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अगर मौत के बाद भी हसीन दुनिया देखनी हो,
तो वक़्त रहते अपने ज़मीर की सदा पर रहम दिली से आँखें दान कर दो।
और अगर कहते हो कि इंसानियत की ख़िदमत करोगे,
अँध विश्वास मिटाकर इल्म और तर्क़ का दामन थामोगे,
तो फिर नाम, ज़ात, मज़हब और बिरादरी से ऊपर उठो—
तरक्की की राह में साइंस का हाथ पकड़ो।
जो ख़ून, अज़ा और जिस्म दान करता है,
वही सच्चा इंसान है, सबसे आला उसका मक़ाम है।
इतनी नफ़रत, तशद्दुद और इंतिक़ाम,
मुल्क में सुकून नहीं,
अवामी साइंस लड़ रहा है
इंसानों से मोहब्बत करके।
इबादतें, नमाज़ें, पूजा—
सब बेमानी हैं,
क्यूँकि ये भूख और बेसर-ओ-सामानी का हल नहीं।
इंसानियत के उसूलों में,
तर्क़-ओ-शऊर की तहरीक में शिरकत करो,
फ़ानी जिस्म को दान कर,
ज़िंदगी बचाने की जद्दोजहद में शामिल हो जाओ।
कब्रों का बोझ और चिताओं की बदबू,
मरणोत्तर जिस्मदान से इन्हें ख़त्म करो।
मुरदा जिस्म मज़हबी क़ैद से आज़ाद हो,
जो कहना हो, जाहिल लोग कहें।
“मैं जब मर जाऊँ तो मेरी अलग पहचान लिख देना,
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदोस्तान लिख देना।”





















