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गजल

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कमबख्त आ ही जाती है…
मैंने कई रंगों की ख्वाहिश भी बदलकर देखी
रस्ता बदला,किस्सा बदला, फरमाइश भी बदलकर देखी
मैंने अपनी आजमाइश भी बदली
उसमे हर गुंजाइश भी बदलकर देखी
बड़ी ही ढीठ है तुम्हारी याद
कमबख्त आ ही जाती है…
मैंने धड़कन की तर्रन्नुम भी बदलकर देखी
मैंने रुह की लिखावट की कलम भी बदलकर देखी
सुबह बदली, रात बदली शाम की रंगत भी बदल कर देखी
बड़ी गाढ़ी है तेरी आंखों की स्याही
वक्त बेवक्त बनके घटा छा ही जाती है
बड़ी ही ढीठ है तुम्हारी याद
कमबख्त आ ही जाती है…
कमबख्त आ ही जाती है…
विश्वास राणा ‘GYPSY’

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