जम्मू कश्मीर से धारा 370 को हटाने के बाद 3 साल शांतिपूर्ण रहे , जिसके चलते केंद्र सरकार लोकसभा चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों की तैनाती योजनाबद्ध तरीके से कम करने के बारे में सोच रही थी। इसके सात ही सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम हटाने पर भी विचार हो रहा था। कानून व्यवस्था से लेकर आतंक के मोर्चे पर अब जम्मू-कश्मीर पुलिस को आगे रखने की योजना पर काम हो रहा था पर अब लगता है कि इन सब योजनाओं पर पानी फिर जाएगा।
सितंबर 2024 के अंत तक जम्मू-कश्मीर में विधानसभा का गठन भी करना था।यह पीएम मोदी का वादा भी है और सुप्रीम कोर्ट का भी आदेश था। कश्मीर में सुरक्षाबलों की वापसी से संबंधित सवाल पर गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि चुनाव के बाद इस पर काम शुरू हो जाएगा। हमने इसकी पूरी कार्ययोजना तैयार कर ली है।हमने जम्मू-कश्मीर पुलिस को मजबूत बनाया है। केंद्रीय बल उसे पीछे रहकर सहयोग करेंगे।उनका कहना था कि बीते 10 वर्ष में एक भी फर्जी मुठभेड़ नहीं हुई है और सुरक्षाबलों ने जब भी नियमों को तोड़ा या उन्होंने कहीं कोई गलत काम किया, उनके खिलाफ एफआइआर दर्ज कर कार्रवाई की गई है। शाह ने यह भी कहा था कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव सितंबर से पहले होंगे और केंद्र वहां सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम को हटाने पर विचार करेगा।
हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को उम्मीद है कि चुनाव जरूर होंगे।उन्होंने कहा कि विधानसभा चुनाव सुप्रीम कोर्ट के आदेश का मामला है और मैं नहीं मानता कि सुरक्षा की स्थिति इतनी खराब है कि चुनाव नहीं हो सकते। हमारे यहां 1996 में चुनाव हुए हैं। 1998, 1999 में संसद के लिए चुनाव हुए हैं। मुझे लगता है कि चुनाव अवश्य होने चाहिए। कुछ नेताओं की सुरक्षा वापस लिए जाने पर उन्होंने कहा, अगर उचित एनालिसिस और उचित सुरक्षा मूल्यांकन के आधार पर ऐसा किया जाता तो यह ठीक होता।
अभी कुछ महीने पहले की ही बात है, चुनाव से पहले, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यह नया भारत है और यह आतंकवाद के घाव नहीं सहता। मोदी सरकार के पिछले दो कार्यकाल का रिकॉर्ड रहा है कि आतंकवाद के साथ हमेशा से कड़ा रुख अख्तियार किया गया है।जब भी पाकिस्तान ने बातचीत की पहल की भारत सरकार ने साफ कर दिया कि आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकते। हाल के वर्षों में सेना ने जम्मू-कश्मीर में आतंकियों पर कड़ा प्रहार कर रहे थे। सीमा पर चौकसी इतनी थी कि आतंकी आसानी से भारतीय सीमा में प्रवेश नहीं कर पा रहे थे। हालांकि पिछले कुछ महीनों में परिस्थितियां बदली हैं।आतंकी हमले बढ़े हैं पर सरकार चुप नहीं बैठी है।साल 2016 में उरी आतंकवादी हमला हुआ जिसके जवाब में भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की उसके बाद साल 2019 में पुलवामा में आतंकवादी हमला हुआ जिसके जवाब में बालाकोट एयर स्ट्राइक हुई। दोनों ही बार सरकार ने जवाब 2 हफ्तों के भीतर दिया था। इसलिए अभी कुछ दिन सरकार की ओर से होने वाले एक्शन का इंतजार करना चाहिए। कठुआ और डोडा में हुए आतंकी हमलों को लेकर सरकार गंभीर है।ये कहा नहीं जा सकता कि पाकिस्तान पर फिर से सर्जिकल स्ट्राइक कब होगा पर रक्षा सचिव के बयान को हल्के में नहीं लेना चाहिए। रक्षा सचिव गिरिधर अरमाने ने कहा है कि कठुआ हमले में पांच जवानों की मौत का बदला लिया जाएगा। उन्होंने कहा कि भारत इसके पीछे छिपी बुरी ताकतों को नेस्तनाबूद करेगा।
इधर जम्मू क्षेत्र में भारतीय सेना पर आतंकवादी हमलों में अचानक वृद्धि ने कई विश्लेषकों को पाकिस्तान और चीन के साथ सीमा की स्थिरता पर इसके प्रभाव के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है, साथ ही इस साल के अंत में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुपालन में जम्मू कश्मीर में होने वाले आगामी चुनावों पर भी इसका प्रभाव पड़ने की आशंका जाहिर कि है ।
इस तरह के हमलों में अचानक वृद्धि एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करती है कि क्या यह इस बात का संकेत है कि चीन और पाकिस्तान के साथ दो मोर्चों पर लड़ाई कैसी होगी? सेना और अन्य सुरक्षा बलों के खिलाफ हाल ही में हुए हमले कश्मीर में दिखाई देने वाले उत्साह के बिल्कुल विपरीत हैं, क्योंकि हजारों पर्यटक घाटी की प्राकृतिक सुंदरता को देखने के लिए वहां जाते हैं।ये भीड़ ऐसे समय में भी बढ़ी जब राज्य के जम्मू जिले के रियासी कस्बे में एक बस पर आतंकवादी बेरहमी से गोलियां चला रहे थे। यह घटना 9 जून को हुई थी। तब से सुरक्षाकर्मियों पर कई और हमले हुए हैं। जम्मू क्षेत्र के डोडा, कठुआ और रियासी जिलों में हताहतों की संख्या अधिक रही है, जो कई सालों से शांत रहे हैं।
बताया जाता है कि आतंकवादियों का ध्यान कश्मीर से हटकर जम्मू के कम उग्रवाद-ग्रस्त क्षेत्र पर चला गया है। रणनीतिक विशेषज्ञों के दृष्टिकोण से, ज़्यादा चिंताजनक बात यह है कि जून 2020 में गलवान में हुई झड़प के बाद चीनी सैनिकों का मुकाबला करने के लिए जम्मू से सैनिकों को लद्दाख भेजे जाने के बाद इस क्षेत्र में उग्रवाद बढ़ गया है, जिसमें हमारे 20 जवान शहीद हो गए थे।लद्दाख में हुई झड़प के बाद से भारतीय सेना चीन के नजदीकी इलाकों में अपनी मौजूदगी बढ़ा रही है। यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि अगर भारत और पाकिस्तान या भारत और चीन के बीच तनाव बढ़ता है, तो इस्लामाबाद और बीजिंग दोनों एक-दूसरे के साथ अपनी सैन्य कार्रवाइयों का समन्वय करेंगे और भारत में आतंकवाद में वृद्धि देखी जा सकती है, जो अभी दिखाई दे रही है।
विशेषज्ञों का दावा है कि भारतीय सैनिकों पर हमला करने वाले आतंकवादियों के पास हाई क्वालिटी हथियार और रसद मौजूद है। उनके अनुसार, अधिकांश आतंकवादी पाकिस्तान से घुसपैठ करके आए हैं। इसलिए, यह स्पष्ट है कि उन्हें या तो पाकिस्तान या चीन का समर्थन प्राप्त है। अपने दम पर, वे एक मजबूत सेना का मुकाबला करने में असमर्थ हैं। जब उसका अपना देश और सरकार संकट में है, तो पाकिस्तानी सेना ऐसा क्यों करेगी? भारतीय रक्षा हलकों में एक राय है कि पाकिस्तानी सेना यह दिखाना चाहती है कि उसे जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का विरोध करने वालों को आतंकवादियों का काफी समर्थन प्राप्त है।
कश्मीर के पर्यटन में उछाल का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि इससे कश्मीर घाटी में बढ़ते पर्यटन पर कोई असर नहीं पड़ा है। इन दिनों सिर्फ श्रीनगर ही नहीं, बल्कि पूरे कश्मीर में कमरा ढूंढ़ना मुश्किल है। अगर कोई किस्मत से कमरा ढूंढ़ भी लेता है, तो साधारण कमरों का किराया 3-सितारा होटल के करीब होता है। ज्यादातर हाउसबोट भरे हुए हैं और डाउनटाउन और लाल चौक में गुजराती, मराठी, बंगाली और हिंदी भाषा में बातचीत सुनने को मिलती है।यहां मौजूद पर्यटकों से कोई भी पूछ सकता है कि क्या यह वही जगह है जो दशकों तक हिंसा में उलझी रही। क्या ये उस जगह पर सामान्य स्थिति के लौटने के संकेत नहीं हैं जिसे केंद्र सरकार ‘अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद बनाया गया नया कश्मीर’ कहती है?
सुबह के समय यहां हर हर महादेव के नारे गूंजते हैं और अजान के साथ-साथ मुअज़्ज़िन द्वारा नमाज के लिए मस्जिद में आने का आह्वान भी होता है। इस प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता के निहितार्थ हो सकते हैं। पता चला है कि कई कश्मीरी पंडित सालों से घाटी में बसे हुए हैं। कुछ साल पहले, यह अकल्पनीय था कि श्रीनगर में किसी मंदिर से नारे सुनाई दें।
राजनीतिक मोर्चे पर, यह वाजिब है कि जम्मू-कश्मीर में छह साल के राज्यपाल शासन के बाद होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर लोगों की काफी उम्मीदें हैं। यह अलग बात है कि राज्यपाल पुलिस और अधिकारियों के तबादले को संभालना जारी रखेंगे, जैसा कि दिल्ली में होता है, लेकिन बड़ा बदलाव यह होगा कि राज्य सरकार ही आतंकवादियों के बारे में अपने विचार स्पष्ट करेगी।
अगर वाकई चुनाव होते हैं (और बढ़ती हिंसा के कारण स्थगित नहीं होते), तो यह एक अलग कश्मीर होगा जहां वे होंगे। अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद से, फारूक अब्दुल्ला, उनके बेटे उमर और महबूबा मुफ़्ती जैसे नेता अप्रासंगिकता के दौर से गुजरे हैं। हाल ही में हुए संसदीय चुनावों में, उमर अब्दुल्ला एक जेल में बंद नेता इंजीनियर राशिद से अजीब तरह से हार गए। इस बात की प्रबल संभावना है कि अगर वे राज्य में मौजूदा सत्ता संतुलन को पलट सकते हैं तो राशिद जैसे और नेता सत्ता में आएंगे। हालांकि, बड़ा सवाल यह है कि क्या हिंसा, चाहे वह मूल कश्मीरियों द्वारा हो या घुसपैठियों द्वारा, वास्तव में सफल चुनावों के साथ समाप्त हो जाएगी?
अशोक भाटिया,
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार
लेखक 5 दशक से लेखन कार्य से जुड़े हुए हैं
पत्रकारिता में वसई गौरव अवार्ड से सम्मानित,
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