प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में अपमादवग्गो के पंचम पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“उट्टानेनप्पमादेन संयमेन दमेन च ।
दीपं कायिराथ मेधावी यं ओघो नाभिकीरति।।५।।”
पुनः तथागतजी कहते हैं कि-“उट्टानेनप्पमादेन संयमेन दमेन च”
मैं आपको स्मरण कराना चाहता हूँ कि तथागतजी ने जो- “उदान” (प्रीति-वचन) कहे–
“अरे भिक्षुओं ! मुझे बारम्बार कष्टमय जन्म लेना पड़ा ! मैं घर बसाने की चाह में जन्मों-जन्म व्यर्थ ही भटकता रहा ! किंतु अब हे मेरे गृह के कारक ! मैं तुझे अब देख चुका हूँ ! अब तूँ फिर से मुझसे गृहनिर्माण नहीं करवा सकता ! तेरे सभी साधन मैंने तोड़ दिये ! अब घर के शिखर (छत) को ही ढहा चुका हूँ (सहस्रार को प्राप्त हो चुका हूँ) मेरा चित्त”निर्वाण”को प्राप्त कर तृष्णा का क्षय होते देख चुका है। इसी सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि-
चूहे होते हैं बहुत उद्यमी से ! बिल खोदें अपरम्पार वे अभागी ! उस घर को भुजंग भोगते हैं ! घर खोदी-खोदी के मरते हम अभागी ! अपने लिये क्या कर लिये ?”
हाँ प्रिय मित्रों ! इन वचनों को पढकर मेरा रोम-रोम रोमांञ्चित हो जाता है ! मैं रोमांञ्चित होता हुवा आत्म-लेखनी से- “उट्टानेनप्पमादेन संयमेन दमेन च “पद के भाव को आपसे समझने का प्रयास करता हूँ–
मैं कहीं दूर से आ रहा हूँ ! और कहीं अंजान दूरियों वाले स्थान पर मुझे जाना है,गंतव्य अभी बहूत दूर है, नाना योनियों में भटकता-भटकता,चलता-चलता बहूत ही थक गया हूँ !
“इहु संसारे खलु दुश्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे”
और बहुत ही उनकी अहैतुकी कृपा हुयी कि ये दुर्लभ मानव-जन्म भी मिला ! और एक कड़ुवा सत्य ये भी है कि यह मानव जन्म किसी पहाड़ी का वह नुकीला शिखर है–जिसकी एक तरफ “पशु,पक्षी,राक्षस,कृमी,वूक्षा
“आये हैं सो जायेंगे राजा रंक फकीर।
कईक बिमाने चढि चले कईक बंधे जंजीर॥”
और जंजीर लोहे की हो अथवा सोने की किन्तु-“जंजीर तो जंजीर ही होती है ? विमान पर चढकर जाने वालों ! मंहगी गाडियों में बैठकर जाने वालों को सायकिल प ! पैदल चलते लोग कीडे मकोड़े लगते हैं किन्तु वे ये भूल जाते हैं कि इसी जमीन पर कुछ देर बाद वे भी चलते फिरते दिखेंगे।
तथागतजी कहते हैं कि” उट्टानेनप्पमादेन” ये मानव जन्म दोनों ही गतियों का प्रवेश-द्वार है,मध्य-बिंदु है ! और कोई कोई तो आप जैसे महान् अपने इस मानव जन्म रूपी आश्रय को कुछ इस प्रकार बना लेते हैं कि–
“प्रभू कृपा तब जानिये जब दें मानव अवतार।
गुरू कृपा तब जानिये जब मुक्त करें संसार।।”
मैं आपकी चिरौरी करता हूँ कि मुझपर कृपा कर दो,किसी को अपना गुरू बना लो ! आप और भी किसी का मार्ग प्रशस्त करो !इस संसार में जबतक मेरे इस शरीर का प्रालब्ध शेष है तब तक आपकी प्रेरणा से मैं-“यमेन दमेन च निरन्तरम्”
अपनी दुश्चरित्र चित्त-वृत्तियों का यमन करता रहूँ, आपके आशीष और आपके पद चिन्हों पर चलते हुवे मैं अपनी “दुषित इच्छाओं”को -बल पूर्वक दबाने की अपेक्षा आप जैसे सच्चरित्रों का उदारहण देकर उनका”दमन”करूँ।
अब पुनः मैं तो यही चाहूँगा कि-“दीपं कायिराथ मेधावी यं ओघो नाभिकीरति”
मित्रों ! आपकी कृपा से प्राप्त”ब्रम्हाण्ड रूपी महासागर के मध्य भयानक थपेणों की मार खाता मैं- ये जो मानव जन्म रूपी-“द्वीप का-आश्रय” मुझे मिला है ! इस द्वीप पर विषयों से मन को दूर रखते हुवे,बाह्येन्द्रियों से अपने चित्त को बचाने का प्रयास करता हुआ”आप जैसे भक्त ! महापुरुषों जैसे प्रेरणास्रोत लोगों की शरण” में रहूँ।
उनकी शरणों का आश्रय लेने से काम- क्रोधादि के आवेग से भी मैं उनकी छाँव में बच जाऊँगा ! मित्रों ! कुछ न करने से कुछ करना अच्छा है ! मन्दिर की सीढियां चढने से आज नहीं तो कल मदिरालय की सीढियों पर चढने से मन हटेगा ! अवस्य हटेगा ! हनुमान चालीसा का ही सही पाठ तो करो ? इससे धीरे-धीरे गीता पढने का भी मन होगा ! गीता पढने पर उसे समझने की भी इच्छा होगी ! और ऐसी इच्छा हुयी तो उनका पालन भी होगा ! अनायास ही होगा ! निश्चित रूप से मानव जन्म रूपी नुकेले शिखर पर बैठे रहने की क्षमता भी विकसित होगी जैसा कबीरदास जी कहते हैं कि-
घूंघट के पट खोल री तुझे पिया मिलेंगे !
आसन से मत डोल री तुझे पिया मिलेंगे ।”
ये आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि बांग्ला भाषी अर्थात जन्मना मांसाहारी लोगों के मध्य रहते हुवे भी मुझे कभी मांसाहार से न घृणा हुयी और न ही कभी उस ओर देखने की इच्छा हुई ! किन्तु दुर्भाग्य है कि हमारे उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों ने इनसे अपनी मातृभाषा से प्यार,अपनी संस्कृति और अपने लोगों संग एकता जैसी विचारधारा सीखा या नहीं सीखा किन्तु-“मांसाहार” सीख लिया-“झूठ न छोड़ा कपट न छोड़ा सत्य बोलना छोड़ दिया” और ये जानते हुए भी कि अंततः-“सत्य बोलो गत्य है ! राम नाम सत्य है” यही इस”पद्द”का भाव है !शेष अगले अंक में लेकर पुनः उपस्थित होता हूँ !..-“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”





















