अपने सभी मुसलमान भाईयों को-“ईद उल जुहा” की मुबारकबाद
देने के साथ-साथ इससे जुड़े कुछेक महत्वपूर्ण पहलुओं पर समाज की नजर ऐ इनायत हो इस पर कुछ बातें रखना कम से कम आज की सबसे बड़ी जुरूरत महेसूस होती है ! आप मुसलमां हो हम हिन्दू है ! आपकी ईज्जत करने की तहजीब हमें हमारी संस्कृति सिखाती है, और मैं समझता हूँ कि ऐसा ही आपका मजहब भी आपको सिखाता होगा ! लेकिन ! वैसे पहले ही ये बताना मुनासिब है कि जहाँ तक वैदिकीय संस्कृति बताती है तो-“हलाल और झटका” दोनों के दोनों ही-“हराम” हैं।
जीव विज्ञान की दृष्टि से आप देखें-
(१)= मांसाहारी जीवों के दांत नुकीले होते हैं जैसे कि शेर,चीता, कुत्ते,बिल्ली,भेडिया आदि। जबकी शाकाहारी जीवों के दांत लगभग चौकोर-वर्गाकार होते हैं जैसे कि मनुष्य,गाय,हांथी,गधा, भैंस,बकरा आदि।
(२)=मांसाहारी जीवों के नाखून तीखे और नुकीले होते हैं, जैसे कि शेर,चीता,कुत्ता,बिल्ली,भेंडिये आदि जबकि शाकाहारी जीवों के नाखून चौडे चपटे और आगे से कुछ गोलाकार होते हैं जैसे कि गाय,भैंस,गधे,खरगोश,हांथी और मनुष्य।
(३)=मांसाहारी जीव जीभ से चाटकर पानी पीते हैं जैसे कि शेर, चीता,कुत्ता,बिल्ली,भेंडिये आदि जबकि शाकाहारी जीव सुडककर पानी पीते हैं जैसे कि गाय,भैंस,गधे,खरगोश,हांथी और मनुष्य।
इसके अतिरिक्त अन्यान्य आंतरिक और बाह्य रचनाएँ भी दोनों की भिन्न-भिन्न होती हैं अर्थात ये सिद्ध है कि-“मानव जन्मना प्राकृतिक रूप से शाकाहारी जीव है” तथापि हमलोग केवल अपनी जीभ के लिये कभी देवी-देवताओं के नाम पर,कभी ईसामसीह के नाम पर और कभी -“अल्ला को प्यारी है कुर्बानी” कहते हुवे निरीह,निष्पाप बेजुबान जानवरों को झटके और हलाल के नाम पर काटकर खा जाते हैं।
ये खून की होली खेलने वाले ! खूनी ईद मनाने वाले हमलोग ये सब उन वेदों-शास्त्रों के नाम पर करते हैं जहाँ-“बलिदान प्रथा” का कहीं वर्णन ही नहीं है, ऐसी स्थिति में हम उनको क्या कह सकते हैं जिनकी धार्मिक किताबें मानव और पशुओं के खून से ही लिखी गयी हैं।
जब हम अपने देवालयों में बकरों,कबूतरों और मुर्गे की हत्या करते हैं ! उनके खून से तिलक लगाते हैं तो हमारी आत्मा कांपती क्यूँ नहीं ? हमने तो कृष्ण को भी -“काला चांद(?)” बनाकर मछली का नैवेद्य चढा दिया क्योंकि हमें खानी थी। हमलोग प्याज-लहसुन खाना श्रीमद्भगवद्गीता में मना है ये कहते फिरते हैं किन्तु बिना प्याज की मछली शाकाहारी हो जाती है ? बकरे की गर्दन झटके से कटे अथवा रेत कर हलाल की जाये, ये दोनों के दोनों ही कम से कम धर्म के नाम पर ! अल्लाह, ईसामसीह और भगवती काली के नाम पर बिलकुल ही असामाजिक, अमानवीय और अतिसंवेदनशील विषय हैं-इनपर अर्थात धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा रोकनी आवस्यक है।
महाराष्ट्र,केरल,तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल से लेकर असम तक हम हिन्दुओं में जो नीचली जाति के हैं वे लोग किसी की मृत्यु होने पर त्रयोदशी में कम से कम मांस मछली नहीं खिलाते किन्तु हम ऊंचे लोग ! महान ब्राम्हण होने के कारण त्रयोदशी में भी मछली खाते-खिलाते हैं ! ऐसी स्थिति में हम उनको क्या दोष देंगे ? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मुम्बई की मीरा सोसायटी में बकरों को ले जाने पर जहाँ हिन्दू समाज ने आपत्ति दिखायी वहीं मुस्लिम समाज ने अपनी धार्मिक परम्परा का हवाला देते हुवे ये कहा कि -“सोसायटी-बिल्डर” ने उन्हें फ्लैट बेचते समय ये स्पष्ट क्यों नहीं किया ? उनका तर्क भी गलत नहीं है ! हमारे बिल्डरों को येन केन प्रकारेण फ्लैट बेचने हैं ! इसके लिये वो किसी भी सामाजिक नियमों का ध्यान क्यूँ रखेंगे ? अर्थात-“धार्मिक समरसता” हमारे देश में धीरे-धीरे कटुता में बदलती जा रही है ! वैसे भी हमलोग कुत्ते बिल्ली पालते हैं ! और गौवंश को चंद रुपयों के लिये सीमा के उसपार भेज देते हैं ! हमारी गायों को कटना तो है ही ! इसपार या उसपार।
आपसी भाईचारे का पाठ केवल हमें ही क्यों पढाया जाता है ? बार-बार हमारी गायों को क्यूँ काटा जाता है ? इस प्रकार की घटनाओं पर प्रशासन लीपा-पोती क्यूँ करता है ? अर्थात ये निश्चित है कि हमें चिढाने के लिये,हमारे समाज को नीचा दिखाने के लिये ये राक्षसी कृत्य किया जाता है ! पूरे शहर को छावनी में बदल देने की इतनी सारी फोर्स से केवल दो-दो लोगों को ही बकरीद के पूर्व यदि शांतिदूतों के विशिष्ट स्थानों पर यदि देखभाल हेतु केवल दो दिनों हेतु रखा जाता तो आज प्रशासन का इतना व्यय और नगर का वातावरण चिंताजनक होता क्या?
प्रशासन और हमारे जनप्रतिनिधि सब जानते थे ! ये केवल शांतिदूतों को चुनाव हेतु अपने पक्ष में करने हेतु प्रशासन को विशेष राजनैतिक दल के लोगों ने जानबूझकर हिन्दुओं के विरुद्ध कार्रवाई करने का आदेश दिया। इसे ही राजनैतिक षड्यंत्र और आयातित नीति कहते हैं।
अब तो ये स्पष्ट दिखने लगा है कि जिस बस्ती,गांव,नगर और जिले में जिस विशेष मुहल्ले में 10% शांतिदूतों की जनसंख्या हो जाती है वहां आज नहीं तो कल अशांति भी हो जाती है ! ये स्पष्ट है कि हम अपनी जमीन जब भी किसी शांतिदूत को बेचते हैं तो उसी के साथ-साथ हम अपने जमीर को भी बेच देते हैं ! और इसी का परिणाम है कि आज हमारा नगर,चायबागान,गांव सब धीरे-धीरे शांतिदूतों से घिरता हुवा एक ऐसी जेल में बदलता दिख रहा है जहाँ कि खुली सडकों पर हिन्दुओं के बीच गायों को काटा जाता है और हम लोग कहते हैं-“ईद मुबारक”—“आनंद शास्त्री”