1,160 Views
ग्रन्थ समीक्षा –
भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि और असम का सन्दर्भ
डाॅ रणजीत कुमार तिवारी
सर्वदर्शन विभागाध्यक्ष
कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय, नलबारी, असम
डॉ. दीपशिखा गगै का जन्म शिवसागर में हुआ था और वर्तमान में वे कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय, नलबाड़ी के असमीया विभाग में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। 2016 में, डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय ने उनके शोध ‘উজনিঅসমআৰুনামনিঅসমৰলোকগীত: বৈচিত্র্যআৰুঐক্য’ के लिए उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। 2015 में, उनकी पहली पुस्तक ‘অসমৰশ্ৰমগীতআৰুলোকসমাজ’ प्रकाशित हुई। बचपन से ही साहित्य के प्रति उनकी गहरी रुचि रही है, और उन्होंने असम के विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में अपने विचारशील शोध लेखों और आलोचनात्मक गद्य के माध्यम से एक विशिष्ट पहचान बनाई है।उनकी नवीनतम कृति “পটভূমিকাতভক্তিআন্দোলনআৰুঅসমপ্ ৰসংগ” (भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि और असम का संदर्भ) जो पूर्बायन प्रकाशन, गुवाहाटी से सद्यः प्रकाशित की गई है, न केवल असम के नव वैष्णव आंदोलन की ऐतिहासिक पड़ताल प्रस्तुत करती है, बल्कि भक्ति आंदोलन के दार्शनिक आयामों को भी व्यापक संदर्भ में विश्लेषित करती है। यह ग्रंथ असमीया साहित्य में एक अनमोल योगदान है, जो भक्ति परंपरा के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है।यह पुस्तक भारत में भक्ति आंदोलन पर शोध पुस्तकों की सूची में एक नई पुस्तक है।
पुस्तक का सारांश एवं संरचना – यह पुस्तक भक्ति आंदोलन की व्यापक पृष्ठभूमि और असम में इसके विशेष स्वरूप को समझने का प्रयास करती है। इसे लेखिका ने ऐतिहासिक, दार्शनिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विभाजित कर गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इस ग्रंथ के प्रमुख विषय इस प्रकार हैं:
1. भारत में भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि – यह अध्याय भारतीय भक्ति आंदोलन के उद्भव, विकास और उसके सामाजिक प्रभावों का परिचय देता है। इसमें भक्ति आंदोलन के कारण, उसके प्रमुख लक्षणों और विभिन्न क्षेत्रों में इसके प्रसार पर विस्तृत चर्चा की गई है।
2. भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत और उनके विचार – रामानुज, बसवेश्वर, मीराबाई, तुलसीदास, नामदेव, चैतन्य महाप्रभु जैसे संतों के योगदान और उनके भक्ति दर्शन की तुलना करते हुए यह अध्याय भारतीय भक्ति परंपरा की विविधता को रेखांकित करता है। यह दर्शाता है कि कैसे विभिन्न संतों ने अपने-अपने समाज के अनुसार भक्ति को परिभाषित किया।
3. असम और श्रीमंत शंकरदेव का नव वैष्णव धर्म – इस भाग में असम की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और उसमें श्रीमंत शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित नव वैष्णव धर्म के प्रभाव को दर्शाया गया है। यह अध्याय असम में वैष्णव धर्म के आगमन और उसकी अद्वितीय विशेषताओं को उजागर करता है।
4. श्रीमंत शंकरदेव का व्यक्तित्व और योगदान – “गुरु चरित कथा” के आधार पर यह अध्याय श्रीमंत शंकरदेव के जीवन और कार्यों का विश्लेषण करता है। इसमें उनकी धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है। शंकरदेव की शिक्षाओं का विश्लेषण कर यह अध्याय उनके व्यापक प्रभाव को रेखांकित करता है।
5. ‘भक्ति प्रदीप’ ग्रंथ में नव वैष्णव भक्ति दर्शन – इस अध्याय में ‘भक्ति प्रदीप’ नामक ग्रंथ में वर्णित नव वैष्णव भक्ति दर्शन की समीक्षा की गई है। यह दर्शाता है कि कैसे नव वैष्णव विचारधारा ने असमीया समाज और साहित्य को गहराई से प्रभावित किया।
6. शंकरदेवोत्तर असमीया साहित्य की प्रवृत्तियाँ – नव वैष्णव आंदोलन के बाद असमीया साहित्य में आए परिवर्तनों, नव्य काव्यधाराओं और गद्य परंपराओं का यह अध्याय विस्तार से वर्णन करता है।
7. रास परंपरा और समाज में इसकी भूमिका – असम की रास परंपरा केवल धार्मिक विधि नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक आंदोलन थी। इस अध्याय में इसे ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भों में देखा गया है।
8. असमीया लोकजीवन में रामकथा का प्रभाव – रामकथा की कथावस्तु और नैतिक शिक्षाओं ने असमीया समाज पर गहरा प्रभाव डाला है। इस अध्याय में रामायण के विभिन्न संस्करणों के अध्ययन के साथ-साथ असम के सांस्कृतिक विकास में इसकी भूमिका को दर्शाया गया है।
9. असम में सांची पत्तों के उपयोग की परंपरा – यह अध्याय असम के प्राचीन ग्रंथों के लेखन में प्रयुक्त सांची पत्तों की परंपरा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है। असमीया पांडुलिपि परंपरा और इसके संरक्षण की चुनौतियों पर भी चर्चा की गई है।
पुस्तक की विशेषताएँ -ऐतिहासिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण: यह पुस्तक न केवल भक्ति आंदोलन के इतिहास को समेटे हुए है, बल्कि इसके दार्शनिक प्रभावों को भी उजागर करती है।
श्रीमंत शंकरदेव का योगदान – नव वैष्णव आंदोलन के प्रेरणास्त्रोत के रूप में उनके विचारों, साहित्यिक योगदान और सामाजिक सुधार कार्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
तुलनात्मक अध्ययन – यह ग्रंथ अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन और असम के नव वैष्णव आंदोलन के बीच के अंतर और समानताओं को दर्शाता है।
असमीया साहित्य और संस्कृति पर प्रभाव – यह पुस्तक असमीया भाषा, साहित्य, कला और समाज पर भक्ति आंदोलन के गहरे प्रभाव को प्रस्तुत करती है।
समकालीन संदर्भ में प्रासंगिकता -आज जब सांस्कृतिक मूल्यों और धार्मिक परंपराओं पर आधुनिकता का प्रभाव बढ़ रहा है, तब भक्ति आंदोलन और नव वैष्णव परंपरा का पुनरावलोकन अत्यंत आवश्यक हो जाता है। श्रीमंत शंकरदेव का भक्ति आंदोलन केवल धार्मिक सुधार तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक क्रांति थी, जिसने जाति-पाति के भेदभाव को समाप्त कर समरसता और समानता की भावना को प्रोत्साहित किया। इस पुस्तक का विशेष महत्व इस दृष्टिकोण से भी है कि यह असम की सांस्कृतिक अस्मिता को दर्शाते हुए भक्ति आंदोलन के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव को रेखांकित करता है।
समीक्षा और सुझाव – यह ग्रंथ असम में भक्ति आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। इसमें भक्ति आंदोलन के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पहलुओं का गहन विश्लेषण किया गया है, जिससे पाठक उस कालखंड की ऐतिहासिक परिस्थितियों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।
यद्यपि यह ग्रंथ असमीया भाषा में लिखा गया है, फिर भी इसकी विषय-वस्तु इतनी स्पष्ट, विस्तृत और व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत की गई है कि यह अन्य भारतीय भाषाओं के शोधार्थियों के लिए भी समान रूप से उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसमें भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों, उनके विचारों, धार्मिक सुधारों और समाज पर उनके प्रभाव का सटीक विवरण दिया गया है।
इसके अलावा, यह ग्रंथ केवल धार्मिक पक्ष तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें भक्ति आंदोलन के साहित्यिक प्रभाव, कला और संगीत पर पड़े प्रभाव, तथा उस युग के राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसलिए, यह न केवल असम के भक्ति आंदोलन को समझने में सहायक है, बल्कि संपूर्ण भारतीय भक्ति परंपरा के व्यापक अध्ययन में भी योगदान दे सकता है।
यदि इस ग्रंथ का हिंदी में अनुवाद किया जाए, तो यह न केवल असम बल्कि पूरे भारत के शोधकर्ताओं, इतिहासकारों और छात्रों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। हिंदी भारत की प्रमुख भाषाओं में से एक है और व्यापक पाठक वर्ग तक इसकी पहुंच है। अनुवाद के माध्यम से असम में भक्ति आंदोलन के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों को अन्य भाषाओं के विद्वानों द्वारा भी गहराई से समझा जा सकेगा।
इसके अतिरिक्त, ग्रंथ में भक्ति आंदोलन के समकालीन प्रभावों और आधुनिक समाज में इसकी भूमिका पर और अधिक गहन चर्चा की जा सकती थी। भक्ति आंदोलन केवल एक धार्मिक सुधार नहीं था, बल्कि इसने समाज में समानता, भाईचारे और लोकधर्मी परंपराओं को बढ़ावा दिया। आधुनिक युग में, इसके मूल्यों का प्रभाव विभिन्न सामाजिक आंदोलनों, कला, साहित्य और सांस्कृतिक संरचनाओं में देखा जा सकता है। यदि इस ग्रंथ में आधुनिक संदर्भों को भी व्यापक रूप से जोड़ा जाता, तो यह भक्ति आंदोलन की प्रासंगिकता को और अधिक स्पष्ट कर सकता था।इस प्रकार, हिंदी अनुवाद न केवल इसकी उपयोगिता को बढ़ाएगा बल्कि इसमें आधुनिक परिप्रेक्ष्य से और अधिक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण जोड़ने की संभावना भी उत्पन्न करेगा।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि डॉ. दीपशिखा गगै की यह कृति न केवल भक्ति आंदोलन के ऐतिहासिक और दार्शनिक पक्षों को उजागर करती है, बल्कि यह असम की सांस्कृतिक विरासत को भी नये दृष्टिकोण से देखने का अवसर प्रदान करती है। यह पुस्तक शोधकर्ताओं, इतिहासकारों और भारतीय भक्ति आंदोलन में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी।





















