आज कल 18 से 25 वर्ष की आयु के युवा छात्र विदेश में पढ़ाई के लिए जा रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रति आकर्षण को शक्तिशाली अभियान द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है। इस पलायन के पीछे क्या कारण हैं? भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है?इस पलायन का एक कारण स्नातक होने के बाद भारत में नौकरी पाने का संघर्ष है। छात्रों का मानना है कि विदेश में बेहतर जीवन जीने की गुंजाइश है। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, वे आर्थिक और शैक्षणिक रूप से अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए वहाँ रहना जारी रखते हैं। दूसरा पहलू कई विदेशी देशों में उदार जीवनशैली है, जो छात्रों को एक स्तर की स्वतंत्रता प्रदान करती है जो उनके घरों में संभव नहीं हो सकती है। तीसरा पहलू पढ़ाई के दौरान कमाई की संभावना है।यह भी माना जाता है कि विदेशी विश्वविद्यालय में पढ़ाई करना भारतीय संस्थान में पढ़ाई करने से ज़्यादा प्रतिष्ठा वाला होता है। यह भी सच है कि प्रतिष्ठित भारतीय संस्थानों में प्रवेश मुश्किल है और केवल कुछ प्रतिशत छात्र ही सीट पा पाते हैं। विदेशों में कॉलेजों में प्रवेश की अपेक्षाकृत आसानी के कारण, ज़्यादा छात्र उच्च शिक्षा के अपने सपने को पूरा करने में सक्षम होते हैं।राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 का उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयों को अनुसंधान, आलोचनात्मक सोच और समस्या-समाधान पर ध्यान केंद्रित करके विदेशी विश्वविद्यालयों के बराबर लाना और विविध क्षेत्रों में सीखने के समान अवसर प्रदान करना, बेहतर शिक्षक प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे का विकास करना है। लेकिन इसे लागू करने और प्रभावी होने में समय लगेगा। जबकि भारत अनुसंधान-आधारित शिक्षा स्थापित करने की चुनौतियों पर काबू पा रहा है, छात्र ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र खोजने के लिए विदेश जाना पसंद करते हैं।
वैसे देखा जाय तो विदेशों में पढ़ने जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि चिंता का विषय है। जिस रफ्तार से पढ़ाई और रोजगार की तलाश में युवा शक्ति का पलायन हो रहा है,उसे अगर समय रहते नहीं रोका गया तो अपने देश के आर्थिक विकास के लिए बुद्धि एवं कौशल युक्त श्रम शक्ति की समस्या भी खड़ी हो सकती है।
उदारीकरण, स्थिरीकरण और निजीकरण पर आधारित अपनी आर्थिक नीतियों के कारण भारत तेजी से आर्थिक विकास करते हुए दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है, लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने के बाद भी शिक्षा की पद्धति में बरकरार खामियों की वजह से भारतीय छात्रों के पलायन का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
यदि राज्यवार आंकड़ा देखें तो वर्ष 2021 तक विदेशों में पढ़ने जाने वाले विद्यार्थियों में 12% पंजाब से, 12% ही आंध्र प्रदेश से और 8% विद्यार्थी गुजरात से थे। अगर युवाओं की कुल संख्या के अनुपात में देखा जाए तो पंजाब से प्रत्येक हजार में से 7 युवा, आंध्र प्रदेश में प्रति हजार में चार युवा और गुजरात से प्रति हजार में कम से कम तीन युवा विदेश में हर साल पढ़ने के लिए गए हैं। यदि वर्ष 2016 से वर्ष 2022 की संचयी संख्या लें तो स्थिति काफी चिंताजनक दिखाई देती है। पंजाब में यह संख्या 50 प्रति हजार, आंध्र प्रदेश में 30 प्रति हजार और गुजरात में 16 प्रति हजार है।
किसी भी देश की पहचान उसके नागरिकों से होती है। शिक्षित, समर्थ, कुशल, सक्षम नागरिक तो समर्थ और सक्षम देश। भारत अरसे से अपनी क्षमताओं का एहसास कराने वाला देश बना हुआ है। भारतीय मेधा ने नए जमाने के आईटी क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। आश्वस्ति हुई है कि शिक्षा के क्षेत्र में जोरदार प्रयास किया गया तो भारत उन्नति के रास्ते पर सरपट आगे निकल सकता है। लेकिन इस हकीकत से कैसे मुंह चुराया जा सकता है कि अच्छी शिक्षा, सार्थक शिक्षा तथा रोजगार सृजन के रास्ते में आ रही अड़चनों को नहीं हटाए जाने के कारण भारतीय युवा बड़ी तादाद में पढ़ने के लिए विदेशों की ओर भाग रहे हैं और इसके साथ ही देश की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा भी विदेशों को जा रही है।
ऐसा प्राय: देखने को मिलता है कि माता-पिता अपनी परिसंपत्तियों को बेचकर युवाओं को विदेशों में पढ़ने के लिए भेज रहे हैं। एक समय था कि विदेशों में रह रहे भारतीयों के माध्यम से बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा देश में आती थी। विदेश में अच्छी पढ़ाई के क्रेज के चलते यह प्रक्रिया उलट गई है। अब विदेशों से धन आने के बजाय भारत से विदेशों को धन भेजा जा रहा है। ऐसे में जब वर्ष 2024 तक विदेशों में पढ़ने जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या 20 लाख से ऊपर होगी और उनके द्वारा खर्च की जाने वाली राशि और 80 अरब डॉलर से अधिक पहुंच जाएगी तो यह देश के लिए एक तरह से संकटकारी स्थिति का कारण बन सकता है।
पिछले दो-तीन दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में देश में प्रगति हुई है। यदि उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों का प्रवेश देखें तो वर्ष 1990-91 में जहां मात्र 49.2 लाख विद्यार्थियों ने उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लिया, यह संख्या 2020-21 में 414 लाख तक पहुंच गई। मोटे तौर पर शिक्षा में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या में पिछले 30 वर्षों में 10 गुना से भी अधिक की वृद्धि हुई। यदि उच्च शिक्षण संस्थानों की बात की जाए तो वर्ष 2021 में देश में 1113 विश्वविद्यालय और समकक्ष संस्थान, 43,796 महाविद्यालय और 11,296 अन्य स्वतंत्र संस्थान हैं। देश के उच्च संस्थानों में लगभग 15 लाख शिक्षक कार्यरत हैं। देश में केंद्रीय विश्वविद्यालय के साथ-साथ राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय, निजी विश्वविद्यालय और डीम्ड विश्वविद्यालय भी हैं। प्रबंधन, मेडिकल और इंजीनियरिंग के भी ढेर सारे संस्थान हैं।
फीस के मोर्चे पर भी भारतीय शिक्षण संस्थानों की फीस विदेशी संस्थानों की फीस से बहुत ही कम है। ऐसे में प्रश्न यह खड़ा होता है कि भारी भरकम राशि खर्च करके भारत के युवा विदेशी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेते ही क्यों है? इसका एक उत्तर यह भी है कि अधिकांश विद्यार्थी विदेश में उच्च स्तरीय शिक्षा में प्रवेश लेकर केवल डिग्री नहीं बल्कि वहां रोजगार की तलाश करते हैं। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इंग्लैंड या अन्य यूरोपीय देशों में जाने वाले भारतीय विद्यार्थियों का वास्तविक लक्ष्य शिक्षा प्राप्त करना नहीं बल्कि वहां रोजगार प्राप्त करना है। लेकिन इन विद्यार्थियों को यह समझाने की जरूरत है कि वर्तमान में उन देशों में भी रोजगार की भारी कमी है। यही कारण है कि वहां से अधिकांश विद्यार्थी खाली हाथ लौट रहे हैं।
पूर्व में गए कुछ विद्यार्थियों की सफलता को रोल मॉडल मानते हुए आज के युवा पलक झपकते सब कुछ पा लेने की होड़ में विदेशी संस्थाओं के लिए भाग तो रहे हैं लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं हो रहा है कि विदेशी शिक्षा संस्थान वर्तमान में खुद का अस्तित्व बचाने के लिए सस्ती कीमत पर भारतीय विद्यार्थियों को आसानी से प्रवेश दे रहे हैं। एक बार प्रवेश देने के बाद वे संस्थान भारतीय विद्यार्थियों को बेतहाशा लूट रहे हैं। हाल ही में कई ऐसे संस्थानों की खबरें आई हैं जिनका शिक्षा से कोई सरोकार नहीं है, शिक्षा के नाम पर दुकान खोलकर बैठे हैं।
ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक युवाओं को वास्तविकता से अवगत कराने के लिए विशेष प्रयास करने की जरूरत है ताकि वह विदेश में जाकर अपने माता-पिता की गाढ़ी कमाई को यूं ही न गंवाएं। देश के जो अनभिज्ञ युवा विदेश में शिक्षा के नाम पर ठगे जा रहे हैं उन्हें इस समस्या से बचने के लिए सरकार को आगे आना चाहिए साथ ही समाज के प्रबुद्ध वर्ग को भी इस समस्या के हाल के लिए व्यक्तिगत स्तर पर भी पहल करनी चाहिए।
अब समय आ गया है कि सरकार भारतीय युवाओं के पलायन और उनके माता-पिता की गाढ़ी कमाई विदेश में जाने से रोकने हेतु एक विस्तृत और व्यापक कार्य योजना के साथ आगे आए, ताकि भारतीय उद्योग धंधों को कुशल श्रम शक्ति उपलब्ध होती रहे तथा भारत के दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने में कोई बाधा ना आए।
अशोक भाटिया,
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, एवं टिप्पणीकार
वसई पूर्व – 401208 ( मुंबई )
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स्वतंत्र पत्रकार – अशोक भाटिया , वसई पूर्व (मुंबई – महाराष्ट )
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