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धम्मपद्द अपमादवग्गो~११~२ सूत्र- अंक~३३ — आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में अपमादवग्गो के ग्यारहवें पद्द के द्वितीय अंक का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“अप्पमादरतो भिक्खु पमादे भयदस्सि वा ।
संयोजनं अण्णुं धूलंडहं अग्गीवगच्छति ।।११।।”
पिछले अंक से आगे ! मैं आपसे बुद्ध निर्दिष्ट अन्य पाँच संयोजनों पर अब समझने का प्रयास करता हूँ ! अन्य पाँच-“संयोजन” निम्नलिखित हैं–
(६)= रूपराग-विषयों में आसक्ति !
(७)= अरूपराग-रूपों  के अतिरिक्त विषयों में राग !
(८)= मान !
(९)= औद्धत्य- चंञ्चलता का होना !
(१०)= और अविद्या।
अब पुनः तथागतजी कहते हैं कि” रूपराग-विषयों में आसक्ति”इसे समझने हेतु मैं अपनी गुरू”आनंदमयी माँ”के द्वारा कभी मेरी बाल्यावस्था में कही गयी एक स्मृति को प्रस्तुत करता हूँ- जब उन्होंने मेरे कानोंमें”श्रीकृष्ण नाम”का प्रवाह किया और उनकी गोद से उतरकर मैं वापस आया !
तो मेरे एक आध्यात्मिक सहचर थे-“गोपाल दासजी” लोग उन्हें जंगली बाबा के नाम से जानते थे,उच्चकोटि के अवधूत थे वे ! परमार्थ निकेतन ॠषिकेश में वे निवास करते थे और भगवती सदृश्या आनंदमयी माँ का भी उनके प्रति वात्सल्य था ! उन्होंने मुझसे पूछा कि-“माँ”की गोद में जाकर क्या जाना तूँने ?
मैं बोला ! कि-मैं जिसे जानता हूँ-उसे ही वस्तुतः नहीं जानता !
और जिसे नहीं जानता- उसे ही वास्तव में मैं जानता हूँ !
वे मुझसे बहूत बड़े थे,मेरे सर पर हाँथ फिराते हुवे वे बोले कि-पगले ! तूँ जिसे जानता है-उसे ही वस्तुतः कैसे नहीं जानता ?
और जिसे नहीं जानता- उसे ही वास्तव में तूँ कैसे जानता है ?
तो मैंने उनसे कहा कि बाबा ! यह तो मैं आज जान गया कि जो-जो भी जिन-जिन रूपों में जन्मा है ! वह अवस्य ही मृत्यु को प्राप्त होगा-यह मैं जानता हूँ ! किन्तु ! वह कब कहाँ क्यूँ और कैसे मरेगा ! यह मैं नहीं जानता ! मैं नहीं जानता कि मैं किन कर्मों के कारण कभी पशु,पक्षी,कीट,पतँगा या फिर आज मनुष्य  बना ! और कल फिर न जाने किन योनियों में जाऊँगा !
अब तो मैं यह कह ही नहीं सकता कि “मैं क्या जानता हूँ-और क्या नहीं जानता।”
“किन्तु हाँ प्रिय मित्रों ! मैं अब जानना चाहता हूँ !”
उसी पल से मेरा जीवन के किन्ही भी रूपों के प्रति राग क्या है ?
इसका अनुभव हुवा ! मैं समझ गया कि” रूपराग- विषयों में आसक्ति”यही है ! नाना प्रकार के रूपों के प्रति आसक्ति का यही कारण है-“नाम का अभाव !” सद्गुरू द्वारा प्रदत्त हो सकने वाले मार्ग का अभाव ! अर्थात-“झूठ न छोड़ा कपट न छोड़ा नाम जपन क्यूँ छोड़ दियां ?” और सद्गुरू देवजी के द्वारा “नाम-दान ” से तत्काल इस संयोजन का ज्ञान होता है।
स्वरूप अपना हो अथवा किसी तथाकथित अपने का हो ! यही आसक्ति का कारक बन जाता है ! “नाम-रूप और गुण” ऐसी उलझन है जिसे जितनी सुलझाने की कोशिश करेंगे उतनी ही ये और उलझती जायेगी।
सातवाँ सयोजन है-“अरूपराग-रूपों  के अतिरिक्त विषयों में राग” इसे समझने हेतु एक बात मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि- रूपराग-विषयों में आसक्ति का जो आप जैसे मुमुक्षु गण ज्ञान प्राप्त कर उससे मुक्त हो जाते हैं ! उन्ही को-“अर्हन”कहते हैं-
“अर्हन” अर्थात अब मैं नहीं होऊँगा” बीज ही जल गया ! अच्छे-बुरे सभी कर्म ज्ञानाग्नि में भष्म हो गये ! अब आप ही विचार करें कि विभिन्न सांसारिक दृश्यमान्- रूपों को जिनने जानकर नकार दिया ! उनसे मुक्त हो गये ! वे अब न दिख पाने वाली देवादि सत्ताओं के प्रति भला कैसे मोहित हो सकते हैं ? हाँ मित्रों ! जिन्हें साँसारिक विषय-भोग प्रभावित नहीं कर सकते उसे-इन्द्र का पद भी विचलित नहीं कर सकता ! ऐसे दुर्लभ व्यक्तित्व होंगे जिन्हें समूचे विश्व की राजकीय सत्ता की अपेक्षा शिव का द्वारपाल नंदी बनना प्रिय है।
और जब ऐसा होता है तो फिर भला उसे मान- अपमान से क्या औचित्य रह जायेगा ? और इस मानापमान की उपेक्षा किस सीमा तक हो सकती है- एक बार भगवान कपिल अपने एक शिष्य “स्वर्णकार”के घर गये ! भोजन का समय था, वह स्वर्णकार आँगन में बैठा-एक स्वर्णपत्र पर कुछ निर्माण कर रहा था,वह कपिलमुनी को बैठाकर अंदर रसोंई घर में गया-भोजन की व्यवस्था देखने ! और इसी बीच एक घटना घटती है,एक कबूतर उत्सुक्ता वश उस स्वर्णपत्र को अपनी चोंच में लेकर पास के एक वृक्ष पर बैठ जाता है, वापस आने पर वहाँ स्वर्णपत्र न देखकर वह स्वर्णकार ‘मुनिराज’पर आक्रोशित हो जाता है,उन्हे अनेक प्रकार से प्रताड़ित करता है कि बताओ मेरे स्वर्णपत्र को कहाँ छिपा कर रक्खा है ?
और अंततः वह कपिलजी की नासिका पर कपड़े बाँधने लगता है-उनका दम घुटने लगता है,तथापि वे यही सोचते हैं कि,यदि मैं बता देता हूँ तो वह अबोध निर्दोष कबूतर अनायास ही मारा जायेगा,और इसमें स्वर्णकार का भी कोई दोष नहीं है ! और यह चक्रब्यूह किसी की बली लिये बिना भँग होगा भी नहीं ! तो चलो मैं ही अपने प्राणों की बली देने को प्रस्तुत हूँ ! हाँ मित्रों ! इसे “बली” कहते हैं ! देवी देवताओं अथवा अल्लाह के नाम पर निरीह जीवों की क्रूरता पूर्वक बली को-“हत्या” कहते हैं।
मानाऽपमान की अवहेलना का यह दुस्तर पक्ष है-जो कपिल जैसे मुनिराज से ही अपेक्षित है ! अभी इस पद्द का भाव शेष है !
शेष अगले अंक में ! “आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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