विभिन्न मांगलिक अवसरों पर दीप प्रज्वलन की सुदीर्घ परंपरा हमारे यहाँ विद्यमान है। दीपावली, गुरुपर्व तथा अन्य प्रमुख त्योहारों पर ही नहीं, अपितु प्रत्येक भारतीय घर में सुबह और शाम दोनों समय घर में बने मंदिर अथवा भगवान की मूर्ति के सामने दीप प्रज्वलित करने की प्रथा है। मंदिरों अथवा कई घरों में तो हर समय घी के दीपक जलते ही रहते हैं। पूजा-पाठ अथवा अन्य मांगलिक अवसरों पर ही नहीं, किसी भी कार्य के विधिवत उद्घाटन करने से पूर्व दीप प्रज्वलित करना शुभ माना जाता है। दीपक अंधकार को हरता है, अतः दिवसावसान के उपरांत सूर्य के प्रकाश के अभाव में दीप प्रज्वलित करना स्वाभाविक है, लेकिन दिन में जब सूर्य की देदीप्यमान किरणंे प्रकाश बिखेर रही हों, तब पूर्ण उजाले की अवस्था में दीप प्रज्वलन का क्या औचित्य हो सकता है? दीपक अंधकार को हरता है, अतः प्रकाश का प्रतीक है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है, जबकि अंधकार अज्ञान का प्रतीक है। वेदों में प्रार्थना की गई हैः
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्माऽमृतं गमय
हे प्रभु हमें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरता की ओर ले चल। दीप प्रज्वलित करना, इस प्रार्थना की स्वीकारोक्ति है। हम सर्वदा ज्ञान की ओर ही उन्मुख होना चाहते हैं। हम बाह्य प्रकाश की अपेक्षा, आंतरिक प्रकाश की कामना करते हैं, इसलिए बाह्य प्रकाश होने के बावजूद सत्य, ज्योति और अमरता के प्रतीक के रूप में दीप प्रज्वलित करते हैं। हम न केवल स्वयं लाभांवित होना चाहते हैं, अपितु सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं। दीपक स्वयं जलता है, लेकिन सबको प्रकाश देता है। एक दीपक से असंख्य दीपक जलाना संभव है। जब एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जाता है, तो उसकी अपनी रोशनी कम नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञान का प्रकाश
फैलाने से ज्ञान में कमी नहीं आती, अपितु ज्ञान में और वृद्धि होती है। वास्तविक ज्ञान वही है जो चारों दिशाओं में अज्ञान रूपी अंधकार को हरने में सहायक हो। दीपक संकुचित भावना के त्याग एवं मन के खुलेपन का प्रतीक है। दीप प्रज्वलित करते में सबके कल्याण की भावना निहित होती है। कहा गया है कि दान के गर्भ में ही निहित है प्राप्ति का मूल। जो दोगे वो लौटकर आएगा। दूसरों को रोशनी दिखलाओगे, तो क्या ख़ुद अंधकार में रहोगे? कदापि नहीं। सीखना चाहते हो, तो सिखाना शुरू कर दो। स्वयं प्रकाश की कामना है तो प्रकाश के घेरे को विस्तार दो। दीपक रोशनी करता है, लेकिन ख़ुद जलता है। यहाँ जलने से तात्पर्य है साधना अथवा तपस्या से। यदि स्वयं भी प्रकाशित होना चाहते हो और दूसरों को भी प्रकाशित करना चाहते हो, तो साधना अथवा तपस्या अनिवार्य है। जब तक मन से नकारात्मक भाव या विकार नहीं जाते, हम न स्वयं आत्मज्ञान को प्राप्त होते हैं और न दूसरे ही हमसे लाभांवित हो सकते हैं। नकारात्मक भावों या विकारों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है साधना अथवा मन पर पूर्ण नियंत्रण। दीपक की लौ हमेशा ऊपर की ओर ही होती है। हम भी दीपक की लौ की तरह हमेशा ऊपर की ओर ही देखें। हमारे लक्ष्य सदैव ऊँचे हों। बड़े ही नहीं सकारात्मक भी हों। वे हमारे लिए ही नहीं, पूरे समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी हों। दीपक का जलना त्याग और समर्पण का भी प्रतीक है। पूर्ण त्याग और समर्पण के द्वारा ही हम अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। दीपक की लौ आत्मा और परमात्मा का भी प्रतीक है। हम सब प्रकाश स्वरूप ही तो हैं। मनुष्य जीवन रूपी प्रकाश की ये सूक्ष्म ज्योति प्रकाश की वृहद् ज्योति का ही एक रूप है, इसको सदैव स्मरण रखना चाहिए। दीपक प्रायः मिट्टी का बना होता है, जो नश्वरता का प्रतीक है। मनुष्य देह भी नश्वर है। मिट्टी में मिलने से पूर्व एक दीपक की तरह हम सदैव प्रज्वलित रहें, यही मनुष्य जीवन के लिए उचित एवं सार्थक है। एक मुहावरा भी है घी के दिए जलाना अर्थात् ख़ुशी मनाना। दीपक ख़ुशी का प्रतीक भी है। हमें जीवन में सदैव ख़ुश रहने का प्रयास करना चाहिए। जीवन में ख़ुशी तभी संभव है, जब हम ज्ञान की तरह ख़ुशियाँ बाँटना भी सीखें। ख़ुशियाँ बाँटने से कम नहीं
होंगी, अपितु बढ़ेंगी ही। जब भी दीप प्रज्वलित करें अथवा प्रज्वलित दीप दिखलाई पड़े, मन में उदात्त भावों की कल्पना करें, स्वास्थ्य-समृद्धि तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति की कामना करें, जीवन में मंगल की प्राप्ति होगी ही। दीप प्रज्वलित करते समय
निम्नलिखित मंत्र दाहराएँ और वही भाव भी मन में लाएँ: शुभं करोति कल्याणमारोग्यं धनसंपदः। पापबुद्धिविनाशाय दीपज्योति नमोऽस्तुते।।
सीताराम गुप्ता,
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