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डॉ हिमंत विश्वशर्मा: ‘पूर्वोत्तर के अमित शाह’ क्या असम के मुख्यमंत्री बन पाएँगे?

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क्या बीजेपी में डॉ हिमंत विश्वशर्मा को मिलेगी सीएम की कुर्सी?
29 मार्च 2014 को असम के तेजपुर के पंच माइल में आयोजित एक चुनावी रैली में डॉ हिमंत विश्वशर्मा ने अपने भाषण में कहा था, “आपने (नरेंद्र मोदी) कहा था कि गुजरात में पानी के पाइप के अंदर मारुति कार चल सकती है. हाँ, आप यह सच बताइए असम के लोगों को कि असम में पानी के पाइप से पानी बहता है. गुजरात में पानी के पाइपों से मुसलमानों का ख़ून बहता है.”

यह बात हिमंत ने उस समय बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए गए नरेंद्र मोदी के लिए कही थी. उस दौरान हिमंत असम प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेता और क़द्दावर मंत्री थे.

लिहाज़ा हिमंत की इस बात से बीजेपी के कई शीर्ष नेता काफी नाराज़ हुए और उन्हें चेतावनी दी कि दिल्ली में अगर सरकार बदली, तो उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोप वाले सभी मामलों की जाँच की जा सकती है.

लेकिन कहते हैं राजनीति में जो कुछ जनता के सामने कहा जाता है, उस बात को बदलते देर नहीं लगती.

2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को बड़ी जीत मिली और इसके ठीक 15 महीने बाद 28 अगस्त 2015 को हिमंत बिस्व सरमा कांग्रेस का साथ छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए.

वे क़रीब 14 साल तक तरुण गोगोई के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में राज्य के वित्त-शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बड़े विभागों के मंत्री रहे. कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के बाद सरमा दूसरे सबसे ताक़तवर और प्रभावी नेता बन गए थे.

असम की 126 विधानसभा सीटों के लिए इसी महीने 27 मार्च से तीन चरणों में चुनाव होने जा रहे हैं और एक बार फिर प्रदेश में इस बात की बेहद चर्चा हो रही है कि क्या बीजेपी डॉ हिमंत विश्वशर्मा को राज्य का अगला मुख्यमंत्री बना सकती है?

बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के पीछे हिमंत की भूमिका
असल में हिमंत के बीजेपी में शामिल होने के वैसे तो कई कारण बताए जाते हैं, लेकिन तरुण गोगोई से टकराव और कांग्रेस हाईकमान से अहमियत नहीं मिलना उनके पार्टी बदलने का मुख्य कारण माना जाता है.

हिमंत के बारे में कहा जाता है कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह फुल टाइम राजनीति करने वाले नेता हैं. इसलिए राज्य में बड़ी संख्या में लोग उन्हें पसंद करते हैं. उनमें जनता की नब्ज़ को पहचानने की काबिलियत है और वे अपने करिश्माई भाषणों से लोगों के साथ कनेक्ट करना जानते हैं.

असम की राजनीति पर लंबे समय से पत्रकारिता कर रहें वरिष्ठ पत्रकार बैकुंठ नाथ गोस्वामी कहते है, “2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर का असर था, लेकिन असम में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के पीछे हिमंत की अहम भूमिका थी. दरअसल अपने सात विधायकों के साथ हिमंत के बीजेपी में शामिल हो जाने से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल कमज़ोर पड़ गया था.”

“यही कारण था कि 2011 के विधानसभा चुनाव में पाँच विधायक वाली बीजेपी ने 2016 में 60 सीटें जीती थी. चुनाव से पहले कई मौक़ों पर जब हिमंत बीजेपी गठबंधन को 80 से अधिक सीटें दिलवाने का दावा करते थे, तो ये काफ़ी असंभव लगता था लेकिन उनका चुनावी अंकगणित सही साबित हुआ. बीजेपी गठबंधन को 2016 के चुनाव में 86 सीटों पर जीत मिली थी.”

ख़ुद को बीजेपी में फिर से लॉन्च किया
देखा जाए तो कांग्रेस छोड़ने के बाद हिमंत ने अपने काम से ख़ुद को बीजेपी में फिर से लॉन्च किया था.

यही वजह थी कि हिमंत को मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के बाद सारे महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री बनाया गया. 2016 में पहली बार असम की सत्ता में आई बीजेपी ने अपने कई पुराने नेताओं को दरकिनार कर हिमंत को सरकार में नंबर दो की हैसियत दी.

असम में बीजेपी की शानदार जीत से उस समय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को इस बात का अहसास हो गया था कि हिमंत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान को पूर्वोत्तर राज्यों में सफल बना सकते हैं.

लिहाज़ा जैसे ही 24 मई 2016 के दिन सर्बानंद सोनोवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, उसके महज़ कुछ घंटे बाद अमित शाह ने पूर्वोत्तर राज्यों में राजनीतिक गठबंधन के लिए नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) नामक एक राजनीतिक मोर्चे का गठन किया और उसमें हिमंत को संयोजक बना दिया.

नेडा के ज़रिए हिमंत को असम से बाहर अपनी काबिलियत दिखाने का अवसर मिला था और ठीक उसी दौरान अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक उठापटक चल रही थी.

जोड़तोड़ और जुगाड़ की राजनीति में माहिर हिमंत ने ऐसा दाँव खेला कि कांग्रेस छोड़कर पीपुल्स पार्टी ऑफ़ अरुणाचल में शामिल हुए अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू अपने 33 विधायकों को लेकर एक दिन के भीतर बीजेपी में शामिल हो गए.

तब से अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी का ही शासन चल रहा है.

जटिल मुद्दों की समझ
इसी तरह 2017 में 60 सीटों वाली मणिपुर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 28 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन इसके बावजूद बीजेपी अपने 21 विधायकों के साथ आज भी वहाँ गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही है. क्योंकि जब भी मणिपुर में सरकार पर कोई संकट मँडराता है, तो सबसे पहले हिमंत को ही वहाँ भेजा जाता है.

त्रिपुरा जैसे राज्य में बीजेपी की सरकार बनाने से लेकर मेघालय, मिज़ोरम और नगालैंड की सरकारों का पार्टनर बनने तक हिमंत ने पूर्वोत्तर राज्यों में कांग्रेस का सफ़ाया करने में बड़ी भूमिका निभाई है.

वह कड़ी मेहनत करने के साथ इन प्रदेशों के जटिल मुद्दों की समझ रखते है और उसी के अनुसार ज़बरदस्त रणनीतियाँ बनाकर काम करते है. इसलिए अक्सर उनकी तुलना अमित शाह से की जाती है, तो कई बार उन्हें बीजेपी का प्रशांत किशोर कहा जाता है.

हालाँकि कई बार उनके बयान विवाद खड़ा कर देते हैं. हाल ही में उन्होंने कहा था कि बीजेपी को ‘मियाँ मुसलमानों’ के वोटों की ज़रूरत नहीं है.

उन्होंने ‘मियाँ मुसलमानों’ के लिए कहा था, “ये वही लोग हैं जो ‘श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र’ में मियाँ संग्रहालय बनाना चाहते हैं. ये तथाकथित मियाँ लोग बहुत ही सांप्रदायिक और फंडामेंटल हैं. ये लोग असमिया संस्कृति और असमिया भाषा को विकृत करने के लिए कई गतिविधियों में शामिल हैं. इसलिए मैं उनके वोट से विधायक नहीं बनना चाहता.”

इसके अलावा हिमंत ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट अर्थात एआईयूडीएफ प्रमुख बदरुद्दीन अजमल को असम का ‘दुश्मन’ बता चुके है. असल में 2015 के बाद से हिमंत ने अपनी हिंदुत्ववादी छवि को गढ़ने के लिए इस तरह के बयानों में काफ़ी आक्रामकता दिखाई है.

असम में बंगाली मूल के मुस्लिम समुदाय, जो अक्सर बोलचाल की भाषा में एक-दूसरे को मियाँ कहकर संबोधित करते है, उन्हें ‘मियाँ मुस्लिम’ के रूप में जाना जाता हैं.

राजनीति की समझ रखने वाले लोग इस बात को समझते है कि हिमंत केवल हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इस तरह के बयान दे रहे हैं, जबकि उनकी पार्टी बीजेपी ने इस बार के चुनाव में आठ मुसलमान उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है.

राजनीति में कैसे आए
एक विनम्र परिवार से आने वाले 52 साल के हिमंत का जन्म गुवाहाटी की गाँधी बस्ती में हुआ था. उनके परिवार में किसी का भी राजनीति से लेना देना नहीं रहा, लेकिन हिमंत ने अपने स्कूल के दिनों से एक अच्छे वक्ता के तौर पर पहचान बनाई.

एक बार असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने मुझसे अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि असम आंदोलन के समय एक स्कूली बच्चे के भाषण ने उन्हें आकर्षित किया था दरअसल वे हिमंत ही थे.

जब वे स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे, उस दौरान राज्य में अवैध बांग्लादेशियों के ख़िलाफ़ ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के नेतृत्व में असम आंदोलन की शुरुआत हुई थी.

इस तरह वे छात्र राजनीति की तरफ आकर्षित हुए और आसू में शामिल हो गए. आसू में रहते समय हिमंत हर शाम प्रेस के लिए प्रेस विज्ञप्ति और सामग्री ले जाने का काम किया करते थे. कुछ साल बाद आसू ने उन्हें गुवाहाटी इकाई का महासचिव बना दिया था.

अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद हिमंत ने यहाँ की प्रतिष्ठित कॉटन कॉलेज में पढ़ाई की, जहाँ वे लगातार तीन बार कॉटन कॉलेज यूनियन सोसाइटी के महासचिव चुने गए.

1901 में बनी कॉटन कॉलेज में छात्र राजनीति से प्रदेश में कई बड़े नेता निकले है. हिमंत ने इस कॉलेज से राजनीति विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी लॉ कॉलेज से एलएलबी की.

बाद में राजनीति में रहते हुए उन्होंने गुवाहाटी विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की.

डॉ हिमंत विश्वशर्मा को राजनीति में लाने के बारे में वरिष्ठ पत्रकार नव कुमार ठाकुरिया कहते है,” इसमें कोई दो राय नहीं कि हिमंत ने तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के अधीन काम कर ही अपना राजनीतिक करियर बनाया है. लेकिन राजनीति में उन्हें कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ही लेकर आए थे. हितेश्वर सैकिया ही उनके पहले राजनीतिक गुरु थे. 1991 में जब कांग्रेस की सरकार आई और हितेश्वर सैकिया मुख्यमंत्री बने, उस समय हिमंत को छात्र और युवा कल्याण के लिए बनी राज्य स्तरीय सलाहकार समिति में सदस्य सचिव बनाया गया. यहीं से हिमंत का राजनीति सफ़र शुरू हुआ.”

“हिमंत शुरू से बहुत महत्वाकांक्षी रहे हैं, इसलिए उन्होंने अपनी पहली ज़िम्मेदारी के तहत बहुत ईमानदारी से काम किया. उन्होंने प्रदेश के सभी स्कूल-कॉलेजों के पुस्तकालयों में किताबें बाँटने की योजना शुरू की और उनके इस काम को काफ़ी सराहना मिली.”

हिमंत ने हितेश्वर सैकिया के क़रीबी बनने के लिए उस समय जमकर मेहनत की थी.

नव ठाकुरिया कहते है, “हितेश्वर सैकिया की एक आदत थी. वे रात को सोने जाने से पहले अगले दिन के सारे अख़बार पढ़कर सोते थे. अगर उनकी सरकार के ख़िलाफ़ कोई ख़बर प्रकाशित होती थी, तो उन्हें रात को ही पता चल जाता था और वे अपने जनसंपर्क विभाग को स्पष्टीकरण देने के लिए रात को ही आदेश दे देते थे. उस समय राज्य में मुश्किल से चार-पाँच अख़बार प्रकाशित होते थे. इसलिए रात 12 बजे से पहले ही सैकिया के पास सारे अख़बार पहुँच जाते थे. शुरू में हितेश्वर सैकिया तक ये अख़बार और जानकारियाँ हिमंत ही पहुँचाते थे और इस तरह वे धीरे-धीरे सैकिया के क़रीब आ गए.”

उनकी सक्रियता और कर्मठता को हितेश्वर सैकिया ने परख लिया था. इसी की बदौलत उन्हें पहली बार कांग्रेस ने 1996 में असम आंदोलन के दूसरे शीर्ष नेता भृगु फुकन के ख़िलाफ़ जालुकबाड़ी विधानसभा क्षेत्र में खड़ा किया.

लेकिन वे अपना पहला चुनाव हार गए थे. बाद में 2001 में हिमंत ने फुकन को लगभग 10,000 मतों से हराया. उसके बाद से वे लगातार जालुकबाड़ी की सीट पर अपनी जीत को बरकरार रखे हुए है.

सुनहरा दौर
जब 2001 में तरुण गोगोई राज्य के मुख्यमंत्री बने, उसके बाद हिमंत का सुनहरा दौर शुरू हुआ. गोगोई ने 2002 में हिमंत को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया.

दरअसल 2001 में जब कांग्रेस ने तरुण गोगोई को मुख्यमंत्री बनाया, उस समय गोगोई राज्य में लोगों के लिए नए थे. क्योंकि उससे पहले गोगोई ज़्यादातर केंद्र की राजनीति में ही सक्रिय रहें.

इसलिए गोगोई ने अपने कैबिनेट में हिमंत और रक़ीबुल हुसैन जैसे युवा विधायकों को शामिल किया और वे राज्य में इन दोनों को साथ लेकर ही घूमते थे.

शुरू में हिमंत को कृषि और योजना एवं विकास विभाग में राज्य मंत्री बनाया गया था, लेकिन इसके कुछ ही सालों में उन्हें वित्त, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे कई बड़े विभागों की ज़िम्मेदारी मिल गई और वे धीरे-धीरे राज्य में गोगोई के बाद नंबर दो की हैसियत में आ गए.

राज्य में सक्रिय विद्रोही संगठनों को नियंत्रण करने से लेकर अवैध नागरिकों से जुड़े बड़े से बड़े मुद्दों पर हिमंत की राय ज़रूरी मानी जाती थी. वे अपने काम से गोगोई के दाहिने हाथ बन गए थे.

तरुण गोगोई ने उन्हें अपनी राजनीतिक क्षमता और प्रशासनिक क्षमता दिखाने का स्वतंत्र अवसर दिया था. फिर चाहे हाग्रामा मोहिलारी की बोडोलैंड पीपुल्स पार्टी को सरकार का साझीदार बनाने की बात हो या कोई अन्य राजनीतिक निर्णय, हिमंत हर जगह मौजूद होते थे.

किसी मुख्यमंत्री की तरह हिमंत नियमित रूप से विधायकों के साथ बैठक करते थे. वह एक तरह से असम के शैडो सीएम बन गए थे और यह उम्मीद करने लगे थे कि तरुण गोगोई के राजनीति से रिटायरमेंट के बाद उन्हें सीएम की कुर्सी सौंपी जाएगी.

लेकिन 2011 में बतौर मुख्यमंत्री अपना तीसरा कार्यकाल संभालने के बाद जब गोगोई ने अपने बेटे गौरव गोगोई को राजनीति में आगे बढ़ाना शुरू किया, तो वहीं से रिश्तों में दरार पड़नी शुरू हो गई.

रिश्तों में दरार
हिमंत ने यहाँ तक आरोप लगाया कि प्रदेश को राजनीतिक रूप से गौरव ने चलाना शुरू कर दिया था. असल में 2011 के विधानसभा चुनाव में हिमंत को इंचार्ज बनाया गया था और उस चुनाव में कांग्रेस ने 126 में से 78 सीटें जीती थीं.

हिमंत को इतनी बड़ी जीत के बाद ऐसी उम्मीद थी कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन पार्टी हाईकमान ने ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया. इसके कुछ दिन बाद ही गोगोई को बदलने की उनकी महत्वाकांक्षा सार्वजनिक हो गई थी.

गोगोई के व्यवहार से नाखुश हिमंत ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ कई बैठकें की, लेकिन उनके पक्ष में कोई बात नहीं बनी.

2013 और 2014 के बीच हिमंत कांग्रेस के विधायकों के हस्ताक्षर अभियान से लेकर अपने समर्थन में ज़्यादा संख्या होने की बातें पार्टी हाईकमान को समझाते रहे, लेकिन गोगोई को सीएम की कुर्सी से नहीं हटा सके.

तरुण गोगोई ने रिश्तों में आई दरार के बाद पत्रकारों के समक्ष एक बार कहा था कि वे हिमंत पर आँख मूंदकर विश्वास करते थे और उन्हें अपना ब्लू आइड बॉय मानते थे.

पत्रकार गोस्वामी कहते है, “हिमंत ने मोदी के लिए गुजरात में पानी के पाइप में मुसलमानों का ख़ून बहता है, ये बात भी कांग्रेस हाईकमान का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए कही थी. उस समय बीजेपी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी और हिमंत उस दौरान यह प्रयास कर रहे थे कि कांग्रेस में रहकर ही वे मुख्यमंत्री बन जाए. इसलिए वे ख़ुद को ज़्यादा से ज़्यादा एंटी बीजेपी दिखाने के प्रयास में इस तरह का बयान दे रहे थे.”

पूर्वोत्तर राज्यों में हिमंत से बड़ा नेता कोई और नहीं?
हालाँकि 2015 आते-आते हिमंत कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के समक्ष अलग-थलग पड़ चुके थे. मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर गोगोई के साथ टकराव के इस पूरे मामले में हिमंत ख़ासकर राहुल गांधी की भूमिका से बेहद नाराज हुए. उन्होंने कई बार सार्वजनिक तौर पर राहुल गांधी को घमंडी कहा है.

29 अक्तूबर 2017 को राहुल गांधी ने अपने कुत्ते को बिस्किट खिलाते हुए एक वीडियो ट्विटर पर शेयर किया था, जिस पर प्रतिक्रिया देते हुए हिमंत ने लिखा था,”उन्हें (राहुल गांधी) मुझसे बेहतर कौन जानता है. फिर भी आपको याद दिला दूँ कि आप उसे (कुत्ते) बिस्कुट खिलाने में व्यस्त थे, जबकि हम असम के ज़रूरी मुद्दों पर चर्चा करना चाहते थे.”

असम की राजनीति में हिमंत की सफलता को क़रीब से देखने वाले लोग मानते है कि इस समय पूर्वोत्तर राज्यों में हिमंत से बड़ा नेता कोई और नहीं है.

लेकिन बीते दो दशकों में हिमंत ने राजनीतिक फ़ायदे के लिए जोड़-तोड़ और जुगाड़ की राजनीति से अपने विरोधियों को जो नुकसान पहुँचाया है, उससे उनके सियासी दुश्मनों की संख्या लगातार बढ़ी है.

असम की राजनीति में हिमंत की सफलता के साथ ही उन पर भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोप लगते रहे हैं. खासकर शारदा चिट फंड केस और लुइस बर्जर घोटाला में हिमंत का नाम जोड़ा जाता है.

दरअसल शारदा समूह के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक सुदीप्तो सेन ने कथित तौर पर सीबीआई को लिखे एक पत्र में आरोप लगाया था कि असम के राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया बैरन ने उन्हें प्रदेश से भगा दिया था.

शारदा घोटाले में हिमंत पर सुदीप्त सेन से प्रति माह 20 लाख रुपए लेने का आरोप भी लगाया था. आरोपों में कहा गया था कि यह रक़म हिमंत को इसलिए दी जाती थी ताकि सेन असम में बिना किसी परेशानी के अपना व्यवसाय चला सके.

तरुण गोगोई ने 4 फरवरी 2019 में पत्रकारों के समक्ष कहा था, “शारदा घोटाले में हिमंत बिस्व सरमा के घर छापा पड़ा था. सीबीआई जाँच हुई थी. सीबीआई ने कई दफ़ा उन्हें कोलकाता बुलाकर पूछताछ की थी. हिमंत जेल जाने के डर से और जाँच से ख़ुद को बचाने के लिए बीजेपी में शामिल हुए है.”

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जेल में बंद शारदा ग्रुप के मालिक सुदीप्तो सेन द्वारा 2013 में लिखे गए एक पत्र का हवाला देते हुए बीजेपी नेता हिमंत पर कम से कम “3 करोड़ रुपए” की धोखाधड़ी का आरोप लगाया था. हालांकि हिमंत ने इन तमाम आरोपों को बेबुनियाद, निराधार और एक राजनीतिक साजिश बताया था.

30 अप्रैल 2013 को सीबीआई ने राज्य सरकार के अनुरोध पर असम में शारदा समूह घोटाले की जाँच शुरू की थी, लेकिन इस मामले में अब तक फ़ाइनल चार्जशीट दाखिल नहीं की गई है.

21 जुलाई, 2015 को बीजेपी ने नई दिल्ली में पार्टी सांसदों की एक बैठक में ‘वाटर सप्लाई स्कैम-2010’ नाम से एक बुकलेट जारी की थी, जिसमें अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निर्माण प्रबंधन कंपनी लुइस बर्जर इंटरनेशनल की एक जल आपूर्ति परियोजना में सेवाएँ लेने के एवज में गुवाहाटी विकास विभाग पर घोटाला करने के आरोपों का उल्लेख था.

असम में उस समय कांग्रेस की सरकार थी और डॉ हिमंत विश्वशर्मा गुवाहाटी विकास विभाग के प्रभारी मंत्री थे. असल में जल आपूर्ति परियोजना से जुड़ा यह कथित घोटाला गोवा और गुवाहाटी में हुआ था.

इसके अलावा कांग्रेस नेता मानबेंद्र सरमा की हत्या करने के मामले में भी हिमंत पर आरोप लगते रहे हैं. पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत मानबेंद्र सरमा की हत्या में हिमंत पर गंभीर आरोप लगा चुके हैं.

महंत के अनुसार हिमंत को आसू से निलंबित करने का भी यही कारण था. लेकिन इन तमाम आरोपों के बावजूद हिमंत को अबतक किसी भी तरह का राजनीतिक नुकसान नहीं हुआ है और न ही उनकी लोकप्रियता में कोई कमी आई है.

पत्रकार गोस्वामी कहते है, “हिमंत पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का साधारण आदमी पर कोई असर नहीं दिखता. हमारे यहाँ लोगों की अजीबोगरीब मानसिकता है. आमतौर पर चुनाव में साधारण लोग यह देखते है कि उनको क्या मिलेगा.”

यही वजह है कि हिमंत अपने जालुकबाड़ी विधानसभा क्षेत्र में प्रचार किए बिना ही चुनाव जीतते रहे हैं. उनकी पत्नी रिनिकी भूयां सरमा एक सेटेलाइट न्यूज़ चैनल और एक असमिया दैनिक अख़बार की सीएमडी हैं और वह उनके विधानसभा के अधिकतर काम देखती हैं.

उनका नंबर आएगा?
वैसे तो राजनीति में सबकुछ संभव होता है, लेकिन बात जब हिमंत को मुख्यमंत्री बनाने की आती है तो ज़्यादातर लोगों को लगता है कि उनका नंबर नहीं आएगा.

ऐसा ही पत्रकार गोस्वामी सोचते है. वह कहते हैं, “सोनोवाल के सिर पर पीएम मोदी का हाथ है और सोनोवाल भी मोदी के प्रति काफ़ी वफ़ादार हैं.”

एक ऐसे ही सवाल के जवाब में हिमंत ने पत्रकारों से हाल ही में कहा था कि भविष्य के मुख्यमंत्री की घोषणा पार्टी के संसदीय बोर्ड का विशेषाधिकार है, लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि सर्बानंद सोनोवाल इस बार के चुनाव में भी मुख्यमंत्री का चेहरा है.

अभी दो दिन पहले हिमंत ने अपने ट्विटर हैंडल पर जो असमिया चुनावी गीत का वीडियो अपलोड किया है, उसमें पार्टी का चुनाव अभियान सरमा के आसपास केंद्रित दिख रहा है.

इस असमिया चुनावी गीत के बोल हैं, “आहिसे आहिसे हिमंता आहिसे आखा रे बोतरा लोई (आया है..आया है.. हिमंत आया है.. आशा का संदेश लेकर). लिहाजा अबतक के चुनावी प्रचार से तो यही लग रहा है कि हिमंत ने एक बार फिर खद को मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार के तौर पर पेश कर दिया है.

पत्रकार ठाकुरिया कहते हैं, “हिमंत ने कांग्रेस के लिए बहुत काम किया था. अगर कांग्रेस अपने तीसरे कार्यकाल में हिमंत को मुख्यमंत्री बना देती, तो असम में बीजेपी का उत्थान काफ़ी धीमा होता. मुझे ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी शायद ही हिमंत को मुख्यमंत्री बनाए.”
बीबीसी से साभार

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