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तीन दिवसीय राष्ट्रीय साहित्यिक परिसंवाद का हिंदी विभाग नेहू में हुआ शुभारंभ

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सगुण निर्गुण में भक्त का प्रेम आवश्यक है,इसमें भेद नहीं – प्रो.प्रभाशंकर शुक्ला

  केंद्रीय हिंदी निदेशालय, शिक्षा मंत्रालय ,भारत सरकार, नई दिल्ली की द्वैमासिक पत्रिका भाषा एवं पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के संयुक्त तत्वावधान में तीन दिवसीय राष्ट्रीय साहित्यिक परिसंवाद का आयोजन किया गया।जिसका विषय था – अगुनही सगुनहिं नहीं कछु भेदा- पूर्वोत्तर भारत के संदर्भ में।दिनाँक 04/09/2024 को उद्घाटन सत्र के साथ- साथ दो सत्रों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया गया।

उद्घाटन सत्र के अंतर्गत हिंदी विभाग के  विभागाध्यक्ष प्रो. माधवेंद्र प्रसाद पांडेय ने स्वागत वक्तव्य देते हुए कहा कि भारतीय चेतना, ज्ञान को उद्घाटित करने वाला विषय है l  डॉ. अनुपम माथुर के अनुसार भक्ति आंदोलन संपूर्ण भारत का आंदोलन रहा है l  भक्ति का स्वरूप पूर्वोत्तर में अलग दिखाई देता है, जहाँ सगुण -निर्गुण में एकात्मकता दिखाई देती है l प्रो. मुनमुन मजूमदार विषय को अत्यन्त प्रासंगिक माना l प्रो. सुनील कुलकर्णी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इस विषय से पूर्वोत्तर में शोध की नयी दृष्टि विकसित होगी l सगुण निर्गुण का भेद तो बाद में आया है l  सगुण निर्गुण में कोई भेद नहीं है l  सन्त साहित्य का पुनर्मूल्यांकन करना आवश्यक है। उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष प्रो. प्रभा शंकर शुक्ला ने इस संगोष्ठी में अपने विचार रखते हुए कहा कि भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है l सगुण निर्गुण में  कोई भेद नहीं है l भक्त का प्रेम आवश्यक है l ईश्वर से प्रेम होने के बाद भ्रम पैदा होता है इसलिए आस्था होनी आवश्यक है l और यह आस्था अपने प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति भी आवश्यक है lवहीं प्रथम सत्र में प्रो. सुदेष्णा भट्टाचार्य जी ने असम के बरगीतों में भक्ति – एक विश्लेषणात्मक अध्ययन के अंतर्गत नववैष्णव धर्म का प्रभाव, एकशरण नाम भक्ति दिखने में सगुण भक्ति है लेकिन यह निर्गुण भक्ति में परिणत होती है। शंकरदेव ब्राह्मणवाद के खिलाफ थे। नवधा भक्ति की चर्चा में उन्होंने विविधता में एकता की चर्चा की गयी l उन्होंने कहा कि बड़गीत को ब्रजावली भाषा में लिखा गया। डॉ. रीतामणि वैश्य का कहना था कि   कि माधवदेव को असमिया का सूरदास कहा जाता है l सगुण निर्गुण का भेद विभाजनकारी है l  उन्होंने एक शरण हरि नाम की चर्चा की l शंकरदेव ने राधा को स्थान नहीं दिया l शंकरदेव ने असमिया समाज को एकता के सूत्र में बांधा है।

उनके पास विभिन्न समुदायों के लोग आते थे। शंकरदेव को प्रथम राष्ट्रकवि की उपाधि दी जा सकती है।डॉ. राजेश्वर का कहना था कि शंकरदेव ने वैज्ञानिक तरीके से और वैज्ञानिक ढंग चीजों को व्याख्यित किया l वेदों में ज्ञान पक्ष महत्वपूर्ण है l  अवतारवाद की कल्पना की गई l शंकरदेव के यहाँ सगुण निर्गुण का कोई भेद नहीं है l शंकरदेव ने गीता के सार तत्व समझा l उन्होंने भारत को जोड़ने के लिए ब्रजबुली भाषा का प्रयोग किया l उनके पास समृद्ध दृष्टि है l  वे समन्वयक हैं। उन्होंने पुनर्जागरण की नींव रखी l शंकरदेव से यह पद्धति बदलापद्मआता तक जाती है l  उन्होंने एकशरण धर्म की नींव रखी l असमिया वैष्णव लोक परंपरा से आगे बढ़ी है l शंकरदेव ने सांस्कृतिक चेतना को   आगे बढ़ाया l उन्होंने अपने समय में ही सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त किये l पूर्वोत्तर भारत से शेष भारत को सीखने की आवश्यकता है lअंत में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी प्रस्तुति की गई।

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