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किसान नेताओं द्वारा सरकार के प्रस्ताव की बार-बार अवहेलना और कानून रद्द करने की मांग पर अड़े रहने का, क्या है मतलब?

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किसान नेताओं से बातचीत में सरकार ने कृषि कानूनों पर डेढ़ साल तक के लिए अमल रोकने और इस दौरान दोनों पक्षों के बीच व्यापक विचार-विमर्श कर किसी समाधान पर पहुंचने की जो पेशकश की, उस पर किसान संगठनों को सकारात्मक रवैये का परिचय देना चाहिए था। यह अच्छा नहीं हुआ कि किसान नेताओं ने वही पुरानी मांग दोहरा दी कि उन्हें तीनों कृषि कानूनों की वापसी से कम और कुछ मंजूर नहीं। वे सरकार के प्रस्ताव पर गंभीरता का परिचय देने के बजाय जिस तरह गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर रैली निकालने पर जोर देने में जुटे हुए हैं, उससे उनके इरादों को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है।

दिल्ली पुलिस की असहमति के बावजूद ट्रैक्टर रैली निकालने की जिद टकराव की राह पर चलते रहने का ही उदाहरण है। किसान नेताओं को सरकार की ओर से दिए गए प्रस्ताव को बीच का रास्ता निकालकर समस्या का समाधान करने की कोशिश के रूप में देखना चाहिए था। इसी के साथ ही उन्हें यह समझना चाहिए कि कृषि सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। यदि कोई यह सोच रहा है कि अनाज खरीद की पुरानी व्यवस्था कायम रहने और कृषि उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी जारी रहने से किसान समृद्ध हो जाएंगे तो यह एक भूल ही है।

किसानों की हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक वे बाजार के साथ तालमेल करने के लिए आगे नहीं आते। सरकारी सहायता पर आश्रित खेती उन समस्याओं से उबर ही नहीं सकती, जो आजादी के बाद से जारी हैं और जिनके चलते औसत भारतीय किसान तरक्की नहीं कर पा रहे हैं। यदि अन्य देशों के मुकाबले भारतीय किसानों की हालत में सुधार नहीं आ पा रहा है तो इसका एक बड़ा कारण कृषि सुधारों से दूरी बनाए रखना है।

क्या किसान नेता इसकी अनदेखी कर सकते हैं कि पांच-छह प्रतिशत किसान ही एमएसपी का लाभ उठा सकने में समर्थ हैं? उन्हें इस तथ्य से भी मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि धान और गन्ना सरीखी अधिक पानी वाली फसलें उगाने के नुकसानदायक नतीजे सामने आ रहे हैं। इसका कोई औचित्य नहीं कि फसलें उगाने में जरूरत और मांग का ध्यान न रखा जाए।

क्या यह उचित है कि सरकारी गोदाम गेहूं और धान से भरे होने के बाद भी सरकार उनकी खरीद करती रहे? आज देश के गोदामों में इतना चावल मौजूद है कि वह पूरी दुनिया के लिए पर्याप्त है। यह अफसोस की बात है कि इन सब तथ्यों पर गौर करने के बजाय किसान नेता अपने हठ पर अड़े हुए हैं। लगता है कि उनका मकसद सरकार को नीचा दिखाना है।

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