी पाला हुआ था। चेतक, शुभ्रक, पवन, रामदयाल, यशवंत आदि ने तो इतिहास को भी अपने पास बाँध रखा था। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने नन्दिनी को पाला था तो ऐरावत को देवेन्द्र ने। कुछ लोग चूहे-बिल्ली भी पालते हैं। महादेवी जी ने गिलहरी को भी पाल रखा था। पालिए। आपका अपना शौक है, आपकी अपनी जरूरत है।
तभी तो गाँधी बाबा बकरी पाले थे। धर्मराज कुत्ता पाले थे। राधा ने मनुष्य का बच्चा पाला था। अरे वही बच्चा जिसे सगी माँ ने नदी की धार में छोड़ दिया था- वही कर्ण। दानवीर कर्ण। बागवान के महानायक ने भी एक बच्चा पाला था। वह बड़ा होकर अपनों से भी बढ़कर सगा निकला। पाले हुए ही एक बच्चे के वंशजों ने महाभारत रच दिया था। पालने को तो हमारा देश भी पाल रहा है वर्षों से शरणार्थियों को, घुसपैठियों को, उनके सतत वंशजों को भी।
पालना अलग बात है और पालतू हो जाना अलग बात। संयोगवश कभी दोनों सुमेलित हो भी सकते हैं। संयोगवश ही। अक्सर ऐसा होता नहीं। प्रेमचंद के मन्त्र में साँप पालने के बाद भी पालतू नहीं हो पाया था। पालतू तो शरणार्थी भी नहीं हो पाए आज तक। घुसपैठिये भी नहीं। अजब का साम्य है न साँप और शरणार्थी में!
मेरा अनुभव कहता है कि पशु-पक्षी ज्यादा पालतू होते हैं। रोटी – दो रोटी खाकर भी अक्सर जान पर खेलकर स्वामिभक्ति सिद्ध करते हैं। महान अश्व चेतक का इतिहास महाराणा प्रताप से कहीं भी कमतर नहीं है। बढ़कर ही है। शेर- बाघ- चीता जैसे खूँखार नरभक्षी जानवरों को भी यदा- कदा पालतू होते देखा जाता है। डाल्फिन मछली भी इस मामले में अपना महत्व रखती है। कुत्ते तो वफ़ादारी के मामले में सबको पीछे छोड़ देते हैं। सबको मतलब सबको। इंसानों को भी। न केवल परायों बल्कि अपनों को भी। तुलसी बाबा ने इसमें कुछ दोष भी निकाला है। ‘काटे-चाटे श्वान के, दुहूँ भाँति विपरीत’। अर्थात् कुत्ते से प्रेम और दुश्मनी दोनों नुकसानदायक है। भुक्तभोगी लोग पुलिस के संदर्भ में भी यह ऊक्ति दुहराते हैं। अब कुत्ते का प्यार से चाटना नुकसान दायक है भी तो इसमें कुत्ते का कोई दोष नहीं है। यह उसकी जैविकीय विशेषता है।
एक अहम सवाल है कि वृद्धाश्रमों की बढ़ती हुई संख्या और जरूरत क्यों आन पड़ी? क्यों? इसका प्रत्युत्तर बहुत आसान है पर हम लोग न कहना चाहते हैं न सुनना ही। ऐसा इसलिए कि पालक की आँखों पर मोह की पट्टी बँधी है, या कि लोभ में पालतू, पालतू न रहे। बेवफ़ाई सर्वव्यापी हो गई। पिता-पुत्र , माँ-बेटी या भाई-बहन भी अपने नहीं रहे। फिर बहू कैसे बनेगी बेटी? कैसी बेटी? किसकी बेटी? कौन बनाएगा बेटी? पालतूपन का ग्राफ इस कदर गिर रहा है कि प्राथमिक संबंध ही क्षीण होते जा रहे हैं। द्वैतीयक रिश्तों से अपेक्षा करना दिवा स्वप्न से कम नहीं रहा। अब गोरा – बादल नहीं मिलते। कर्ण – दुर्योधन भी नहीं। राम – भरत तो कल्पना के परे हो गए। पन्ना – उदय भी वर्तमान में नहीं जन्मते।
विगत की सामाजिक विकृति आजकल पारिवारिक विशेषता बन गई है। न केवल वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है बल्कि पति- पत्नी के बीच तलाक भी जोरों पर है। हो भी क्यों न! पति और पत्नी भी तो इसी अवमूल्यित समाज की पैदाइश हैं। लोभ और मोह के पुलिंदे हैं। इस सम्बंध में मेरा सुझाव है कि किसी को पालो तो उम्मीद न रखो। खासकर मनुष्य जाति से तो बिल्कुल नहीं। बेउम्मीदी से पालो या मत ही पालो। अगर उम्मीद रखकर पालना है तो सबसे अच्छा है कि हम कुत्ते पाल लें। शायद ये मनुष्य के प्रभाव में वफ़ादारी कम करें या न करें, पर बेवफाई भी नहीं करेंगे। हरगिज ही नहीं। हमें पछताना नहीं पड़ेगा। मनुष्य, मनुष्य को धोखा न दे तो आश्चर्य है। कुत्ता वफ़ादारी न करे तो घोर आश्चर्य। तो चलो न, कुत्ता ही पालते हैं।
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Dr Awadhesh Kumar Awadh
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