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देखा देखी में हम अपनी संतान की शादी अधिक से अधिक कार्यक्रमों के साथ इस व्यस्ततम युग में करते हैं। यह कोई नयी परंपरा नहीं है। शदियों से सवा महीने पहले गीत गाना, घर में कच्चे मकानों की लिपापोती रंगरोगन करना दर्जी से कपड़े सिलवाना बेटियों एवं अन्य महिला रिश्तेदार को जाकर लाना सहित अनेक रिति रिवाज निभाने में विवाह के परिवार वालों के साथ सारे गाँव के लोग सहायता करते थे लेकिन आज एकल परिवार होने के साथ साथ सभी सुख सुविधा होने से स्वत ही सब काम ठेके पर हो जाते हैं।
रात की शादी सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रचलित हैं इसलिए लगभग सभी शादियां रात में ही होती है। इसमें काफी खर्च आता है। अनावश्यक नृत्य संगीत गाजावाजा मदिरा का सेवन आदि काफी महंगा होता है जिसमें सुरक्षा भी एक अहंम मुद्दा होता है।
दिन में शादी होने से अधिक तामझाम एवं व्यवस्था की जरूरत नहीं होती सुबह से शाम तक संपूर्ण प्रक्रिया संपन्न होने से बारात बेटे बहू को लेकर रात होने से पहले ही अपने घर पहुँच जाती है। दिन की शादी में फुहङ नृत्य मदिरा सेवन अनावश्यक मांग नहीं होती।
हरियाणा एवं समीपवर्ती क्षेत्रों में धङले से दिन में शादियां होती है। हमारे ही परिवार एवं रिश्तेदारों में दर्जनों शादियां दिन में हुई है जो संपूर्ण सामाजिक धार्मिक एवं शास्त्र सम्मत होती है। यही लेख मैं हर तीन साल बाद लिखता हूं जिससे बिहार राजस्थान में अनेक लोगों ने अध्ययन के बाद दिन में शादी की है।
साहित्य लेखन से यदि एक परिवार ही लाभान्वित होता है तो साहित्यकार की दशकों पुरानी तपस्या सफल होती है उनका आशीर्वाद मिलता है भले ही वो प्रतिक्रिया एवं धन्यवाद देने में असक्षम हो।
सभी माँ बाप की अपनी हेसियत एवं समझ अलग अलग होती हैं उनकी टीस भी होती है कि गरीबी में हम ऐसा तब नही कर पाये आज ईश्वर का दिया बहुत कुछ है ऐसे में जीभर कर दोनों हाथों से धन लुटायेंगें तो भला किसे आपत्ति होगी।
मदन सुमित्रा सिंघल
पत्रकार एवं साहित्यकार
शिलचर असम
मो 9435073653





















