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देश की आजादी में लोकगीतों की अहम भूमिका ।

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आलेेख-अनिलमिश्र।
भारत विविधताओं से भरा दुनियाभर एक अकेला देश है। जहां के लोक संस्कृति,  लोक गीत, सभ्यता और सामाजिक परिवेश के साथ- साथ भाषाएँ एवं बोलियाँ एक कोश (कुछ दुरी)पर बदल जाती हैं। लेकिन हम भारतीय किसी भी तरफ के चुनौती में सभी मिलकर और एकजुट होकर उसका मुकाबला करने में भी कभी नहीं पिछे  हटते हैं।साथ हीं हिम्मत भी नहीं हारते। हमारा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857)से लेकर आजादी की लड़ाई तक में बिहार की भूमिका अहम रही है। 1857की क्रान्ति के अमर योद्धा बाबू वीर कुंवर सिंह के विद्रोह की गाथा आज भी हर किसी के जेहन में है। गांवों के चौपालों पर उनकी वीरता के लोकगीत आज भी भोजपुर सहित पूरे बिहार में गूंजते हैं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में पुरुष और सशक्त महिलाएं हीं नहीं बालक, वृद्ध,  सभी धर्म एवं सभी जाति के नर-नारी ने बढ़  चढ़कर हिस्सा लिया था।ग्रामीण क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन को मूर्त रूप देने में लोकगायन के बदौलत लोकगीतों के माध्यम से लोगों को आजादी के अलख जगाने का काम किया है। लोक संगीत किसी भी समाज का आईना होता है। लोक गीतों में आत्मीय संवेदना एवं मानव मन को आह्लादित करने वाले भाव होते हैं। बिहार में भोजपुरी, मैथिली, बज्जिका,मगही भाषा काफी प्रचलित है। जिसमें भोजपुरी बिहार हीं नहीं इससे सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी काफी हद तक बोली जाती है। मोहनदास करम चंद गांधी को महात्मा बनाने वाला बिहार का चम्पारण आंदोलन ही है। महात्मा गांधी जी ने अपनी आत्मकथा सत्य के साथ प्रयोग में लिखते हैं, कि मैं चम्पारण का नाम तक नहीं जानता था। नील की खेती वहां होती है, उसका ख्याल तक दिमाग में नहीं था। नील की गोटियां चम्पारण में बनती है,इसका भी अंदाजा नहीं था। अंग्रेजों के तीन कटठी प्रथा के कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता था। महात्मा गांधी जब किसान राजकुमार शुक्ल के कहने पर चम्पारण पहुंचे तो सब बदल गया। अंग्रेजों के 135वर्ष पुरानी प्रथा को बदलना पड़ा। चम्पारण में गांधी एक किसान बनाकर देश के पहले राजनैतिक किसान आंदोलन का नेतृत्व करते हैं। वैसे तो यह नील की खेती का शोषणकारी प्रथा से मुक्ति का आंदोलन था। लेकिन किसान आंदोलन को भी आजादी की लड़ाई से जोड़ते हैं और भारत में कांग्रेस का स्वरुप हीं बदल देते हैं। महात्मा गांधी ने देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए गांव का रास्ता अपनाया और जन समस्याओं को आजादी के आंदोलन से जोड़ दिया। इसी का परिणाम हुआ कि पूरे भारत में अंग्रेजो के खिलाफ माहौल तैयार हो गए और हमें गुलामी से मुक्ति मिल गई और हम आजाद हो गए। इस आजादी को दिलाने में हमारे  लोक जीवन में लोक गीत के माध्यम से लोक गायकों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। इन लोकगीतों में  विभिन्न रचनाकारों द्वारा देश भक्ति से ओतप्रोत आजादी के स्वर 1857 से पूर्व और1857का स्वतंत्रता संग्राम एक लोक संग्राम था। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योकिं क्रान्ति से पूर्व और उसके दौरान लोक साहित्य एवं लोकगीत में फिरंगी राज के विरुद्ध जनजागरण उत्पन्न करने वाली सामाग्री की भरमार रही थी। चूंकि उस समय साहित्य मौखिक माध्यम से प्रसारित होता। इसलिए इसकी पहुंच जन -जन और घर-घर में सहजता से पहुंचती गई थी। उस समय प्रचलित गीत जो खड़ी बोली में थे, आज भी लोगों के जुबान पर हैं। स्वतंत्रता संघर्ष के नायक अस्सी वर्षीय बाबू कुंवर सिंह, मंगल पाण्डेय सहित महान नायकों की वीर गाथाएं  भोजपुरी, मैथिली और मगही में काफी प्रचलित हैं। इन स्वतंत्रता आंदोलनों के गीत पहले सुबह मेंऔर शाम में संझा पराती गाने का रिवाज रहा करता था वहीं जांता पिसती और ढेंकी चलाते महिलाएं गाया करती थी। जबकि अभी भी रंगों का त्योहार होली में इन लोकगीतों के गायन का प्रचलन बरकरार है। बिहार के तमाम जिलों में लोकगायकों ने बाबू कुंवर सिंह की वीर गाथा को लोकगीतों के माध्यम से चप्पे-चप्पे तक पहुंचाकर देश भक्ति की भावना को उद्दीप्त किया। इन गीतों की जनचेतना के प्रसार और जनसंचार में बड़ी भूमिका रही। भोजपुरी क्षेत्र में वीर कुंवर सिंह और उनके भाई अमर सिंह की बहादुरी के किस्से के गाने की परंपरा आज भी चली आ रही है। “पहिले लड़ाई कुंवर सिंह जीतले/दोसर अमर सिंह भाई/तिसरी लड़इया हरवहवा/गईल लाट घबड़ाई।                       इसी तरह महात्मा गांधी के 1917में बिहार के चम्पारण में सत्याग्रह के संघर्ष ,जो राष्ट्रीय आंदोलन हुए हैं। उसका भी वर्णन भी लोकगीतों में प्रचुर मात्रा में हुआ है। आजादी प्राप्त होने के बाद महिलाएं की गीतों में राष्ट्रीय चेतना के स्वर साफ-साफ सुनाई पड़ते हैं-                      आयेल बांटे गांधी के सुराज हो
हम खद्दर पहिनब वा
हम खद्दर पहिनब ना
ललना छोड़ी देहु कपड़ा विदेशी,
सुशिया के पहिरहु हो
अवरु चलावहु चरखा,
सबहिं मिलि गावहु,                                   ललना भारत मइया मंझधरवा त पार लगावहु।
इस तरह लोक गायकों ने लोकगीत के माध्यम से देश की आजादी में वगैर किसी आधुनिक जनसंचार के माध्यम नही रहने के वाबजूद भारतीय लोगों को दिलो-दिमाग में स्वतंत्रता पाने के लिए जोश जगाने का काम करते रहे।

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