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दिसंबर के महीने के साथ
बुजुर्ग अक्सर सहमने लगते हैं
हाड़-मांस के पुतले
गुनगुनी धूप ढ़ूढ़ते हैं
उन्हें मालूम है कि
घर के पिछवाड़े में नीम की
टहनियों से छनकर
दिसंबर की गुनगुनी धूप
फैलने का प्रयास करेंगी
प्रकृति आखिर सबका ख्याल रखती है
बुजुर्ग ढ़ूढ़ते हैं चाय की चंद चुस्कियां
गरमा-गरम चाय की प्याली
और
सूरज की चंद रश्मियां पाकर
खिल जाते हैं झुर्रीदार चेहरे
एक ऊर्जा हंसने लगती है
तब
लगता है गपशप के लिए जमघट
दिसंबर की कड़कड़ाती सर्दी में
गुनगुनी धूप में
समय निकालने से बेहतर
शायद कुछ और नहीं हो सकता
और तब
दिसंबर का महीना
आखिरी नहीं लगता बुजुर्गों को
धुंध में धुंधलाते अक्स फिर
नई उम्मीदें गूंथते नजर आते हैं
सच में
गुनगुनी धूप अस्सी पार के बुजुर्गों में
नये अरमानों को सुलगाती है।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, सीकर, राजस्थान।
मोबाइल 9828108858





















